आए दिन सामाजिक संस्थाओं और मीडिया में अस्पृश्यता के मुद्दे पर तीव्र बहस होती रहती है और इस मुद्दे पर हमेशा राज कारण किया जाता है। लेकिन हर बार ये सवाल उठता ही है कि अस्पृश्यता अस्तित्व में कब से आई और किस वजह से आई? तो आज इस पर सर्च करने के बाद जो मेरे सामने आया वो में आपके सामने रख रहा हूं। में सबसे पहले डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की अपनी बुक के संदर्भ से बात रखूंगा। बाबा साहेब की अपनी बुक बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर का सम्पूर्ण वाङ्‌मय, पृष्ठ संख्या 146

बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर का सम्पूर्ण वाङ्‌मय, पृष्ठ संख्या 146

जिनमें वो लिखते है:

चांडाल कन्या का यह वर्णन पढ़ कर अनेक प्रश्न पेदा होते है पहले तो यही कि फ़ाहियान के वर्णन से कितना भिन्न है? दूसरे एक बाण एक वात्सायन ब्राह्मण है। उसके द्वारा चांडाल बस्ती का ऐसा वर्णन कर चुकने के बाद चांडाल कन्या का ऐसा ऐश्वर्यशाली वर्णन करने में कुछ संकोच नहीं होता। क्या इस वर्णन का छुआछूत से जुड़ी प्रचंड घृणा की भावना से मेल बैठता है? यदि चांडाल अछूत थे तो एक अछूत कन्या राजा के महल में कैसे जा सकती थी? एक अछूत के लिए बाण इस प्रकार की भाषा कैसे उपयोग में ला सकता था? पतित होने की बात तो बहुत दूर है बाण के समय में चांडालो के शासक परिवार भी थे। बाण चांडाल कन्या को चांडाल राजकुमारी कहता है। बाण ने कादम्बरी 600 ई. के आसपास लिखी। इसका अर्थ हुआ कि 600 ई. तक चांडाल अछूत नहीं समझे जाते थे। इससे यह एकदम संभव प्रतीत होता है कि फ़ाहियान ने जिस अवस्था का वर्णन किया है वह यद्यपि छुआछूत कि सीमा को स्पर्श करती है किंतु वह अस्पृश्यता नहीं भी हो सकती। संभव है कि यह अपवित्रता को लेकर अति करने की बुरी आदत रही हो। यह बात और भी अधिक संभव प्रतीत होती है। यदि हम यह बात याद रखें कि जब फ़ाहियान भारत आया उस समय यहां गुप्त राजाओं का राज था। गुप्त नरेश ब्राह्मणवाद के पोषक थे। यही वह समय है जब ब्राह्मणवाद का पुनरुद्धार हुआ और यह विजयी हुआ। एकदम संभव है कि फ़ाहियान जिस चीज का वर्णन करता है वह अस्पृश्यता नहीं है किंतु वह एक सीमा है जहां तक ब्राह्मण इस संस्कारग्रस्त अपवित्रता को खींचकर ले जाना चाहते थे। यह संस्कारग्रस्त अपवित्रता कुछ जातियों , विशेष रूप से चंडालो के साथ जुड़ गई थी।
दूसरा चीनी यात्री जो भारत आया उसका नाम उसका नाम ह्यवेन सांग था। वह 629 ई. में भारत आया और भारत में 16 वर्ष तक रहा तथा लोगों के रीति-रिवाजों और देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक की गई अपनी यात्राओं का यथार्थ विवरण अपने पीछे छोड़ गया है। भारत के मकानों और शहरों की सामान्य अवस्था का वर्णन करते हुए कहता है:-
जी शहरों और बस्तियों में वो रहते है उन शहरों, मकानों की चारदीवारी ऊंची, चौड़ी है किंतु सड़के तंग और टेढ़ी-मेढ़ी है। दुकानें सड़कों पर है और सरायें सड़कों के किनारे-किनारे है। कसाई, धोबी, नट, नर्तक, वधिक और भंगियो की बस्ती एक निश्चित चिह्नों द्वारा पृथक की गई है। वे शहर से बाहर रहने के लिए मजबूर किए जाते है और जब भी उन्हें किसी घर के पास से गुजरना होता है तो वे बायी ओर बहुत दब के निकलते है।

बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर का सम्पूर्ण वाङ्‌मय, पृष्ठ संख्या 146

ऊपर की लिखावट से ये बात तय होती है की 6 ई. में अस्पृश्यता अभी शुरू नहीं हुई थी लेकिन तब हमारे मकानों की बनावट और शहरों की बनावट इस तरह की थी की कुछ वर्ग के लोगों को तंग गलियों से गुजरने के लिए सामने वाले को मार्ग देने के लिए दब के जाना पड़ता था। शायद ऐसी प्रथा आगे चलते अस्पृश्यता की जनक हो सकती है। या फिर अस्वच्छता के कारण को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। अब बाबा साहब की बुक Untouchables अंग्रेजी संस्करण में भी ऐसी ही बात लिखी है।

Book: Untouchables by Ambedkar, B.R When did broken Men become Untouchables? page no. 163

लेकिन इसी विषय पर इस विषय पर आप ब्रजबिहारी कुमार, ICSSR चेयरमैन का BBC पर एक लेख है। जिसमें मुस्लिमों के आक्रमण के बाद कई लोग विस्थापित हुए। कई लोगों ने जंगल में आश्रय लिया या फिर मुस्लिम शासक उनको धर्म परिवर्तन के लिए दबाव न डाले इसीलिए सूअर पालन का व्यवसाय अपनाया। क्योंकि सूअर मुस्लिमो के लिए अपवित्र है। ब्रजबिहारी कुमार, ICSSR चेयरमैन का BBC पर एक लेख -> ‘जंगल में छिपने वाले आदिवासी और सूअर खाने वाले दलित बने’

तो अगर हम चचनामा भी देखे तो अस्पृश्यता पश्चिम भारत में भी नहीं थी। लेकिन आधुनिक भारत में तकरीबन 8 ई. के बाद शुरू हुई होगी और 18 ई. तक हालत बिगड़ चुके थे और फिर आजादी की लड़ाई में भारत के समग्र लोगों के उत्थान की बात आई। सर्वांगीक विकास के लिए देश के हर लोगों का विकास जरूरी है ये समजते हुए गांधीजी ने अस्पृश्यता निवारण अभियान, स्वच्छता अभियान चलाया। तो ठक्कर बापा ने आदिवासी के उत्थान का अभियान और विनोबा भावे ने भूमिदान जैसे अभियान चलाये जिससे पिछड़े लोगों का विकास हुआ और अस्पृश्यता में भी काफी फर्क पड़ा।

अब अस्पृश्यता की कोफीन में आखरी कील लगाने के लिए स्वच्छता जरूरी है। और आज का नरेंद्र मोदी का स्वच्छता अभियान भी अस्पृश्यता जैसी रीति में आखिरी कील है। तो स्वच्छता का प्रचार से ही ये कु-रिवाज पूरी तरह खत्म होगा।

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