पाताललोक, ए सुटेबल बॉय और अब तांडव पिछले 8 महीनों में यह तीसरी बार है जब हिंदू देवी देवताओं और प्रतीकों का मज़ाक उडाने, उनकी जड़ पर प्रहार करने की कोशिश हुई है. मई 2020 में आई ‘पाताललोक’ सीरीज़ में यह दिखाया गया कि कैसे अयोंध्या में इकट्टा हो रहे कारसेवकों ने राम नाम का झंडा बुलंद करते हुए एक सीधे साधे मुस्लिम की ट्रेन से खींचकर लिंचिंग की. वह मुस्लिम जिस अखबार पर रखकर खाना खा रहा था उसकी हेडलाइन कुछ यह थी- अयोध्या में कारसेवकों का जमघट. इस सीन में ध्यान देने योग्य बात यह थी कि उस अखबार की तारीख 5 दिसंबर 1992 थी यानि बाबरी मस्जिद विध्वंस से ठीक एक दिन पहले की. मतलब यह हुआ कि इस सीन के ज़रिए यह स्थापित करने की कोशिश की गई कारसेवकों ने बीफ के संदेह में एक मासूम मुस्लिम की लिंचिंग की. सीरीज़ में पूरे पुलिस महकमे में एक ही समझदार पढ़ा-लिखा आदमी दिखाया गया जो मुस्लिम था और उसे लगातार महकमें के और साथियों-अधिकारियों द्वारा ह्यूमिलिएट किया जाता रहा. इसके अलावा हिंदू देवी-देवताओं के सामने मंदिर परिसर में नॉनवेज खाने जैसी तमाम वह बातें थी जिनके ज़रिए हमारे धर्म की छाती पर चढ़कर प्रहार की कोशिश हुई. इतना ही नही आज किसान आंदोलन के ज़रिए हिंदुओं और सिखों को एक दूसरे से अलग करने की जो कोशिश देशविरोधी ताकतों द्वारा की जा रही है उसकी नींव इस सीरीज़ में मई 2020 में ही रख दी गई थी. हिंदुओं-सिखों के बीच दरार डालने की कोशिश करते हुए इसमें पहले सिखों को एक हिंदू के साथ जाति के नाम पर क्रूरता करते दिखाते हैं फिर उस हिंदू को बदला लेने के नाम पर सिखों के साथ.
फिर आई ‘ए सुटेबल बॉय’. नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई मीरा नायर की इस वेब सीरीज में एक हिंदू लड़की और मुस्लिम लड़के के बीच फिल्माए गए किस सीन, तीनों ही बार मध्य प्रदेश के महेश्वर घाट स्थित शिव प्रांगण में फिल्माए गए. हिंदू आस्था का प्रतीक, इंदौर ज़िले से लगभग 90 किमी की दूरी पर मध्यप्रदेश के खरगोन ज़िले में स्थित महेश्वर, भगवान शिव का स्थान माना जाता है क्योंकि मान्यता है कि यहां पाषाण काल के तमाम शिवलिंग हैं. इसी शहर को महिष्मती भी कहा जाता था और हिंदू आदिगुरु शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच हुआ प्रसिद्ध शास्त्रार्थ यहीं हुआ था. रानी अहिल्याबाई होल्कर जो एक प्रसिद्ध शिवभक्त के रूप में भी जानी जाती हैं उनकी राजधानी भी यही शहर था.
ऐसे में यह कैसे मान लिया जाए कि सीरीज़ में महेश्वर का जो शिव प्रांगण हर बार इस सीन को फिल्माने के लिए चुना गया वह केवल एक संयोग था? एक 10 मिनट की डॉक्यूमेंटरी को बनाने के पीछ भी महीनों की रिसर्च और मेहनत होती है ऐसे में यह मान लेना कैसे संभव है कि इस सीरीज़ में महेश्वर को चुने जाने के पीछे कोई रिसर्च नहीं की गई और इसके पीछे एक सोची समझी साज़िश नहीं थी?
और अब ‘तांडव’…. अमेज़न प्राइम पर इन दिनों स्ट्रीम हो रही इस सीरीज़ ने भले ही अब विवादित सीन हटाने की सहमति दे दी है लेकिन क्या यह काफी है? जो अपने बच्चे का नाम तैमूर रखता हो उसकी सोच जगज़ाहिर है उससे क्या सवाल किया जाए, और सवाल तो उससे भी नही पूछना जिसकी देशविरोधी बातें शाहीन बाग की गलियों में एक साल बाद भी गूंजती हैं, सवाल तो अली अब्बास ज़फर से है- जो दृश्य ज़ीशान अयूब को लेकर उन्होने बनाया उसे बनाने की हिम्मत क्या वह अपने ही मज़हब पर कर सकते हैं? और अगर कर सकते हैं तो क्या ‘रंगीला रसूल’ जैसा कुछ बनायेंगे वह?
सवाल उन विशेष मौकों पर भड़कने वाले चौथे स्तंभ के पहरेदारों से भी है जिन्हे तांडव में तो अभिव्यक्ति की आज़ादी दिखाई देती है और जो यह कहते हैं कि नहीं पसंद है तो न देखो- लेकिन क्या यह लोग ‘रंगीला रसूल’ पर एक डिबेट करेंगे? डिबेट छोड़िए क्या इनमें से किसी की इतनी भी हिम्मत है कि एक रंगीला रसूल के फेवर में एक ट्वीट ही कर दें?
जवाब हम जानते हैं.
खैर,
तो फिर सवाल अब हम सबसे है- हम हर बार विरोध की आवाज़ उठाते हैं, हिंदूविरोधी ताकतों से सवाल करते हैं, और वह माफी मांग लेते हैं फिर बात खत्म. हम अपने काम-धंधे और नौकरी-चाकरी में लग जाते हैं और वह लोग अगली सीरीज़, किताब या फिल्म की प्लानिंग में. यह सब इतना आसान क्यों हैं उनके लिए?
आखिर क्यों?
शायद इसलिए क्योंकि वह जानते हैं कि बवाल होगा, पब्लिसिटी मिलेगी, आमदनी होगी, एजेंडा देश भर में जाएगा, और ज़्यादा लोग जुड़ेंगे उनसे और वह फिर और मज़बूत होंगे.
यह सब देखकर दिनकर जी की कविता मुझे याद आती है,
“सच पूछो तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की
संधि वचन संपूज्य उसी के जिसमें शक्ति विजय की”
संगठन में ही शक्ति है, और जो विजय की शक्ति रखता है संधि-वचन भी उसकी के मान्य होते हैं.
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