रवीश कुमार एक वेल ट्रेंड पत्रकार हैं और आने वाले पत्रकारों के लिए एक स्टैंडर्ड मेजरिंग स्टिक। परंतु वामपंथ के प्रति उनका झुकाव उन के तीखे तेवर को काना बना जाता है। वे पूरा मामला अधूरा देखकर या अपने पूर्वाग्रहों के साथ हीं रिपोर्टिंग प्रारंभ कर देते हैं।
इसी हफ्ते एक-दो दिन पहले जब वह किसान आंदोलन के लुटे पिटे भग्नावशेष का डिस्क्रिप्शन दे रहे थे तो वहां के स्थापित जिम, रोटी बनाने की मशीन, ट्रैक्टर की ट्रॉली पर बना गया बनाया गया एयर कंडीशन टेंट आदि को गरीब किसानों के आंदोलन में पेट काट काट कर जुटाया गया सामान बता रहे थे मतलब कितने मुश्किल से किसान प्रदर्शनकारी जिम में दंड पेल कर आकर अपना दिन बिता रहे थे, काफी कष्ट सह कर लंगर की गरम-गरम रोटियां खा रहे थे और उस आंदोलन के बड़े नेता एयर कंडीशन टेंटों में बाकी किसानों के साथ आगे की रणनीति तय करते थे।
उस भग्नावशेष में परन्तु उन्हें उस ईशनिंदक की हड्डियां नहीं मिली जिसे निहंगो ने मार कर टांग दिया था। परंतु मोदी की काशी कारीडोर अर्पण के दौरान ५५ कैमरों से निगरानी अखर गई और दूरदर्शन की ये फिजूलखर्ची रवीश को बुरी लगी।


वैसे जहां तक मेरा सामान्य ज्ञान है राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से पहले के राष्ट्रपतियों के लिए जूता उतारने और पहनाने वाला भी एक सेवक हुआ करता था। कलाम साहब ने ये परंपरा बन्द की।
आंकड़ों के बारे में लेखक का ज्ञान बहुत अच्छा नहीं है परंतु इतना सुना है कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री ,राज्यपाल और मुख्यमंत्री के सम्मेलनों के लिए सैकड़ों प्रोटोकॉल्स होते हैं जिसमें पुलिस, सीआरपीएफ ,रैपिड एक्शन फोर्स और तमाम न्याय व्यवस्था स्थापित करने वाली संस्थाओं के ऑफिसर इंगेज रहते हैं।
लेखक इस बात का साक्षी रहा है कि अलीगढ़ रेलवे स्टेशन से रेल मंत्री लालू की दो तीन डिब्बों वाली ट्रेन गुजरनी थी तो उसी स्टेशन के सूखे और बांझ नलों से भी मीठा पानी निकलने लगा था।
तो जब रेल मंत्री के शान में इतने कसीदे तैयार किए जा सकते हैं तो मोदी बाबू तो प्रधानमंत्री हैं जो ना हो वही कम है।
फिजूलखर्ची तो है पर किया क्या जाए?


ज्यादा लोकप्रियता बटोरने के चक्कर में सुरक्षा एजेंसियों की सूचनाओं को दरकिनार करने का खामियाजा स्वर्गीया गांधी को भुगतना पड़ा और हिंदू और सिक्खों के दंगे का सूत्रपात हुआ।
आतंकवाद, बेरोजगारी ,गरीबी, भूखमरी , भ्रष्टाचार आदि तो एक वैश्विक समस्या है और विश्व का हर देश इससे जूझ रहा है तो उन देशों के राष्ट्राध्यक्ष या शासन प्रमुख को क्या करना चाहिए? क्या गांधी की तरह उन शासनाध्यक्षों को भी आधा बदन ढकने वाली धोती पहनकर घूमना चाहिए? ट्रेन के थर्ड क्लास डब्बे में घूमना चाहिए और जनकल्याण के कार्यों के लिए कहीं भी पैदल ही जाना चाहिए।

सत्ता प्रमुख की कुछ प्रशासनिक मजबूरियां होती हैं जैसे कभी केजरीवाल ने भी सरकारी बंगले से मना किया था पर आज १० वर्षों से मुख्यमंत्री के लिए आवंटित सरकारी बंगले पर टांग पसारे बैठे हैं क्योंकि मुख्यमंत्री का काम झुग्गी में बैठकर नहीं किया जा सकता।
बस रवीश से मेरा एक सवाल है कि जब ( कृषि कानूनों के लागू होने से लगभग मृतप्राय) डेढ़ पसली के किसानों की नुमाइंदगी करने वाले नेतागण एयर कंडीशन्ड टैंट में आराम फरमा सकते हैं तो ५६ इंच के सीना वाला मोदी के कार्यक्रमों के रिकार्डिंग के लिए दूरदर्शन ५५ कैमरे क्यों नहीं लगा सकता?

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