पूज्य श्री स्वामी करपात्री जी को धर्मसम्राट् की उपाधि मिलने का एक कारण यह था कि उनका प्रत्येक निर्णय, वक्तव्य शास्त्रसम्मत होता था। धर्म के अन्यान्य विरोधियों के उपस्थित होने पर भी, अन्यान्य संस्थाओं की भांति उन्होंने पलायनवाद न अपनाकर धर्म के सिद्धांतों को ही सुदृढ़ करने का मार्ग अपनाया। धार्मिक पक्ष के लिए आंदोलन किए, शास्त्रप्रामाण्य की स्थापना के लिए ही ग्रंथ रचना आदि कार्य किए। ऐसी स्थिति में अज्ञ व्यक्तियों को उनके विषय में शंका हो भी जाए तो क्या आश्चर्य?आलोच्य लेख का शीर्षक है “करपात्ररत्नसमुच्चय” (लिंक यह है) इसके सन्दर्भ लाल रंग में दिए गए हैं। हमारी और शास्त्रों की दृष्टि में तो यह सभी करपात्ररत्न साक्षात “धर्म” ही हैं, अत: लेख का नाम भी तद्नुरूप ही रखा गया है।
स्वामीजी द्वारा लिखे गए सभी शास्त्रसम्मत होने के कारण धर्म का अङ्ग हैं। यदि उनके विरोधी व्यक्तियों में लेशमात्र भी सज्जनता शेष हो तो वे धर्म को प्रमाण मान लें, पालन करें, तदनुरूप धार्मिक वाक्यों के समर्थन में अनेकों तर्क ढूंढने का प्रयास करें। यदि मलेच्छों के प्रभाव में भयभीत हों या पलायनवादी दुर्जन ही हों तो किसी शास्त्र को प्रक्षिप्त घोषित कर, किसी परम्परा को मध्यकालीन कह, अप्रासंगिक व्याख्या कर पलायन करें। यह सभी ईश्वर,ऋषि,देवताओं के वचन हैं, इनके वचनों का किन्हीं भौतिकवादी मनुष्यों द्वारा विरोध किया जाना ऐसा ही है जैसे न्यायधीश के समक्ष काक(कौवा) ‘कांव कांव करे।ध्यान रहे कि लेख में जो कुछ भी शास्त्रीय प्रमाण हमने दिए हैं,वह हमारे समर्थन में उपलब्ध शास्त्रीयप्रमाणों का दशमांश भी नहीं है। जितने प्रमाणों की आवश्यकता उचित अनुभव हुई उतने अंश का ही वर्णन लेख में किया गया है।
यह लेख अन्त तक पढ़ें।मध्य का भाग न भी हो तो अन्तिम भाग को पढ़कर हृदयंगम करें। अन्तिम भाग परम्पराविरोधियों एवं उन व्यक्तियों को अवश्य ही पढ़ना चाहिए जो मात्र प्रतिक्रियास्वरूप ही शास्त्रवादी बन गए हैं। करपात्री जी जिन्होंने स्पष्ट घोषणा की थी कि “अन्त्यज तथा अन्य पिछड़े हुए वर्गों की दशा सुधारना , रहन – सहन शिक्षण और स्वास्थ्य की उन्हें विशेष सुविधाए देना , उन्हें उनके उपयुक्त उच्च से उच्च पद देना और समाज की दृष्टि से उनका मान बढ़ाना ।” यह हमारा उद्देश्य है। उनके विषय में आलोच्य लेख में लेखक ने अपने निरर्थक विचारों का उत्थापन किया है, जो कि केवल दुःसाहस का सूचक है। उस पर कुछ भी लिखना केवल समय का अपव्यय करना है। तथापि अज्ञजनता कहीं स्वामी करपात्री जी के विषय में भ्रमित न हो , बस केवल इस लिए लेखनी को श्रम दिया गया है। बुद्धिमान,गुरुशिष्य परम्परा प्राप्त व्यक्तियों के लिये तो कुछ कहना ही नहीं है,उन्हें धर्म के प्रमाण, परम्पराओं, शास्त्रादि का ज्ञान है ही। आगे शब्दक्षमतानुसार लेख की समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है।
¶ लेख में अनेक स्थलों में प्रयुक्त ब्राह्मण” शब्द का अर्थ “अविच्छिन्न उपनयन संस्कार की परम्परा में जन्म लेने वाला व्यक्ति” , परम्परा के अनविच्छिन्न हो जाने पर प्रायश्चित पूर्वक उपनयन करवाने वाला व्यक्ति लें¶
“मेरे साथ विगत कुछ महीनों में जो घटनाएं हुई उसने मुझे झकझोर कर रख दिया। घटनाओं में घटकों के वास्तविक रूप से मैं अनभिज्ञ था।मेढक के बच्चे के भांति मेरा भी लौकिक दृष्टिकोण कायान्तरित होने लागा। धर्म के वैश्विक प्रतीको का चीरहरण होता देख मैं स्तब्ध था।”
धर्म के कुछ वैश्विक प्रतीक हैं:-भारतीय दर्शन, भारतीय परम्परा , मन्दिर- मठ आदि। अन्य भी हों तो इनका स्रोत क्या हैं? ऋषि मुनि एवं शास्त्र या फिर भावनाएं,मान्यताएं? द्वितीय पक्ष बन नहीं सकता क्योंकि उनका वैविध्य है,साथ ही उनके यथार्थ प्रमा का साधन होने में भी कोई हेतु नहीं। प्रथम पक्ष बने तो उनका ही अपलाप लेखक के समान व्यक्ति करने का प्रयास करते हैं। साथ ही प्रारम्भ की चार पंक्तियां ही आपको संशय-विपर्यय से ग्रसित सिद्ध करती हैं,ऐसा व्यक्ति कैसे किसी विषय के यथार्थज्ञान का कारण माना जा सकता है?
फलस्वरूप अपने अंदर की उथापुथल के प्रशमन हेतु इन सबके मूल में जाने को सोचा और हाथ लगा करपात्र साहित्य। अभिनव शंकर कलयुग व्यास इत्यादि उपाधियों से विभूषित प्रकाण्ड पण्डित धर्म सम्राट अनंत श्री स्वामी करपात्री जी महाराज के प्रति मेरा सम्मान था और है। किसी की तपस्चर्या और अच्छे गुणों से सदैव मनुष्य सीख सकता है। किन्तु उनके साहित्य और शास्त्रीय व्याख्याओं को पढ़ने के बाद मेरा दृष्टिकोण बदल गया। अत: बिना स्तुति और निंदा किए ,मै महाराज जी कुछ अनसुने विचारो को प्रस्तुत कर रहा हूं। मेरा उद्देश किसी को ठेस पहुंचाना नहीं है।
संशय में पड़े व्यक्ति को अयोग्य घोषित करने का कारण यही है कि अन्त तक वह अपनी प्रतिज्ञा को विस्मृत कर बैठता है। हेत्वान्तर , प्रतिज्ञान्तर करने को प्रवृत्त हो जाता है। लिखा है “अत: बिना स्तुति और निंदा किए,मैं महाराज जी कुछ अनसुने विचारों को प्रस्तुत कर रहा हूं” किन्तु लिखते लिखते लेखक अन्त में (1) “महाराज जी के उपरोक्त विचारो को पढ़ने के बाद इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि विज्ञानोन्मुख व्यक्ति के लिए ये सब ग्राह्य नही है। (2) महाराज जी ने धरती चपटी कहना लिखा है (ऐसा कहीं लिखा नहीं मिलता) {3}पुरुषार्थशून्य इस व्यवस्था में योग्यायोग्य का विचार किए बिना जन्माधारित स्वधर्मानुरत प्राणी ही सच्चा हिंदु होगा (4)इन वचनों से सिद्ध है महाराज जी की विचारधारा। ऐसा प्रतीत होता है की महाराज जी को कुटुम्ब में व्यभिचार से ज्यादा परजाति में संबंध न हो इसकी चिंता थी। ऐसे ही अनेकों उदाहरण हैं जिनसे लेखक ने अपनी प्रतिज्ञा की ही हानि कर दी है। लेख का अन्त का भाग देखना तो अति आवश्यक है। क्या ऐसा व्यक्ति किसी यथार्थ सूचना का स्रोत हो सकता है? अनेकों स्थानों पर करपात्री जी के शब्द हटाएं हैं ,नए शब्द जोड़े हैं, मनमाना अर्थग्रहण किया है। सद्भावना वाले व्यक्ति के ऐसे लक्षण लोक में दिखते नहीं। अत: लेख के प्रारम्भ से ही इनकी लचर अवस्था विचारणीय है।
करपात्री महाराज शूद्र मंदिर प्रवेश के विरोध में थे। उनके व्याख्यानुसार शूद्रादि निम्नाति जातियों को मंदिर प्रवेश की अनुमति धर्म प्रदत्त नही थीं। महाराज जी समता के पक्षधर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की आलोचना करते हुए तीखे तेवरों में कहते हैं:”शास्त्रोक्त मंदिर मर्यादा को नष्ट करने पर तुले ही रहते हैं, समाजवादियों की तरह संघी भी मन्दिरों में भंगियों को घुसाकर मंदिर मर्यादा नष्ट करना चाहते हैं” (आ.औ.हिं./१२०/२९)। सोमनाथ उद्धारोपरान्त मंदिर संस्कार के प्रसंग में जब स्वामी जी को निमंत्रण मिलता है तब स्वामी जी शर्त रखते हुए कहते है:”मंदिरों की मर्यादा क्या है? उसका पालन कैसे किया जाय? उसमे किनका कैसे प्रवेश हो और किनका नही?”(वि.पि./३६२/११-२०)। इतना ही नहीं एक अन्य स्थान पर उन्होंने अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए लिखते है की “विश्वनाथ मंदिर हरिजन प्रवेश पर सरकारी साधुओं और सरकारी पंडितो का चुप रहना भी एक विचित्र बात है” (ना.आ./५७/२५-२६)। महाराज जी कहते हैं की जो लोग मूर्ति को पत्थर बता कर खण्डन कर रहे थे वो आज देव मंदिरों को भ्रष्ट करने के लिए कट्टर मूर्तिपूजक की तरह सभी को मंदिर प्रवेश तथा देव दर्शन की आवश्यकता बतलाते है (सं.ए.व./ ६७/१-३) । महाराज जी लिखते हैं की मंदिर प्रवेश,रोटी बेटी का व्यवहार शास्त्र विरुद्ध है,और शास्त्र मानने वाले के लिए असंभव है (सं.ए.व.६५/२५)। तत्कालीन सरकार की हिंदू धर्म के विरुद्ध नीतियों के विरोध में लिखते समय करपात्री महाराज मंदिर प्रवेश पर भी बोल जाते है, वो कहते हैं ” हिंदू धर्म के मंदिरों की मर्यादाओं को तोड़कर उन्हें नष्ट भ्रष्ट किया जा रहा है” वो आगे लिखते हैं ” सरकार आस्तिकों के विश्वासो एवं धार्मिक भावनाओं को तोड़ने के लिए मंदिरों में बेरोकटोक सबको घुसाना चाहते हैं”(आ.औ.रा/ ६/२०-२९)। वास्ताव में ये मंदिर मर्यादा है क्या? करपात्री महाराज के अनुसार मंदिरशिखरदर्शन पर सभी का अधिकार है (वि.शा./९६/१५-१८)। अत: शुद्र और निम्न जातियां केवल मंदिर शिखर दर्शन से आध्यात्मिक उत्कंठा शांत कर सकती है। मंदिर मर्यादा संरक्षण महात्म्य बताते हुए करपात्री महाराज मुख्यमंत्री संपूर्णानंद के हरिजन प्रवेश इत्यादि बातो का युक्ति पूर्वक उत्तर दिया और यह बताते है की यदि कोई अंत्यज मंदिर के शिखर का दर्शन करता है और मंदिर की बाह्य सेवा करता है तो उसे शास्त्रानुसार वही फल मिलता है।अत: उपरोक्त प्रमाणों से करपात्री महाराज के विचार स्पष्ट हो जाते हैं, इनके अतिरिक्त नीम करोली बाबाजी की स्वामी जी से बहस, राजनैतिक प्रपत्रो के प्रमाण, तत्कालीन समाचार,तत्कालीन मंदिरों के शूद्र प्रवेश प्रतिबंध सूचक होर्डिंग इत्यादि अन्य प्रमाण उपलब्ध है, किन्तु करपात्री महाराज के स्वयं के साहित्य ही उनकी विचारधारा का निष्पक्ष प्रतिबिंब है ।बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है की उनके समर्थक उनके ही विचारो की उपेक्षा करके, उनके ही शास्त्रीय व्याख्याओं की तिलांजलि दे कर हार मान चुके है, उनमें इतना साहस नहीं बचा की शूद्र मंदिर प्रवेश के विरुद्ध शास्त्रीय पक्ष रख पाए; इसके इतर बेचारे ऐन केन प्रकार से स्वामी जी के तिरोभूत आभामंडल के संरक्षण हेतु विषयांतर करके बात को गर्भगृह प्रवेश तक समेटने का प्रयास करते हैं, गर्भगृह प्रवेश की स्वामी जी ने कहीं बात ही नही की! प्रमाण में वो सत्य पर आवरण डालता हुआ कोई स्मृति ग्रन्थ उद्धृत करते हैं! अगर ट्रैडबंधु स्वयं सुधारवाद को समविष्ट किए हुए शुद्र मंदिर प्रवेश प्रतिबंध की परंपरा को छोड़कर कर अनर्गल विलाप कर रहे हैं तो जिस परंपरावाद के ट्रेड पक्षधर है वह तो नितांत खोखला निकाला!
लेखक करपात्री जी के निकट भक्तों, विश्वसनीय व्यक्तियों द्वारा रचित स्मृति ग्रन्थों को तो अप्रमाण कह रहा है।जबकि वह किसी भी दशा में अप्रमाण कोटि के नहीं हो सकते।लेकिन अन्य स्थान पर वह अपनी ही मनमानी व्याख्या करता है कि “करपात्री महाराज शूद्र मंदिर प्रवेश के विरोध में थे”। हम तो अपने पक्ष के लिए अनेकों प्रमाण उद्धृत कर सकते हैं ,किन्तु तुम्हारे इस पक्ष में क्या प्रमाण हैं? करपात्री जी द्वारा प्रयुक्त कुछ शब्द इस प्रकार हैं :-“सरकार आस्तिकों के विश्वासो एवं धार्मिक भावनाओं को तोड़ने के लिए मंदिरों में बेरोकटोक सबको घुसाना चाहते हैं”(आ.औ.रा/ ६/२०-२९)। ” जो लोग मूर्ति को पत्थर बता कर खण्डन कर रहे थे वो आज देव मंदिरों को भ्रष्ट करने के लिए कट्टर मूर्तिपूजक की तरह सभी को मंदिर प्रवेश तथा देव दर्शन की आवश्यकता बतलाते है (सं.ए.व./ ६७/१-३)” “मंदिरों की मर्यादा क्या है? उसका पालन कैसे किया जाय? उसमे किनका कैसे प्रवेश हो और किनका नही?”(वि.पि./३६२/११-२०) “विश्वनाथ मंदिर हरिजन प्रवेश पर सरकारी साधुओं और सरकारी पंडितो का चुप रहना भी एक विचित्र बात है” (ना.आ./५७/२५-२६) । इतने सभी संदर्भों में कहीं भी शूद्र शब्द का प्रयोग नहीं है। फिर यह किस प्रमाण से लिखा है कि “अत: शुद्र और निम्न जातियां केवल मंदिर शिखर दर्शन से आध्यात्मिक उत्कंठा शांत कर सकती है।” उनके व्याख्यानुसार शूद्रादि निम्नाति जातियों को मंदिर प्रवेश की अनुमति धर्म प्रदत्त नही थीं।” अभी तक प्रमाणहीन बातें कर तुम तो प्रलापीमात्र ही सिद्ध हो रहे हो।
हमारे पक्ष के प्रमाण में तो “चातुर्वर्ण्यबहिष्कृत (तत्व प्रदीपिका)” “वर्णबाह्यजनश्च च(विष्णु संहिता) आदि वचनों से चातुर्वर्ण्य से बाहर के व्यक्तियों का ही देवालय प्रसाद में प्रवेश निषिद्ध है। शूद्र तो चातुर्वर्ण्य में ही आते हैं। शास्त्रीय मत में तो “पतित ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य, महापातकी द्विजाति(गुरुनिन्दा,सुरापान आदि से पतित) , चाण्डाल, अंत्यज” आदि का मंदिर प्रासाद में प्रवेश भी वर्जित है,देवस्थान में जाना तो दूर की बात। यदि जातिमात्र के आधार पर ही भेद भाव होता तो फिर ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य आदि भी क्यों इसमें सम्मिलित हैं?
“चोर पातकि चाण्डाल चातुर्वर्ण्यबहिष्कृता:।
श्वान: पाषण्डिका वर्ज्या म्लेच्छदेशसमुद्भवा: ।।(तत्व प्रदीपिका)
म्लेच्छानां तन्तुवायादिवर्णबाह्यजनस्य च।
पुष्पिकासुतिकाकारूचण्डालानां क्रमाद गुरु (विष्णु संहिता)
चाण्डालमद्यसंस्पर्शदूषिता वह्निनाथवा
अपुण्यजनसंस्पृष्टा विप्रक्षतजदूषिता।।
सा पुनः संस्कर्तव्येति। ( पद्यशेष:, हयशीर्ष, पंचरात्र )
ऐसे ही अनेकों निषेध अनेकों आगमों,स्मृतियों से गिनाए जा सकते हैं।
शूद्रों के लिए जितने भी निषेध देखने को मिले हैं वह देवालय प्रवेश निषेध के तो हैं नहीं,अपितु देव मूर्ति स्पर्श के हैं।(शूद्राचार शिरोमणि पृष्ठ 97) वह तो स्त्रियों,अन्य द्विजातियों के लिए भी वर्जित ही है।
स्त्रीणामनुपनीतानां शूद्राणां च जनेश्वर ।
स्पर्शने नाधिकारोऽस्ति विष्णोर्वा शङ्करेऽपि च ॥ ॥ इति । सर्वाण्येतानि स्पर्शपूर्वकमर्चा निषेधन्ति न पूजामात्रम् ।
काशी विश्वनाथ में यही हुआ, न जाने किन-किन जातियों के लोग शिवलिंग स्पर्श करने लगे। जैसा कि वर्णन किया ही गया है:- शिवलिंग को कोई नहीं छू पाता था । काशी नरेश भी बाहर से दर्शन करते थे । मन्दिर में कोई भी जा सकता था , पर गर्भ गृह में कोई नहीं जा सकता था । हरिजनों ने कहा कि हम शिवलिंग को छूकर दर्शन करेंगे । १७ फरवरी , सन् १ ९ ५५ को रविदास जयन्ती पर १० हरिजनों का जत्था पुलिस के साथ विश्वनाथ मन्दिर गया । पण्डितों ने माला पहनाकर उनका स्वागत किया और स्वामीजो ने सुझाव दिया कि वे भी वहीं से दर्शन कर लें , जहाँ से सब करते हैं । परन्तु स्वामीजी को गिरफ्तार कर लिया गया ….. पुन : १५ दिसम्बर ५७ को हरिजनों ने सिटी मजिस्ट्रेट और कोतवाल के साथ बलात् घुसकर फाटक की सिकड़ी और तालाछैनी से काट दिया । और जूतों सहित अनेक व्यक्तियों ने घुसकर मन्दिर की अनादि मर्यादा को भ्रप्ट कर दिया”
यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मंदिरों की प्रतिमाओं के देवत्व में मात्र शास्त्र ही प्रमाण हैं। वही शास्त्र मंदिर प्रवेश का निषेध भी करते हैं। ऐसी स्थिति में न जाने कैसी इन भ्रष्टों की भक्ति है ,जो यह जानते हुए भी कि भक्ति का विधान करने वाला शास्त्र यह भी विधान करता है कि अनाधिकार स्पर्श पर मूर्ति देवत्वविहीन हो जाएगी। मन्दिर को इष्ट देवता से विहीन करना और स्वयं को भक्त कहना भी विडंबना है।
शंका :- पुरी शंकराचार्य जी ने तो शूद्र का मन्दिर निषेध माना है उनकी वीडियो का शीर्षक ही है “शूद्र के मन्दिर प्रवेश में अधिकार”।
समाधान:- शीर्षक,अनुशीर्षक लिखने लिखवाने का कार्य तो पुरी आचार्य जी का है नहीं, न ही उनके पास साधन व समय है।अनेकों वीडियो के शीर्षक गलत ही हैं। प्रश्नकर्ता व्यक्ति का प्रश्न यह है कि “ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य ,शूद्र आदि जो भी यह हैं उनको मंदिर प्रवेश में अलग अलग शास्त्रीय निषेध है या नहीं?”उपशीर्षक लिखने वाले व्यक्ति ने यहां पर लिखा है “क्या शूद्र मंदिर जा सकते हैं?” गलती स्पष्ट है। इतनी दीर्घ वीडियो में कहीं पर भी पुरी शंकराचार्य जी द्वारा यह नहीं कहा गया है कि “शूद्र को मन्दिर प्रवेश नहीं है,वह शिखर दर्शन कर ले” अपितु अनेकों शूद्र व्यक्तियों के इसके विपरीत वक्तव्य देखने को आते हैं कि उन्हें पुरी शंकराचार्य जी ने दीक्षा दी,मंदिर प्रवेश के विषय में पूछने पर नहीं रोका इत्यादि। अत: प्रमाणाभाव में कल्पना करना ठीक नहीं।।
अत: इस विषय में यही कहा जाता है कि करपात्री जी ने शूद्र का उल्लेख नहीं किया,वर्णाश्रम स्वराज्य संघ की पुस्तकों में भी अंत्यज, चाण्डाल आदि का ही नाम है। शास्त्रों में भी अन्त्यज, चांडाल के लिए निषेध हैं।ऐसी स्थिति में तुम्हारा यह कहना कि “जिस परंपरावाद के ट्रेड पक्षधर है वह तो नितांत खोखला निकाला!” विलाप के अतिरिक्त कुछ नहीं। हां! तुम शास्त्रों से शूद्र के मंदिर प्रवेश के सम्बन्ध में निषेध दिखा सकते हो तो कहो हम उन निषेधों का मंदिर प्रवेश की विधियों से मिलान कर जो भी शास्त्रीय सिद्धान्त निकले उसे मान लेंगे!!
करपात्री महाराज जन्मना छुआछूत प्रथा के भी समर्थक थे। उनके अनुसार निम्न जातियों से छुआछूत करना धर्मादेश है। भक्ति आन्दोलन प्रभावित तथाकथित सुधारवादी वैष्णव कथावाचको की धर्मविरोधी गतिविधियों की पोल खोलते हुए महाराज जी लिखते हैं -“भगवन्नामसङ्कीर्तन की ओट में सुधारकों को शास्त्रसिद्ध स्पृश्यास्पृश्य मिटा देने का बड़ा ही सुन्दर मौका मिल गया। कीर्तन मण्डल में तो एक म्लेच्छजातीय भक्त के साथ सहभोज भी हुआ। कुछ लोग सत्यनारायण की कथा-कीर्तन का निमंत्रण देकर बेचारे भोले भाले सनातनियो को बुलाकर अस्पृश्यता निवारण का उपदेश देते हैं। अस्पृश्य तथा अव्यवहार्य लोगों के हाथ से प्रसाद बंटवाते है, और कहते हैं–जाति पांति पुछय नहिं कोई।हरि को भजइ सो हरि का होई।।…” (सं.ए.व/६३/१५-२०)अत: महराज जी ने अस्पृश्यता की परंपरा का पूर्ण समर्थन किया जो की उनके अनुसार शास्त्र सिद्ध थीं। वो कहते है की जिस प्रकार आंतरिक अंगों के स्पर्श के पश्चात् हस्त प्रक्षालन करना पड़ता है उसी प्रकार अंत्यजो का स्पर्श न करना कोई उनका अपमान नहीं है(सं.ए.व/६६/१८-२०)। ऐसे लोगो के हाथो से प्रसाद तक ग्रहण नही करना चाहिए ,स्वामी जी का ऐसा मत था। कोई ब्राह्मण प्रसाद लेने से मना करता था और कोई वैष्णव ये कहे की देखो राजा ने गोप के हाथ का प्रसाद लेने से मना किया था तो उसके सारे पुत्रादि नष्ट हो गए .. ये सब बाते करपात्री महाराज के अनुसार धर्म के विपरीत है(सं.ए.व/६४/१-३) ।
करपात्री महाराज के अनुसार अव्यवहार्य निम्न जाति के निषादराज और श्री राम द्वारा आलिंगन की अनुकृति हमे नही करनी चाहिए, और तो और व्यवहारादि में धर्मशास्त्र प्रमाण होते हैं इतिहास (रामायण व महाभारत) नहीं(रा.मी/७६५/१८-२६)। और “जासु छांह छुई लेइअ सींचा” की दृष्टि से अगर शूद्र की छाया भी पड़ जाय तो भी जल से सींच लेना चाहिए ऐसा।
सहभोज और रोटी-बेटी व्यवहार के भी समर्थन में स्वामी जी नही थे। महाराज जी लिखते हैं :- “धर्म की बड़ी बड़ी बाते करते हुए भी भंगी चमार सबकी रोटी खाने में संघी लोग धर्म की हानि नहीं समझते”(रा.औ.हि./१२०)।एक स्थान पर पुन: अपनी बात को दोहराते हुए कहते है-” राष्ट्र के लड़के संघ के पड़ कर संध्यावंदन, सूर्य दर्शन, वेदादि शास्त्रों का स्वाध्याय शास्त्रीय सदाचारो से वंचित होकर प्रेम के नाम पर सबकी रोटी खाकर वर्णव्यवस्था तोड़ कर छद्ममय बनते जा रहे हैं “(आ.औ.रा/१३/९-१२)। आशय स्पष्ट है संभवत: शूद्र की रोटी व सहभोज शास्त्रीय ( महाराज कृत व्याख्या) सदाचार के अनुकूल न था।
लेखक को अस्पृश्य और अभक्ष्य जैसे साधारण पदों के मध्य अन्तर ही ज्ञात नहीं। भक्ष्याभक्ष्यविवेक को यह अस्पृश्यता नाम दे रहे हैं तो अस्पृश्यता को न जाने क्या नाम देंगे।
इसमें क्या ही दोष है? यह व्यक्ति यह बताए कि करपात्री जी ने पृष्ठ 63 में वैष्णवाचार्य शब्द कहां वर्णित किया है?यह व्यक्ति अपने ही मन से शब्दों का जोड़ और हेर फेर करने में लगा है। यह दिखाना चाह रहा है कि मान्य वैष्णवाचार्य भी इनकी ही भांति वेद विरुद्ध सुधार के पक्षधर थे, इसका वर्णन आगे विस्तृत रूप में किया जाएगा। अभी के लिए इतना जान लीजिए कि “वर्णाश्रम स्वराज्य संघ, धर्मसंघ में सभी वैष्णव सम्प्रदायों के मान्य आचार्य भी थे।
आगे मूढ़ लेखक ने एक और दु:साहस किया है”जासु छांह छुई लेइअ सींचा” की दृष्टि से अगर शूद्र की छाया भी पड़ जाय तो भी जल से सींच लेना चाहिए ऐसा।” प्रथमत: यह शब्द करपात्री जी के हैं ही नहीं। उन्होंने लिखा है कि “वे कहते हैं “राघवेन्द्र केवट के उस दैन्य को मिटा देना चाहते थे,जिसे समाज ने उस पर लाद दिया था। वह धन की दृष्टि से ही नहीं,हर तरह से हीन कर दिया गया था वह अस्पृश्य था “वह किसी राजा के समझ मुख खोलने की कल्पना भी नहीं कर सकता था” यह है अन्यों का पक्ष इसके उत्तर में करपात्री जी ने लिखा है “….., कथावाचक सज्जन भी उसके अपवाद नहीं हैं। परन्तु उनके अनुसार राम एवं तुलसी को अवश्य ही नई आचार संहिता प्रचलित करनी चाहिए थी। कम से कम “जासु छांह छुई लेइअ” का उत्तर तो देना चाहिए था। अब यह मूढ़ लेखक बताए कि इसमें “जासु छांह छुई लेइअ सींचा” की दृष्टि से अगर शूद्र की छाया भी पड़ जाय तो भी जल से सींच लेना चाहिए” यह कहां लिखा है?इतनी हीनभावना से ग्रसित लेखक लिखता है कि “अत: बिना स्तुति और निंदा किए ,मै महाराज जी कुछ अनसुने विचारो को प्रस्तुत कर रहा हू”।। निषाद शूद्र तो था नहीं, निषाद प्रतिलोमज और अनुलोमज दोनों प्रकार के होते हैं। वह कोई भी रहा हो किन्तु यह वचन करपात्री जी के हैं ही नहीं कि शूद्र की छाया पड़ने पर स्नान करें। हीनभावना से ग्रसित यह व्यक्ति कहीं चांडालों को ही शूद्र कह देता है,कहीं अस्पृश्यता में जान बूझकर शूद्र ले आता है। शूद्र को किसी भी शास्त्र में अस्पृश्य नहीं कहा उनसे मिलना जुलना आदि के बाद भी कोई दोष नहीं होता तो छाया पड़ने पर स्नान की बात ही क्या है?
अन्त्यानामपि सिद्धान्नं भक्षयित्वा द्विजातयः ।
चान्द्रं कृच्छ्रे तदर्धन्तु ब्रह्मक्षत्रविशां विदुः।।(अंगिरा स्मृति)
शेष है:- भक्ष्याभक्ष्य विवेक तो यह तो ब्राह्मण का अनुपनीत ब्राह्मण के साथ ,ब्राह्मण का क्षत्रिय के गृह में भी वर्णित है।इनके घर का अन्न भी नहीं खा जा सकता। शूद्र भी चांडालान्न खा पतित होता ही है। साधारण व्यक्तियों को छोड़िए स्वयं करपात्री जी जैसे संत हमें यदि अपना स्पर्श किया हुआ भोजन दें, तो भी ब्राह्मण से लेकर मलेच्छ पर्यन्त कोई भी उसे स्पर्श नहीं करेगा,सभी के लिए वह अभक्ष्य ही है। सन्यासी का अन्न विष समान है। इस विषय में निम्न प्रमाण हैं:-यत्यन्नं यतिपात्रस्थं यतिना प्रेरितं च यत्।(यतिधर्मसङ्ग्रह, संस्कारगणपति) प्रतिग्रहं न गृह्णीयान् नैव चाऽन्यं प्रदापयेत्। प्रेरयेद् वा तथा भिक्षुः स्वप्नेऽपि न कदाचन॥(नारदपरिव्राजक 4/8,9) ।
वहीं ब्राह्मण के हाथ का बना भोजन खाने को,कोई भी वर्ण उसका अतिथि बनने को स्वतंत्र है।
न ब्राह्मणस्य त्वनतनर्थगाहेराजन्य उच्यते । वैश्यशूद्रो सखा चैव ज्ञातयो गुरुरे व च ॥
वैश्यशूद्रावनप प्राप्तौ कुटुम्बेऽनतनर्थधनमाणौ ।भोजयेत्सहभत्यैस्तावानशस्य प्रयोजयन्।।।(मनु० 3/111,112)
शूद्र से फल, गौ महिषी का दुग्ध,कच्चा अन्न,मिठाई आदि ग्रहण किया जा सकता है। ब्राह्मण एवं अन्य द्विजातियों के लिए तो स्वगृह में बने अन्न, उपनयन संस्कार संपन्न द्विजाति के बने अन्न अथवा बलिवैश्वदेव करने वाले गृहस्थ का ही अन्न भक्षण विहित है। प्रसाद,भोग की बात है तो जिस आयोजन का यजमान बलि वैश्वदेव नहीं करता वहां का प्रसाद अग्राह्य है।कितना ही धार्मिक ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र क्यों न हो। जिस मन्दिर का ब्राह्मण पतित ,व्रात्य आदि हो,संध्यारहित हो उसके भीतर जाना भी पाप है,बाहर मात्र से ही प्रणाम करना चाहिए।
इतिहास के व्यवहार में प्रमाण होने का प्रश्न है तो यह तो साधारण मेधा वाले की समझ में आने का विषय है। रावण के समान आचरण नहीं करना चाहिए यह कैसे ज्ञात हुआ? उत्तर यह ही देना होगा कि रावण ने विधियों का उल्लंघन किया था। इतिहास का स्वत: प्रामण्य नहीं होता। किसी को ऐसा अभीष्ट हो तो वह यह बताए कि एक ही इतिहास ग्रंथ में पचासों भिन्न व्यक्तियों के भिन्न चरित्रों, वक्तव्यों में से किसे प्रमाण मानोगे और किस आधार पर?””ईश्वराणां वचः सत्यं तथैवाचरितं कचित् । (भाग० १०।३३)
यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि ।
(तै० उ० १।११।२) ” आदि वाक्यों से स्पष्ट ही है कि धर्म में इतिहास,आचरण का स्वत: प्रामाण्य है ही नहीं,मात्र स्मृति श्रुति वाक्यों का ही है।
करपात्री महाराज शास्त्रों की व्याख्या करते हुए शूद्र को संस्कृत भाषा तक से वंचित रखने का प्रयत्न करते हैं। शूद्र को संस्कृत के केवल नामोऽन्त मंत्रों पर अधिकार है। करपात्री महाराज लिखते हैं -” ‘संस्कृत भाषा ही सबकी भाषा है’ यह कहना प्रत्यक्ष विरुद्ध है। शास्त्र की दृष्टि से भी संस्कृत द्विजातियों की ही भाषा कही गई है। कई लोगो के लिए तो संस्कृत शब्दों का उच्चारण भी निषिद्ध है”(रा.औ.हि./१४७/५-७)।एक अन्य स्थान पर महाराज जी ने इसको और स्पष्ट कर दिया है-” “संस्कृत ब्राह्मणों की ही नहीं; ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वर्णों की भाषा है। इतना ही क्यों वो तो प्राणी मात्र की धर्म भाषा है। शूद्र बन्धुओं का उनके अधिकारानुसार संस्कृत के नामोऽन्त मन्त्रों मे अधिकार है”(रा.मी./७६०/२८-३१) ! ये सब कथन अंबेडकरवादियों को भी समर्थन देते प्रतीत होते हैं क्योंकि संस्कृत को ब्राह्मणों की भाषा और पालि प्राकृत को शूद्रों की भाषा बना कर भीमवादी झूठ और प्रलाप करते हैं।
सत्य ही तो कहा है कि संस्कृत भाषा द्विजातियों की ही भाषा मानी गई है “यदि वाचम् प्रदास्यामि द्विजातिः इव संस्कृताम् |(वा ०रा० 5.30.18) (यदि मैं द्विजातियों की भांति संस्कृत वाणी प्रयोग करूंगा”। ऐसे ही स्कन्द पुराण में “तस्मात्त्वं संस्कृतां वाणीं द्विजातीनां प्रकाशय” आदि श्लोकार्ध हैं ही। करपात्री जी तो आगे यह भी लिख देते हैं कि “द्विजातियों की भी भाषा संस्कृत नही है ।प्राचीन समय में ब्राह्मणादि द्विजाति संस्कृत में ही अध्ययन किया करते थे तो उनकी वाणी संस्कृत हो जाती थी। “”अन्य व्यक्ति अन्य कार्यों को किया करते थे अत: उनकी भाषा वह न बन सकी। मात्र भाषा पढ़ने का नियम न था। मुख्य रूप से सभी नाटकों में शूद्र और असंस्कृत द्विजाति प्राकृत में ही बात करते दृष्ट होते हैं।
स्कन्द पुराण में (७.१.२८.६९) कहा भी गया है:-
नोच्चरेत् प्रणवं मन्त्रं पुरोडाशं न भक्षयेत् ।
न शिखां नोपवीतं च नोच्चरेत् संस्कृतां गिरम् ॥
अब प्रश्न उठता है कि ठीक है कि संस्कृत मुख्य रूप से द्विजातियों की ही भाषा मानी गई है तो क्या शूद्र को इसका बिल्कुल भी अधिकार नहीं ” इतना ही क्यों वो तो प्राणी मात्र की धर्म भाषा है। शूद्र बन्धुओं का उनके अधिकारानुसार संस्कृत के नामोऽन्त मन्त्रों मे अधिकार है” अत: स्तुति करने के लिए संस्कृत प्रयोग के अधिकारी तो सभी शूद्र हैं। लेकिन संस्कृत संभाषण,संस्कृत अध्यन्न्न के अधिकारी सत् शूद्र मात्र हैं।
पद्म पुराण का भी “शिखी नोपवीती स्यान्नोच्चरेत्संस्कृतां गिरम् ” यह दो श्लोक निर्णयसिन्धुकार स्मार्त आचार्य कमलाकर भट्ट और शूद्राचार शिरोमणिकार द्वारा उद्धृत किए गए हैं। भट्ट जी ने भी हमारे ही पक्ष का समर्थन किया है कि “यत्तु पाद्मे – ‘ न शिखी नोपवीती स्यानोचरेत्संस्कृतां गिरम् । ‘ इति शुद्रमुपक्रम्योक्तम् , तदसच्छूद्रस्येति केचित् । विकल्प इति तु युक्तम् ।” शूद्राचार शिरोमणि में भी इन वचनों को परम्पराविहीन, देवपूजाविहीन अपकृष्टशूद्र परक बताया गया है।
यह सर्व विदित है कि मैक्स मुलर द्वारा आर्य आक्रमण सिद्धांत में शूद्रों को अनार्य बता कर आर्य और द्रविड़ विभाजन का कुचक्र चलाया गया। परन्तु यहां भी करपात्री महाराज इस बात पर ठप्पा लगाते प्रतीत होते हैं, गोलवरकर जी ने कहा था हम आर्य प्रबुद्ध लोग थे, किंतु इसका भी खण्डन करते हुए करपात्री महाराज लिखते हैं -“आर्य शब्द का प्रयोग शूद्र के लिए भी नही होता था” /(आ.औ.हिं/६१/२०-२२)। एक जगह करपात्री महाराज ये कहते हैं की आज कल दयानंदी हिंदू “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” का उद्घोष करते हुए संपूर्ण विश्व को आर्य बनाना चाहते हैं। अन्य जगह करपात्री जी इस वेद मंत्र का ये अर्थ ‘संपूर्ण विश्व को आर्य बनाना नही है’, ये बतलाते हैं(आ.औ.हिं/२१५)। वैसे स्पष्ट भी है, क्योंकि जब ब्राह्मण क्षत्रिय इत्यादि जन्म से होता है और शूद्र आर्य है ही नहीं तो संपूर्ण विश्व आर्य बन ही नही सकता अत: इस दृष्टि से वेद मंत्र की व्याख्या करना स्मृति सम्यक होगा, ऐसा। उपरोक्त विचार केवल और केवल आर्य आक्रमण सिद्धांत को शास्त्राधार प्रदान करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।
लेखक का दो स्थानों पर आर्य आक्रमण के सन्दर्भ यह कहना कि “करपात्री महाराज इस बात पर ठप्पा लगाते प्रतीत होते हैं,इसमें कोई संशय नहीं है” गलत है। करपात्री जी महाराज ने “चातुर्वर्ण्य संस्कृति विमर्श ” में इसका खण्डन ही किया है। आर्य शब्द शूद्र के लिए प्रयोग नहीं होता यह तो वैदिक सिद्धान्त हैं, सुधारवादियों के पिताश्री दयानन्द सरस्वती का भी यही कहना है (देखिए ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका /वर्णाश्रम विषय)। यह बताओ कि जब आर्य शब्द मुख्यत: वैश्य के लिए भी प्रयोग नहीं हो सकता तो फिर उससे आर्य आक्रमण सिद्धान्त कैसे सिद्ध होगा?जो व्यक्ति मानव जाति का उत्पत्ति स्थान हिमालय के निकट ही सिद्ध करता है,वह आर्य आक्रमण को कैसे प्रामाणिकता देगा? लेख का लेखक यदि तनिक भी निष्पक्ष होता तो उसे सभी बातों के शास्त्रीय सन्दर्भ जो करपात्री जी महाराज द्वारा प्रदत्त हैं,उन्हें उद्धृत करने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए थी।
“अर्यः स्वामिवैश्ययोः(३.१.१०३) के अनुसार आर्य शब्द वैश्य के लिए भी प्रयोग नहीं होता। आर्य शब्द ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए रूढ़ है। यौगिक प्रयोग किसी भी वर्ण के लिए सम्भव है,किंतु रूढ़ प्रयोग ब्राह्मण,क्षत्रिय मात्र के लिए। ऋग्वेद में हम देखते हैं कि कदाचित असुरों को आर्यों से पृथक निर्देश किया गया है किन्तु कहीं पर आर्य शब्द से भी गौण रूप से कहा गया है(ऋ० ६.३३.२)
कृण्वन्तो विश्वमार्यम् का प्रयोग सोम को संस्कृत बनाने में ही होता है न कि किसी घोषणा में।इसलिए ही तो इस मंत्र के भाष्य में कहा गया है “इन्द्रं “वर्धन्तः वर्धयन्तः “अप्तुरः उदकस्य प्रेरकाः “विश्वं सोममस्मदीयकर्मार्थम् “आर्यं भद्रं “कृण्वन्तः कुर्वन्तः “अराव्णः अदातॄन “अपघ्नन्तः विनाशयन्तः । अभ्यर्षन्तीत्युत्तरया संबन्धः “।।
करपात्री महाराज ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र में रक्त का भेद मानते थे।अधिकतर भारतीय बुद्धिजीवियों के अनुसार “कास्ता” शब्द का जनक यूरोप है और वहीं इसको रक्त की शुद्धता के दृष्टि से देखा जाता था और अंग्रेजों के भारत आक्रमणोपरान्त कास्ट शब्द को रक्त की शुद्धता से जोड़ कर देखा जाने लगा । किंतु करपात्री महाराज के अनुसार वर्णों में रक्त का भेद इत्यादि सिद्धांत शास्त्र सम्मत है। ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र में बाहर से कोई भेद नहीं है किंतु रक्त की दृष्टि से भेद है, ऐसा। महाराज जी का वक्तव्य है ” ब्राह्मणादि मे उपरिगत भेद भाषित न होने पर भी शास्त्रप्रमाणगम्य विभिन्न गुण-धर्मो, रक्तो के भेद से उनमें भेद मानना अनिवार्य है”(मा.औ.रा/२८४/४-५) । महाराज जी के अनुसार विशुद्ध रक्त का अभिमान केवल दंभ नही है (मा.औ.रा/२८७)। रक्त संकार्यता और रक्त शुद्धता की बात महाराज जी पग पग पर करते आए है। इसी रक्त शुद्धता पर चर्चा करते हुए महाराज घूंघट प्रथा और बाल विवाह का समर्थन करते हैं ।
रक्त उपलक्षण है वंश का। इसी कारण रक्त शुद्धता के विषय में स्वामी जी ने लिखा है कि “भारत में एक सम्पन्न कुल में जन्म लेने वाला व्यक्ति 2000 वर्ष तक की वंशावली भी बता सकता है” दरिद्र व्यक्ति भी अपनी वंशावली गिनाने में समर्थ है। करपात्री जी तो रक्त को भी जाति में एकमात्र कारण नहीं मानते “सारांश यह है कि रूप , रग , रक्त , वीर्य आदि सभीका परिवर्तन देश , काल , जल , वायु , प्रारघ एव अन्यान्य आगन्तुक दोषों और गुणोंसे हो जाता है । इतनेहीसे जाति – भेद निराधार और निरर्थक नहीं सिद्ध होता । “(पृष्ठ 223,मार्क्सवाद और रामराज्य” ब्राह्मणादि मे उपरिगत भेद भाषित न होने पर भी शास्त्रप्रमाणगम्य विभिन्न गुण-धर्मो, रक्तो के भेद से उनमें भेद मानना अनिवार्य है” यह तो साक्षात सिद्धांत ही है”। 1000 पृष्ठों की चतुर्वर्ण्यसंस्कृतिविमर्श पुस्तक को पढ़ने पर इन विषयों में कोई संदेह ही नहीं ठहरता।
महाराज जी बताते है :” स्त्री नव दश वर्ष की अवस्था में ब्याही जाती है श्वशुरकुल में जाते ही परदे में रहती है। ज्येष्ठ श्वशुर तक से भी नही बोलती, घर के भीतर सदा घूघट के आट में रहती हैं, जहां घूंघट प्रथा नही है वहा दृष्टिसवरण रूप प्रथा है ही,बिना कुटुंबियो के अकेले आना जाना संभव ही नहीं, किसी बाहरी व्यक्ति से बोलना जब असंभव है, तब स्वतंत्र मिलने की तो बात ही क्या ? ऐसी दशा में कुटुम्ब में व्यभिचार भले ही हो जाए परंतु परजाति के साथ संबंध तो असंभव ही है !” (मा.औ.रा/२२३/१-६) इन वचनों से सिद्ध है महाराज जी की विचारधारा। ऐसा प्रतीत होता है की महाराज जी को कुटुम्ब में व्यभिचार से ज्यादा परजाति में संबंध न हो इसकी चिंता थी। आगे महाराज जी लिखते हैं “रजस्वला होने पर स्त्री के मन में विकार आने पर किसी पर मन जा सकता है, इसलिए रजस्वला होने के पहले ही विवाह का नियम है” (मा.औ.रा/२२३) ऐसे वचनों से महाराज जी बाल विवाह का समर्थन करते हैं।
यह बाल विवाह क्या है? हमारी सनातन परम्परा में तो मात्र विवाह ही होता आया है। उसके लिए धर्मशास्त्रों के अनुसार उपयुक्त आयु वही है,जो स्वामी करपात्री जी ने बताई है। आज से 40,50 वर्ष पूर्व भी विवाह कम आयु में किया जाना साधारण बात थी। अत: विवाह की आयु के विषय में धर्मशास्त्रीय मत रखना कोई दोष नहीं। अनेक क्षेत्रों में तो यह आज भी प्रचलित ही है। यह तो महर्षियों के वचन हैं।
त्रिंशद्वर्षो वहेत्कन्यां हृद्यां द्वादशवार्षिकीम् ।
त्र्यष्टवर्षोऽष्टवर्षां वा धर्मे सीदति सत्वरः ॥ ९.९४॥
त्रिंशद्वर्षो वहेत्कन्यां हृद्यां द्वादशवार्षिकीम् ।
त्र्यष्टवर्षोऽष्टवर्षां वा धर्मे सीदति सत्वरः ॥ ९.९४॥
वशिष्ठ (17.70) ,बौधायन (4.1.11) ,पाराशर स्मृति 7.5,महाभारत 13.41.14 ऐसे अनेकों प्रमाण दिए जा सकते हैं जो इस पक्ष का समर्थन करते हैं। प्रभु श्री राम “बालो द्वादशवर्षो ऽयमकृतास्त्रश्च राघवः ।
।। 3.38.6 ।। अजातव्यञ्जनः श्रीमान् पद्मपत्रनिभेक्षणः ।
।। 3.38.14 ।।अजातव्यञ्जनः अनुत्पन्नयौवनलक्षणः – श्रीगोविन्दराज।। इसी आचरण का प्रयोग करते देखे जाते हैं।
प्रदानं प्रागृतोरप्रयच्छन्दोषी ( गौतमः ) अदृष्टरजसे दद्यात्कन्यायै रत्नभूषणम् ( आश्वलायनः ) अप्रयच्छन्समाप्नोतिभ्रूणहत्यामृतावृतौ ( याज्ञवल्क्यः ) प्रदानं प्रागृतोः स्मृतम् ( मनुः )। ऐसे कितने वचन उद्धृत किए जाएं? इन आप्त पुरुषों और ईश्वर के समक्ष तुम अनाप्त लौकिक मनुष्यों के वचन का क्या मूल्य?
दोष हमारा ही है कि ऐसे समाज को स्थिर नहीं रख पाए जिसमें कि विवाह को भोगसम्बन्ध मात्र न देखा जाता हो। विवाह की आयु को ही गर्भाधान की आयु न समझा जाता हो। शास्त्र सर्वथा निर्दोष हैं। आपको स्वीकार्य हो या न हो,सभ्य समाज के लिए यह ही नियम है।
करपात्री महाराज जी ने विदेश यात्रा को सर्वथा शास्त्रविरुद्ध बताते हुए पूरी एक पुस्तक लिख दी। सभी वर्णों के लिए विदेश यात्रा निषिद्ध है। यहां तक की जो धर्माचार्य और आचार्य गण विदेश में लोक कल्याण का काम कर रहे हैं इसको करपात्री महाराज उनकी “व्यक्तिगत वासना” बताते हैं(वि.शा./३/२-७)।
यदि पिता (१)ब्रह्मघाती-आत्मघाती हो,(२)परस्त्रीगमनकर्ता हो, (३) समानगोत्रप्रवर में विवाहित हो, (४) स्वर्णचौर हो, (५)मद्यपी (शराबी) हो , (५) विदेशयात्रा कर चुके हो तदुपरांत पुत्रोत्पन्न होता हैं तो उस पुत्र को “पतितोत्पन्नः पतितो भवतीत्याहुः” इस प्रकार बौधायनधर्मसूत्र में स्मृतिवचन के अनुसार उपनयन में अधिकृत नहीं माना जाता।। यह मात्र करपात्री जी का वचन तो है नहीं, साक्षात वेद वचन है जो कि अनेकों स्मृतियों से सिद्ध है।
न जनमियान् नान्तमियात् ।। (माध्यन्दिनीयवाजसनेयिशुक्लयजुर्वेदशतपथब्राह्मणे , 14/4/1/11,
काण्ववाजसनेयिशुक्लयजुर्वेदशतपथब्राह्मणे , 16/3/3/10,
काण्वबृहदारण्यकाेपनिषदि , 1/3/10)
न गच्छेन् म्लेच्छविषयम् (विष्णुधर्मसूत्रे ,84/2),
म्लेच्छदेशे न च व्रजेत् (शङ्खस्मृताै ,14/30),
सिन्धाेरुत्तरपर्यन्तं तथाेदीच्यतरं नरः।
पापदेशाश् च ये केचित् पापैरध्युषिता जनैः ।।
शिष्टैस् तु वर्जिता ये वै ब्राह्मणैर् वेदपारगैः।
गच्छतां रागसम्माेहात् तेषां पापं न नश्यति ।।
(ब्रह्माण्डपुराणे , 3/14/81-82, वायुपुराणे , 2/16/70-71)
इत्यादि अन्यान्य शास्त्र प्रमाण विदेशयात्रा का निषेध कर रहे हैं ।
मध्वाचार्य जी ने कहा है कि “ विमुच्य ( विमोच्य ) पापसंघात दिशामन्तेष्वथाक्षिपत् ” अर्थात् प्राणदेवता ने वागादि देवता के पाप संघात को छुड़ाकर दिशाओं के अन्त में छोड़ दिया । ( वृहदारण्य भावबोध प्रारम्भः २२ पृष्ठ ) इतना ही नहीं विशिष्टाद्वैतानुसारिणी श्रीरंग रामानुज विरचित प्रकाशिका टीका में तो अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में म्लेच्छ देशों को ही दिशाओं का अन्त कहा “ सा वा एषा देवतैतासां मृत्युशब्दितं पाप्मानमपहत्य वागादि देवताभ्य आच्छिद्य यत्रासां दिशामन्तो दिगन्तप्रदेशस्तद्गमयाञ्चकार दूर्नामत्वाद्द मृत्युं निनाय , । आसां वागादि देवतानां पाप्मानः पापानि विन्यदवाद्विशिष्य निधानं कृतवती । यस्मात्कारणात्प्रत्यन्तदेशानां वागादिदेवताविनिर्मुक्ताऽनुतादिलक्षणपापनिधानाश्रयतया म्लेच्छदेशत्वं अतएव तत्र जनं जननम् उत्पत्ति अन्तं मरणं च नेयात् न प्राप्नुयात् तत्र देशे उत्पत्तिमरणे अशोभने इति । यावत् । ” इतने स्पष्ट शब्दों में मलेच्छ् देश गमन निषेध होने पर भी, इन्ही मान्य आचार्यों के समर्थक आज कहते दिखाई देते हैं कि “विदेश यात्रा पाप है, किन्तु आकाशमार्ग से की हुई नहीं”।
भाई! विदेशी भूमि पर अधिकार करने को तो कोई द्विजाति विदेशयात्रा नहीं करता है। अधिकतर विदेशयात्रा होती है पिकनिक,नौकरी आदि के लिए। अत: पतन सुनिश्चित ही है। द्वापर तक तो विदेश यात्री की जातिग्राह्यता स्वीकार थी किन्तु कलियुग में तो वह भी निषिद्ध है। अपने धर्मगुरुओं,आचार्यों को इस पातक से बचाना तुम्हारी दृष्टि में गलत हो सकता है किन्तु यह साक्षात धर्म ही है।
शंका:- विदेश यात्रा नहीं करेंगे तो धर्म प्रचार कैसे होगा?
समाधान:- विचारणीय तो आज यह है कि आपके स्वयं के जीवन में धर्म का प्रचार प्रसार कैसे होगा ? क्योंकि आपके जीवन में यदि धर्म का ठीक से प्रचार- प्रसार हुआ होता तो आप विदेश यात्रा का विरोध करने वाली श्रुति -स्मृति को अनसुना करने का साहस नहीं करते।
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यांशिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥ (मनु 2.20)
इन देशों में उत्पन्न ब्राह्मणों से पृथ्वी पर सब मनुष्य अपने अपने चरित्र सीखें।
विदेशियों का यहां आना सुलभ है ही,भारत भूमि पर धर्म का प्रचार हो, मन्दिरों की पुन: प्रतिष्ठा हो तो कौन नहीं आकर्षित होगा? नोट :- जीविकोपार्जन के लिए शूद्र द्वारा विदेश यात्रा वर्णित है। “शूद्र के लिए भी के लिये भी द्वीपान्तर यात्रा निषिद्ध ही हैं , क्योंकि वह भी वर्णाश्रमी है । कर्मभूमि भारत से बाहर जाना उसके लिये भी अनुचित है । वृत्तिकर्षित होने पर ही उसे जिस किसी भी देश में रहने की अनुमति है ।
पुनश्च शूद्र को दूध( कपिला क्षीर पान), प्रणव(ॐ), शालिग्राम सेवा,होम का भी अधिकार नहीं है (वि.पि./१९४/७-९)! जो भी हो महाराज जी नही रुके और अछूतोद्धार के नाम पर धर्मद्रोही सुधारवादी वैष्णव कथावाचकों को शूद्र के अधिकार का स्मरण करते हुए कहते है -“हां, भगवन्नाम कीर्तन के अधिकारी सभी है पर, वेदवेदान्तादि के द्वारा भगवान् के स्वरूपादि कीर्तन के अधिकारी त्रैवर्णिक ही है” (सं.ए.व/८०/७-१०) अर्थात् शूद्र और अन्य निम्न रक्तीय लोग केवल नाम का कीर्तन कर सकते है, राम राम राम .. इस रीति से किंतु वेद ,वेदांत और अन्य स्रोतों के द्वारा जिनमे उनके नाम के अलावा उनके स्वरूप, रस, ऐश्वर्य का वर्णन हो ऐसे कीर्तन का अधिकारी शूद्र नही है। ।
इसमें क्या आपत्ति है? दूध का अधिकार और कपिला दुग्ध का अधिकार भिन्न है! तुम्हे सीधे ही कपिला क्षीर पान क्यों नहीं लिखा? नारायणशिला पर चढ़ने वाला अनेक प्रकार का दुग्ध भगवान शिव की शिला पर नहीं चढ़ता। ब्राह्मण के लिए कपिला के अतिरिक्त अन्य गायों का दुग्ध त्याज्य है। वर्णानुसार ही गौवें भी होती है। इस धर्मशास्त्रीय मत से तुम्हे क्या आपत्ति है? ब्राह्मण को अजा आदि का दुग्ध भी निषिद्ध है? तुम्हें इन पर आपत्ति होगी? प्रणव जप का अधिकार भी सभी को नहीं है,वेद ही इसका विधान करते हैं:-प्रणवं यजुर्लक्ष्मीं स्त्रीशूद्राय नेच्छन्ति द्वात्रिंशदक्षरं साम जानीयाद्योजानीते सोऽमृतत्वं च गच्छति सावित्रीं लक्ष्मीं यजुः प्रणवं
यदि जानीयात् स्त्री शूद्रः स मृतोऽधोगच्छति तस्मात्सर्वदा नाचष्टेयद्याचष्टे
स आचार्यस्तेनैव स मृतोऽधोगच्छति ॥(नृसिंहतापनीय उपनिषत 1.3)
शेष रह जाती है “वेद, वेदान्त (वेद का उपनिषद भाग” के श्रवण अध्यन्न की बात तो यह तो सभी आचार्यों का सर्वमान्य सिद्धान्त है कि वेद में मात्र उपनयन संस्कार संपन्न ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य आदि का ही अधिकार है। ब्रह्मसूत्र (1.3.38) के भाष्य में निम्न आचार्यों का मत देखें
भगवान् रामानुजाचार्य
शूद्रस्य वेद श्रवणतदध्ययनतदर्थानुष्ठानानि प्रतिषिध्यते
भगवान् रामानन्दाचार्य
इतोऽपि नाधिकारः शूद्रस्य। यतस्तस्य वेदश्रवणतदध्ययनतदर्थज्ञानतदनुष्ठानप्रतिषेधः स्मर्यते।
भगवान् मध्वाचार्य
श्रवणे त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रपरिपूरणम् अध्ययने जिह्वाच्छेदः अर्थावधारणे हृदयविदारणम् इति प्रतिषेधात्। नाग्निर्न यज्ञः शूद्रस्य तथैवाध्ययनं कुतः।
निम्बार्क सम्प्रदाय
वेदान्तपारिजातसौरभ–
शूद्रो नाधिक्रियते शूद्रसमीपे नाध्येतव्य मित्यादिना तस्य वेदश्रवणादि प्रतिषेधात्॥ नचास्योपदिशेद्धर्ममित्यादिस्मृतेश्च॥
भगवान् वल्लभाचार्य
दूरेह्यधिकार चिन्ता। वेदस्यश्रवणमध्यनमर्थज्ञानं अयमपि तस्य प्रतिषिद्धम्
आचार्य श्रीकण्ठ
शूद्रस्य वेदवाक्यश्रवणादि निषिध्यते तस्माच्छूद्रसमीपे नाध्येतव्यम् इति।
आचार्य बलदेव विद्याभूषण (गौड़ीय वैष्णव)
पद्युहवा एतच्छ्मशानं यच्छूद्रस्तस्माच्छूद्रसमीपे नाध्येतव्यम्। तस्माच्छूद्रो बहुपशुरयज्ञीय इति शूद्रस्य वेदश्रवणादिप्रतिषेधान्न स तत्राधिकारी।
यह कहना कि “जिनमे उनके नाम के अलावा उनके स्वरूप, रस, ऐश्वर्य का वर्णन हो ऐसे कीर्तन का अधिकारी शूद्र नही है” तुम्हारी मंदमति का ही द्योतक है। यदि भगवान राम कृष्णादि के “सुंदर ऐश्वर्य,रूप” को ही तुम स्वरूप कीर्तन समझ रहे हो तो वह तो वेदों की अपेक्षा पुराणेतिहासों में शतगुणित मात्रा में वर्णित है।अत: यदि यह ही तुम्हारा उद्देश्य है तो वेद के अनाधिकारी द्विजों एवं अन्य वर्ण के लोगों को पुराणेतिहासश्रवण के लिए प्रोत्साहन दो। अनेक स्थानों पर जब वेदांती स्वरूप कीर्तन की बात कर रहे होते हैं तो वह प्रत्यकतत्वरूप “शुद्ध चैतन्य” के स्वरूप से आत्मज्ञान की प्राप्ति की ही बात कर रहे होते हैं। नील केश, पीताम्बर ,वंशी आदि की नहीं।
महाराज जी विस्तार से संपूर्ण शास्त्र की व्याख्या करते हुए ये सिद्ध करते है की उपरोक्त बाते शास्त्र विरुद्ध है। महाराज जी बताते हैं जिस तरह लात मरती हुई गाय, गाय ही है ; उसी प्रकार “दु:शीलोऽपि द्विज: पुज्य:” दु:शील,अधम .. ब्राह्मण भी पूजनीय है। किन्तु “न तु शूद्रो जितेन्द्रिय:”(सं.ए.व/६८)।अर्थात् जितेंद्रिय, जिसने इन्द्रियों को जीत रखा है वो भी अगर शूद्र हुआ तो पूजनीय नही है ।स्वामी जी के मंतव्य से ऐसा शूद्र आदरणीय हो सकता है पर पूजनीय नही। यह तक की महाराज जी बताते है कि “शूद्र के लिए नमस्कार अग्निवत् दीप्त त्रैवर्णिक को भी गिरा देता है”(सं.ए.व/६८/२१-२३)। अर्थात शूद्र अभिवादन के भी योग्य नहीं, चाहे जितेंद्रिय क्यों न हो। महाराज जी लिखते है -“कर्त्तव्यपरायण शूद्र कर्तव्यपरायण ब्राह्मण को नमस्कार करता है, ब्राह्मण शूद्र को नमस्कार नही करता।पिता पुत्र को प्रणाम नही करता ,पुत्र पिता को प्रणाम करता है। पिता पुत्र को ‘ए-ओ’ कहकर पुकारता है और पुत्र “पिताजी” कहकर पुकारता है'”!!(वि.पि./४१६/१५-१८)।
यह ही तो नास्तिकता, हीनभावना,प्रतिस्पर्धा की पराकाष्ठा है। तुम जैसे अविचारी व्यक्ति तो कल से कह सकते हैं”दूध तो भैंस का पी रहे हैं, फिर गाय माता क्यों है? अब से गाय माता नहीं, अब से भैंस ही माता है।” परन्तु किसी भी आस्तिक के लिए तुम्हारा यह गौ-विरोध असह्य ही होगा।। इसी प्रकार मन्वादि स्मृतियों का सिद्धांत यह ही है कि
ब्राह्मणं दशवर्षं तु शतवर्षं तु भूमिपम् ।
पितापुत्रौ विजानीयाद् ब्राह्मणस्तु तयोः पिता ॥ २.१३५ ॥
ऐसी ही बातें “आपस्तंब धर्मसूत्र (1.14.25) ,विष्णु स्मृति 31.17 आदि में कही गई है। भविष्य पुराण में तो ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र में पुत्र -पौत्र -प्रपोत्र का सम्बन्ध बताया गया है।
इत्येवं क्षत्रियपिता वैश्यस्यापि पितामहः ।
प्रपितामहश्च शूद्रस्य प्रोक्तो विप्रो मनीषिभिः । ।(1.4.69)
कोई वर्णसंकर ही होगा जो धन आदि से संपन्न होने पर भी सम्बन्धों का अनादर करे। शिष्टों की परंपरा में तो आज भी अनेकों जातियों के व्यक्ति आयु में अधिक होने पर भी ब्राह्मणपुत्रों को पैर नहीं छूने देते। सम्मान,उपहार, सामग्रियां,सत्कार देना एक भिन्न बात है किन्तु पूजा आदि आचार्य की ही विहित है। विधि न होने पर और अनेक निषेध प्राप्त होने पर कल्पना को ही धर्म नाम नहीं दिया जा सकता।
ऐसे व्यक्ति अवैदिक बौद्धों की भांति ही धर्म के शत्रु बने हैं। बौद्ध भी हमारे वैदिक आचार्यों पर यह आक्षेप किया करते थे। धर्मकीर्ति अपने ग्रन्थ प्रमाणवार्तिक में लिखता है:-
वेदप्रामाण्यं कस्यचित्कर्तृवादः स्नाने धर्मेच्छा जातिवादावलेपः।
सन्तापारम्भः पापहानाय चेति ध्वस्तप्रज्ञानां पंचलिंगानि जाड्ये॥
वेद को प्रमाण मानना, किसी ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानना, स्नान में धर्म होने की इच्छा, जाति का गर्व और पाप दूर करने के लिए शरीर को सन्ताप देना, ये सब प्रज्ञाहीन जड़बुद्धि मनुष्यों के पाँच प्रतीक हैं।
करपात्री महाराज की परंपरा वर्ण को जन्माधारित मानती है और तदानुकूल कर्म व्यवस्था भी स्वीकार करती है, अर्थात स्पष्ट शब्दों में जन्म से ही सौ प्रतिशत आरक्षण। महाराज जी लिखते हैं -” विद्वान ब्राह्मण पुरोहित तथा महामात्य बनाना चाहिए । न्यायाध्यक्ष तथा अध्यापक के पद पर भी ब्राह्मणों को ही नियुक्ति होनी चाहिए। सेनापति के पद पर पवित्र वीर क्षत्रिय एवं सैनिक भी अधिकतर कुलीन क्षत्रिय ही होने चाहिए । कोषाध्यक्ष वैश्य एवं सेवाध्यक्ष शूद्र होने चाहिए। चर्म के व्यापारो तथा यंत्रों के अध्यक्ष चर्मकार होने चाहिए।शुचिता( सफाई) विभाग का अध्यक्ष अंत्यज होना चाहिए। इसी तरह प्राय: सभी यंत्र शिल्प, कर कारखाने आदि पर शूद्रों का ही प्रधान्य रहना चाहिए।”(आ.ना./५६/१-७)अर्थात् जन्म से ही किसी का भविष्य तय है, पुरुषार्थशून्य इस व्यवस्था में योग्यायोग्य का विचार किए बिना जन्माधारित स्वधर्मानुरत प्राणी ही सच्चा हिंदु होगा।यह ये भी ज्ञात होना चाहिए की करपात्री महाराज जन्मना ब्राह्मण, वैश्य, शूद्रादि को मानते थे। और पूरे करपात्र साहित्य में हर स्थान पर बताया है की जैसे सिंह जन्म से सिंह होता है और गर्दभ जन्म गर्दभ वैसे ही जन्म से ही वर्ण पृथक पृथक है। सिंह के साथ स्वान गर्दभ की अनुरुक्ति इतने बार हुई है की मैं इसका उद्धरण संख्या दिए बगैर छोड़ देता हूं।
करपात्री जी महाराज की परम्परा से क्या आशय है? यह साक्षात वेद का ही सिद्धान्त है। श्री रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, वल्लाभाचार्य, रामानंदाचार्य,मीमांसक, नैयायिक , वैयाकरण सभी जन्म आधारित वर्ण ही मानते हैं(आधारित का तात्पर्य है जन्म एवं तदनुरूप संस्कार आदि)। उनके पारंपरिक आचार्यवाक्यों की मनगढ़ंत व्याख्याएं करने के कारण तुम अनेकों बार इन्हीं संप्रदाय के अनुयायियों द्वारा गलत सिद्ध किए जा चुके हो। गुरु-परम्परा से तुम्हारा अध्ययन है नहीं,कोई स्थिर सिद्धांत भी नहीं है। हम लोग जो प्रत्येक सम्प्रदाय के आचार्यों से सम्पर्क में रहते हैं,उनका मत भी जानते हैं। अपनी निजी हीनभावना या द्वेष को मिटाने के लिए हमारे अनेक सम्प्रदायों के आचार्यों को वेदविरोधी सिद्ध करने का कुप्रयत्न मत करो।
तुम अपने ही शब्दों पर ध्यान नहीं देते, लिखते हो कि “पुरुषार्थशून्य इस व्यवस्था में योग्यायोग्य का विचार किए बिना” किन्तु करपात्री जी के वचनों में स्पष्ट ही “विद्वान ब्राह्मण” “वीर क्षत्रिय” आदि पद प्रयुक्त हैं,विद्वान व वीर बनना क्या बिना पुरुषार्थ के सम्भव है!! और यह बताओ पुरुषार्थ है क्या? मनमाना आचरण? या धर्म अर्थ काम मोक्ष आदि की इच्छा? यदि प्रथम पक्ष मानों तो सात जन्म लेने पर भी उसे सिद्ध नहीं कर पाओगे। द्वितीय पक्ष मानों तो धर्म शास्त्राधिगम्य है,अर्थ के स्रोत भी वैश्य शूद्रों के ही पास अधिक हैं,मोक्ष भी स्वधर्म में स्थित होकर अनेक माध्यमों से ही मिलता है। अत: यह व्यवस्था ही पुरुषार्थ है इसके अतिरिक्त किया कार्य निन्द्य है।
विशेषण की सार्थकता तभी होती है जब वह अन्यों को स्वयं से पृथक करे। अत: अविद्वान ब्राह्मण अमात्य या पुरोहित नहीं बन सकता यह स्पष्ट है। तुम कह रहे हो “योग्य अयोग्य का विचार किए बिना” यह बताओ कि सिद्धांति ने कहां लिखा है कि अयोग्य व्यक्ति भी पद पर नियुक्त होगा? योग्य अयोग्य का विचार हमारा ही संप्रदाय सबसे अधिक करता है, अयोग्य ब्राह्मण को हम शास्त्रवादी पंक्ति में भी अपने साथ नहीं बैठने देते,उसके घर का जल ग्रहण नहीं करते,तो ऐसी स्थिति में तुम यह किस आधार पर कह रहे हो कि “योग्य अयोग्य का विचार किए बिना”?
जन्म से ही 100% आरक्षण? वर्तमान दिशाहीन आरक्षण की भांति यह अतिव्याप्त नहीं है। उदाहरण ‘- पिछड़े वर्गों को डॉक्टर, इंजीनियर,शिक्षक,सरकारी कर्मचारी, आईएएस आदि सब क्षेत्रों में आरक्षण। किन्तु हमारा आरक्षण तो मात्र कुछ ही क्षेत्रो में है और स्वभाव के अनुकूल है “ब्राह्मण को शिक्षा, मंत्रीपद आदि में” “शूद्र को कारखानों,निर्माण कार्य, सेवा के जितने प्रकल्प हैं उन सभी में”, वैश्यों को कृषि वाणिज्य आदि में।
वर्तमान आरक्षण में तो अयोग्य व्यक्ति भी सिंहासनस्थ हो जाता है। ऋणात्मक अंक लाने वाला व्यक्ति भी अध्यापक बनता देखा जाता है। हमारी व्यवस्था में तो वेदों का ज्ञाता ब्राह्मण ही श्राद्ध का भोजन करेगा, वेदों एवं नीति का ज्ञाता ब्राह्मण ही मंत्री, पुरोहित बनेगा, अनेकों वर्षों तक शास्त्रविद्या में तपस्या करने वाला क्षत्रिय ही सेना में नियुक्त होगा। संसाधन,प्रतिभा आदि का सदुपयोग इस ही व्यवस्था में ही सम्भव है।।
अनुरुक्ति होने पर तुम संख्या देना क्यों छोड़ रहे हो? मन्दिर प्रवेश के सन्दर्भ देने में तो तुमने अनुरक्ति होने पर भी सन्दर्भ नहीं छोड़े? यह कहो तुमने सन्दर्भ मिला नहीं और यदि मिला भी हो तो उसे तुम मनमाने ढंग से प्रदर्शित कर पाने में अक्षम हो। यह “सिंहत्वादि ” विषय चातुर्वर्ण्य संस्कृति विमर्श में भी उठाया गया है। यहां इतनी ही व्याप्ति है कि “ब्राह्मणादि भेद हैं, सिंहादि जातियों के समान, जन्म (योनि ) होने के कारण” न कि “ब्राह्मणादि भेद हैं,सिंह आदि जातियों के समान , आकृतिग्राह्य होने से”। यह करपात्री जी द्वारा लिखित “आकृतिग्रहणाजाति”, विचार में देखा जा सकता है। भविष्य पुराण में जो कहा गया कि ब्रह्मणादि भेद सिंह, गौ, घट-पटादि के समान नहीं हैं वह द्वितीय पक्ष है। प्रथम पक्ष भी तो श्रुति सम्मत है:-
“तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशोह यत्तेरमणीयां योनिमापद्येरन्ब्राह्मणयोनिं वा( सामवेदीय छान्दोग्य 5.10.7)
यह तक की करपात्री महाराज बताते हैं “ब्राह्मणो न हन्तव्य:” से ब्राह्मण जाति के हनन का भी निषेध है, चाहे उत्तम हो या अधम (रा.मी/ ६१२)!! महाराज जी को भक्त शूद्रों द्वारा कषाय वस्त्र पहनना भी शास्त्र विरोधी प्रतीत होता था(सं.ए.व/६७/८-९
ब्राह्मण की हिंसा न हो यह तो वेद का ही सिद्धान्त है “न ब्राह्मणे हिंसितव्य:(अथर्व० 5.18.6) ब्रह्माणं यत्र हिंसन्ति तद्राष्ट्रं हन्ति दुछुना(अथर्व 5/19/8) . ब्राह्मण की हिंसा नहीं करनी चाहिए,जहां ब्राह्मण की हिंसा होती है वह राष्ट्र नष्ट होता है” यह। इसका बाध करने वाले तुम कौन होते हो? कर्मफल व्यवस्था ईश्वराधीन है,सभी का वध करने पर समान पाप नहीं होता। ब्रह्महत्या का पाप सभी सनातनियों को विदित ही है।
कषाय वस्त्र संन्यासियों की वस्तु है,कर्मयोगी गृहस्थों को उनका अनुकरण नहीं करना चाहिए।गृहस्थ ब्राह्मण भी श्वेत वस्त्र एवं अन्य रंगों के उपवस्त्र ही पहनता है कषाय नहीं।
महाराज जी के उपरोक्त विचारो को पढ़ने के बाद इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि विज्ञानोन्मुख व्यक्ति के लिए ये सब ग्राह्य नही है। अपिच महाराज जी आज के युग में वेद मंत्रों की कुछ ऐसी व्याख्या करते हैं जिसमे पृथ्वी चपटी और स्थिर है और अन्य ग्रह उसका चक्कर लगा रहे हैं। ओशो रजनीश ने एक प्रसंग का वर्णन किया है जिसमे करपात्री महाराज एक बार विद्युतप्रयोग से खेती व विद्युत ऊर्जा से चलने वाले उपकरणों के विरोध में प्रवचन दे रहे थे।
उन व्यक्तियों के ग्रहणाग्रहण का क्या प्रामाण्य है जो धर्मोन्मुख नहीं हो, शास्त्रोन्मुख नहीं हो, ईश्वरोन्मुख नहीं हो किन्तु स्वयं को आधुनिक दिखाने के लिए जो भी विज्ञान का सहारा लेना पड़े,उसके समर्थक हो। हमारे मत में तो शास्त्र सभी परिपक्व से परिपक्व विषयों का बाध कर देने में सक्षम हैं,तो फिर अंकुरित अवस्था वाला विज्ञान क्या वस्तु है?यह जो कहा है कि “आज के युग में वेद मंत्रों की कुछ ऐसी व्याख्या करते हैं” हे दर्शनशून्य! क्या वेदों का अर्थ समय बदलने के साथ परिवर्तित होगा? शब्दार्थ का सम्बन्ध नित्य है या परिवर्तनशील? वेद विधायक हैं या अनुवादक मात्र?
तुम यह प्रमाण भी नहीं दे पाए कि कहां महाराज जी ने वेद मन्त्रों की ऐसी व्याख्या की है जिसमें पृथ्वी चपटी और स्थिर है? प्रमाण दो किस मंत्र के भाष्य में पृथ्वी को चपटी अथवा स्थिर बताया है? मंत्र की व्याख्या से भिन्न स्थान पर भी तुम करपात्री जी के साहित्य से “पृथ्वी चपटी है” यह सिद्ध नहीं कर सकते। हां पृथ्वी के स्थिर होने को मंत्र के भाष्य में नहीं अपितु अन्य स्थान पर मंत्र के एक गलत अर्थ का निराकरण करते हुए लिखा है। वहां भाष्य तो यह है ” यज्ञसिद्धि के लिये भिन्न – भिन्न यजमानों के घर जाने वाले और लोहित , शुक्ल प्रभृति यों की ज्वालाओं से युक्त अग्नि ने आहवनीय , गाहंपत्य और दक्षिगाग्नि के स्थानों पर आरोहण किया । पूर्व दिशा में आहवनीयरूप से पृथिवी पर बैठा , तव आदित्य रूप से स्वर्ग में संचार करने वाला यह पितृभूत द्युलोक के प्रति भी प्राप्त हुआ । ‘ आयं गौः ‘ इत्यादि तीन मन्त्रों से आहवनीय का उपस्थान करे , तदन्तर दक्षिणाग्नि का आधान करे “इसमें तुम्हे स्थिर पृथ्वी कहां से दृष्टिगोचर हुई? धरती चपटी होना कहीं नहीं लिखा और पृथ्वी स्थिर होना लिखा भी है तो उससे शास्त्रीय और धार्मिक बहुमुखी प्रतिभा पर क्या प्रभाव पड़ता है? प्राचीन समय से ही दोनों पक्ष भारत में उपलब्ध है वराहमिहिर भास्कर आदि का पक्ष पृथ्वी को स्थिर मानने में है, आर्य भट्ट आदि का गतिशील मानने में।।इनमें से एक पक्ष का आश्रयण लेने पर क्या हानि? वह भी जब पृथ्वी को स्थिर सिद्ध करना मुख्य प्रयोजन ही न हो।
अविचारित विद्युत यंत्रों के प्रयोग से जो कृषि की नस्लों में कमी,बची हुई नस्लों की गुणवत्ता में ह्रास हुआ है, यह कोई विज्ञान का अंधसमर्थक भी नहीं नकार सकता, वह भी किसी समुचित उपकरण को बनाने का ही प्रयास करेगा जिससे कृषि को नुकसान न हो।
यह ओशो वही “रजनीश जैन” है ,जो कि खुली सभा में प्रश्न पूछने पर शीला आनन्द को “BarTender” जैसे शब्दों से सम्बोधित किया था, “मुक्त यौन” जैसी अश्लीलता का समर्थक था। उसकी बातों का शिष्ट व्यक्तियों के लिए कितना प्रामण्य होगा यह विचारणीय है।
यह वही ओशो रजनीश है जो फरीदाबाद में महाराज जी के सम्मुख मंच छोड़कर भाग गया था,पीठ पीछे अनेकों प्रवचनों में महाराज जी का नाम लेने के उपरान्त भी प्रयाग में धर्मसम्राट जी को दंडवत कर गया। ओशो के पंक्तिवत खण्डन में स्वामी जी द्वारा तीन पुस्तकें लिखी गई हैं ,इनमें से एक भी पुस्तक का उत्तर ओशो से नहीं बना।
“दास प्रथा को कितना भी निरर्थक अस्वाभाविक, या मूर्खतापूर्ण पूर्ण क्यों न कहा जाय किंतु किसी न किसी रूप में उसका अस्तित्व सर्वत्र है और रहेगा” (मा.औ.रा/२४४)आगे सोवियत संघ का उदाहरण देने के पश्चात कहते हैं ” शासन न्याय शिक्षा सेना आदि सभी विभागों में उच्च कर्मचारियों में और निम्न कर्मचारियों में अङ्गाङ्गिभाव या शेष शेषिभाव अनिवार्य रहता ।’ एक व्यक्ति दूसरे का हुक्म मानने के लिए बाध्य हो , न मानने पर दण्डित हो’ यही दास प्रथा का नमूना है । इसका अभाव कब हो सकता है। धर्म नियंत्रित राज्य में ही शासन एवं शासित आदि का अभाव हो सकता है। वहा भी धर्ममूलक नियम्न नियामक भाव, गुरु शिष्य,अग्रज अनुज,पिता पुत्र, पति पत्नी के नियम नियामक भाव रहता ही है।” (मा.औ.रा/२४४/१-१२)बात तो यहां महाराज जी ने सही की है किन्तु महाराज जी तो जन्माधारित कर्मव्यवस्था के समर्थक थे, धर्म नियंत्रित का मतलब स्पष्ट है जन्म से वर्णाश्रम व्यवस्था! ऐसे में पूरा का पूरा वर्ण ही जन्म से दासत्व भाव को प्राप्त हो जाता है। और यही बाद में दास प्रथा का रूप ले लेती है जहां दमन स्वाभाविक है। हाथ कांपता है दासप्रथा जैसे शब्द को लिखते हुए।
भृत्य कर्म करना धन के लिए ही होता है अन्यथा आय के अन्य स्रोत भी हैं। दमन स्वाभाविक है किसने कहा?किस प्रमाण से जाना? शास्त्रों में ऐसे प्रमाण हैं ,जिनमें स्वयं से पहले दास को भोजन ,घर की स्त्री ,पुत्रों को भूखा रखना किन्तु दास को भूखा न रखना, दासों को आभूषण आदि देने से स्वर्ग प्राप्ति का वर्णन है।ऐसे में दमन होगा?
बालानामथ वृद्धानां दासानां चैव ये नराः ।
अदत्त्वा भक्षयन्त्यग्रे ते वै निरयगामिनः ।।अनुशासन पर्व २३. ८२ ।।
भृत्यः शिष्यश्च पोष्यश्च वीर्यजः शरणागतः ।
धर्मपुत्राश्च चत्वारो वीर्य्यजो धनभागिति ॥
इस ब्रह्मवैवर्त के वचन में दास चार पुत्रों में सम्मिलित हैं।
ये क्रोधं संनियच्छन्ति क्रुद्धान्संशमयन्ति च ।
न च रुष्यन्ति भृत्यानां दुर्गाण्यतितरन्ति ते ।।
इस भारतवचन के अनुसार भी दासों पर क्रोध न करना ही दु:खों से मुक्ति का कारण बताया गया है। ऐसी व्यवस्था में दमन स्वाभाविक है,कहां ठहरता है? “दासों के भरण पोषण से हमारे पूर्वज स्वर्ग गए हैं” (२.१०५.३३ वाल्मिकी रामायण) ऐसे वचन भी प्राप्त होते हैं।
तुम्हारे हाथ क्यों कांपते हैं?तुम जैसे व्यक्ति ही “ग्रामसिंह”(श्वान) और सिंह दोनो में शब्दों के साम्य से दोनों से ही भयभीत होकर कांपने लग जाएं तो यह तुम्हारी समझ का दोष है। सनातन में दास पुत्रसमान है,इसका “स्लेव” से कोई साम्य नहीं।
इन संस्थाओं तथा उत्सवों में प्राय: शूद्र समाज तथा साधवा या विधवा नारी वर्ग स्वधर्मोचित कर्तव्यों की उपेक्षा करके सम्मिलित होते हैं “( सं.ए.व/७८/१७-२०)। महाराज जी चाहते थे की आध्यात्मिकता के नाम पर लोग उनके जन्मना वर्णाधारित स्वधर्मो का परित्याग न करे। वैसे भी जब शूद्र और स्त्री आध्यात्मिकता की ओर बढ़ने लगेगी तो फिर त्रैवर्णिकों की सेवा सुश्रुसा कौन करेगा? जिनका कर्तव्य है पिता-पुत्र-भ्राता आदिकों के आश्रित रहकर उचित परिश्रमों से जीवन निर्वाह करती हुईं अपने घरों ही में श्री हरि का समाश्रयण करें”! (सं.ए.व/७८/२१-२२)अत: चारदीवारी में ही रहे, अगर उद्देश कीर्तन इत्यादि का हो तो भी बाहर न निकलें, घर से ही हरि चिंतन करें।
प्रसंगानुसार यहां व्यावसायिक संस्थाओं की ही बात की है। अभी अनेक स्थलों पर यह व्यक्ति अपनी बातों को ही लेख में मिलाकर करपात्री जी के विचार बता देता है। यह महाराज जी ने जो भी कहा है वह इसका ही रूपांतर है:-
यः स्वधर्मं परित्यज्य भक्तिमात्रेण जीवति।
न तस्य तुष्यते विष्णुराचारेणैव तुष्यते॥
(नारद 1.15.52)
केवल भक्ति के आधार पर,अपने वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार का परित्याग करके जो जीवन यापन करता है, उसपर विष्णु भगवान् प्रसन्न नहीं होते क्योंकि वे आचारप्रिय है l
इसी प्रसंग को पूर्ण करते हुए पृष्ठ ७९ पर लिखा है “उन लोगों ने अन्य अन्य व्यवसायों की तरह श्रीनाम -कीर्तन को भी व्यवसाय समझ लिया है । चार चार पैसे या भोजनमात्र पर नाम- कीर्तन में सम्मिलित होकर अपने अपने स्वाभाविक कृत्यों की उपेक्षा करते हैं । ऐसी परिस्थिति को देख कर बुद्धिमान् सहज ही समझ सकते कि इस तरह भगवानाम का स्थायी प्रचार नहीं हो सकता । यह नाम चिन्तामणि का अत्यन्त दुरुपयोग है । जब इन संस्थाओं तथा उत्सवों में पैसे या भोजन मिलना बन्द हो जायगा तभी यह भक्ति भी समाप्त हो जावेगी । उत्तम प्रकार तो भगवन्नाम या भगवद्भक्ति का यही हो सकता है कि इन उत्सवों तथा संस्थाओं में भगवान् तथा उनके रूप , नाम एवं माहात्म्य के प्रख्यापक शास्त्रों का प्रचार किया जाय , जिसे कि प्राणियों को भगवान तथा उनके नाम एवं माहात्म्य का ज्ञान प्राप्त हो और श्रद्धा सहित स्वधर्मी में परिनिष्ठित होकर समस्त प्राणी भगवन्नाम का समाश्रयण करें। यदि उन्ही संस्थाओं तथा उत्सवों में शास्त्र तथा धर्मों की भी आवश्यकता बतलाने और प्रचार करने का प्रयत्न किया जाय , भक्तों को भी शास्त्र और धर्म पक्षपाती बनाया जाय , तक तो सब विरोध ही शान्त हो जाय ।
मलेच्छ आचार,आहार च व्यवहार लिए मलेच्छ देश स्थित होकर ज्ञान की गंगा उड़ेड़ने वाले ये ट्रैडबन्धु किस मुंह से बात करते हैं? चलो मान लिया जन्म से ब्राह्मण हो, फिर भी ब्राह्मणोचिताचाराहार दृष्टिगोचर होने चाहिए,केवल जन्म से ब्राह्मण बन कर, ब्रह्मणोचित सम्मान का मजा लेना चाहते हैं! आप अपने ही छद्म परंपरावाद को ठुकराकर अपरोक्ष रूप से किस परंपरावाद की दुहाई देते हैं? आज कितने सती प्रथा समर्थक, दास प्रथा समर्थक,जन्मना छुआछूत समर्थक,”शूद्रमंदिरप्रवेश वर्जित है” के समर्थक,विदेशयात्रानिषेध समर्थक, जन्मना जातिवाद समर्थक इस सब को प्रयोग में लाते हैं? उत्तर कोई नहीं! और अगर आप इन परंपराओं को प्रयोग में नही लाते, तो आपका परंपरावाद खोखला है! अत: स्पष्ट है की ट्रैडवाद के विचारों का डिब्बा प्रायोगिक दृष्टि से शून्य है। तो फिर ये है क्या? ट्रैडवादी मानसिकता हर पुरानी चीज संरक्षण योग्य बतलाती है , हर पुरानी चीज सही है, गर्व का विषय है ये सिखलाती है। ऐसी मानसिकता सृष्टि के क्रम के ही विरुद्ध है। समस्त आध्यामिक विधाएं चेतना के विकास के लिए ही है, ये मानसिक,शारीरिक,सैद्धांतिक अलग अलग स्तरों में एक सम्मान चलती है। सामूहिक विकास से सामाजिक चेतना का विकास होता है। जहा विकास है वहां परिवर्तन सुनिश्चित है । और परिवर्तन की जब स्वीकृति होती है तब वह सुधार कहलाता है। सुधारवाद की कभी बाद में बड़े विस्तार से चर्चा करेंगे । अत: ये मान ही लेना चाहिए की ये छद्म परंपरावाद के विचारों का डब्बा दार्शनिक विवेचना में भी शून्य है। तो फिर ये है क्या? ये केवल और केवल जात्याभिमान का संरक्षण है! पुरुषार्थ शून्य बाप दादा मिलकायत का संरक्षण है! मैं सर्वदा सही हूं! शुक्रजनित जातिवाद का संरक्षण है! ट्रैडवाद परंपरावाद के नाम पर मुरझाई पत्तियों के संरक्षण का द्योतक है किन्तु नित नूतन पुष्पों के कुसुमित पल्लवित होने की परंपरा का संरक्षण,जो वास्तविक परंपरावाद है उसका मै पक्षधर हूं।
यह सब अविचारित है और अनैकान्तिक हेत्वाभासों से भरा पड़ा है। तुम व्यक्तियों के दोष को सिद्धान्त का दोष बता रहे हो।प्रारंभिक स्तर का तार्किक भी इस प्रकार की भूलें नहीं करता। परंपरावादियों को “मलेच्छ आचार,आहार लिए” कहना मात्र अपनी हीनता पर आवरण डालने का प्रयास मात्र है। मलेच्छ देश में कोई शास्त्रों को प्रामाण्य मानने वाला भी स्थित हो उसे हम पतित ही मानते हैं। उनके आचरण से क्या मलेच्छ देश में निषेध कहने वाला शास्त्र व्यर्थ हो जाएगा? जब हम उपनयनरहित , अभक्ष्यभक्षी ब्राह्मण के हाथ का भोजन भी नहीं करते तो फिर तुम “केवल जन्म से ब्राह्मण बन कर, ब्रह्मणोचित सम्मान का मजा लेना चाहते हैं!” किस आधार पर कहते हो? यह हमारा सिद्धान्त है ही नहीं। प्रायोगिक दृष्टि से शून्य है ” यह कथन भी नहीं बन सकता ,समस्त विधि निषेधों का पालन करने वाले,पालन करने में भूल होने पर प्रत्यामनाय करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रियादि उपलब्ध ही हैं। “ट्रैडवादी मानसिकता हर पुरानी चीज संरक्षण योग्य बतलाती है , हर पुरानी चीज सही है, गर्व का विषय है ये सिखलाती है।” ऐसा भी नहीं है, शास्त्रसम्मत जो जो परम्परा है उसके संरक्षण के लिए हम शीश कटवाने तक को तैयार हैं, उनपर गर्व होना ही चाहिए। जो परम्परा वेद विरुद्ध,स्मृति विरुद्ध हो वह भले ही सहस्त्रों वर्ष प्राचीन भी हो त्याज्य है। ऐसी मानसिकता सृष्टि के क्रम के ही विरुद्ध है” समस्त आध्यामिक विधाएं चेतना के विकास के लिए ही है, ये मानसिक,शारीरिक,सैद्धांतिक अलग अलग स्तरों में एक समान चलती है। सामूहिक विकास से सामाजिक चेतना का विकास होता है। जहा विकास है वहां परिवर्तन सुनिश्चित है ” कहा जा चुका है कि धर्म सृष्टि के क्रम का कारण है,यह मंदमति सृष्टि के क्रम के आधार पर धर्म को अप्रामण्य सिद्ध कर रहा है। तर्क से तो यही ज्ञात होता है कि धार्मिक नियमों को तुम प्रत्यक्षादि के आधार पर नहीं ठुकरा सकते,ऐसा करने पर दोषग्रस्त सिद्ध हो जाओगे। पूर्वमीमांसा सूत्र १.१.४ के भाष्य में यही कहा गया है कि “प्रत्यक्ष धर्म में निमित्त नहीं है! कारण यह है कि वह वर्तमानकालिक ही है क्योंकि इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध होने पर पुरुष की जो बुद्धि उत्पन्न होती है,वह प्रत्यक्ष है।यह धर्मरूप अर्थ भविष्य विषयक है,प्रत्यक्ष के समय विद्यमान नहीं है। अनुमानादि अन्य प्रमाणों के भी प्रत्यक्षपूर्वक होने से इन सभी का भी धर्म में अकारणत्व जानना चाहिए।
“जहां विकास है वहां परिर्वतन सुनिश्चित है” व्यक्तियों में परिवर्तन या फिर धर्म में परिवर्तन? व्यक्तियों के विकास के फलस्वरूप व्यक्तियों में परिवर्तन होता ही है। कर्मकांड,संध्योपासन आदि के फलस्वरूप चित्त शुद्ध होता है, उपासना से ब्रह्मज्ञान के योग्य व्यक्ति बनता है तत्पश्चात महावाक्य श्रवण से ब्रह्मज्ञान होता ही है। इस स्थिति में देखें तो विकास होता ही है किन्तु उससे धर्म का ह्रास होना ही हो यह कहां से सिद्ध होगा? “समस्त आध्यामिक विधाएं चेतना के विकास के लिए ही है” आध्यात्मिक विधाओं का मूल? शास्त्र! शास्त्र धर्म को नित्य मानता है या क्षण भर में परिर्वतनशील? “सामूहिक विकास से सामाजिक चेतना का विकास होता” यह बताओ क्या पूर्वकाल के मनुष्यों में सामाजिक चेतना नहीं थी? क्या वर्तमान की मृत मनुष्यता में अधिक सामाजिक चेतना है? “ट्रैडवाद परंपरावाद के नाम पर मुरझाई पत्तियों के संरक्षण का द्योतक है किन्तु नित नूतन पुष्पों के कुसुमित पल्लवित होने की परंपरा का संरक्षण,जो वास्तविक परंपरावाद है उसका मै पक्षधर हूं” मुरझाई पत्तियों का सरक्षण फिर भी सम्भव है किन्तु इन नवहिंदुओं का वाद तो वृक्ष और शाखाओं से अलग रहने पर ही अपनी मृतप्राय पत्तियों को बचाना चाहता हैं। यह वास्तविक परम्परवाद जिसे यह कह रहा है वह भी स्वयं को बचाने के लिए ही। स्पष्ट ही स्वयं को परम्परा का विरोधी कह देगा तो फिर स्वांग करने का मौका कहां मिलेगा? कुसुमित पल्लवित होने वाली परम्परा ? धर्मसम्मत ह्रासमान परंपराओं की रक्षा के लिए ही श्रीभगवान का अवतार होता है। उस स्थिति में तुम क्या कहोगे? कि मैं तो कुसूमित पल्लवित होने वाली वस्तुओं का संरक्षण करूंगा तुम मुरझाई पत्तियों को क्यों बचा रहे हो?
सत्य यह है कि तुम्हारी एक एक बात प्रमाणहीन, तर्कहीन ही सिद्ध हो रही है। न ही तुम्हारे तर्क नास्तिकों का सामना करने में दृढ़ हैं न ही आस्तिकों का। मन से कुछ भी अप्रमाणिक बना डालने को ही तुम “तर्क,दर्शन” आदि कह देते हो,बालक द्वारा निर्मित कागज के महल के समान! तुम्हारी ग्राम्य कथाओं में हमें कोई रुचि ही नहीं है,सद्पुरुषों के मन में क्षोभ न हो इसलिए इस विषय को और स्पष्ट किया जा रहा है –
ट्रैडवाड दूध को दूध पड़ी मक्खी के साथ पीने का सैद्धांतिक रूप है। यहां पर मक्खी है मध्यकालीन कुरीतियां। किंतु इन बाह्य कुरीतियों का सम्मिश्रण होने के पश्चात् इनको परंपरा बना कर आज परम्परावाद के नाम पर क्षद्म परम्परावाद को फैलाया जा रहा है। इसका वास्तविक परंपरावाद से कोई लेना देना नही है।
मध्यकाल में किसी कुरीति को शास्त्रवाद में मिला दिया गया, इस बात का कोई प्रमाण ही नहीं है। भूतकाल में प्रत्यक्ष व तन्मूलक प्रमाणों की गति है ही नहीं। शब्दप्रमाण से भूतकाल का यथार्थ ज्ञान हो सकता है। उस काल में जिन कुरीतियों का सम्मिश्रण बताया जा रहा है, उस विषय में कोई भी आप्तपुरुष या उसकी कृति उपलब्ध नहीं। होंगे भी कैसे, यह तो निन्दक का हवाई किला मात्र है।
निन्दक ने मध्यकाल में ही कथित कुरीतियों का सम्मिश्रण क्यों माना? जब उसके मत में कुरीतियाँ जुड़ना सम्भव है, तो फिर वह बौद्धों व जैनों के वर्चस्व के समय तथा अन्य कालों में भी कुरीतियाँ जुड़ना क्यों नहीं मानता है? निन्दक के मत में होना यह चाहिए कि कुरीतियाँ तो कभी भी जुड़ सकती हैं। परन्तु ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि ऐसे प्रलापी प्रामाणिक बात तो जानते नहीं, ये सब विधर्मियों द्वारा पोषित संस्थाओं के दास हैं, जिनका एकमात्र लक्ष्य है परम्परा की निन्दा। अन्यथा जो व्यक्ति हिन्दू धर्म की किसी परम्परा से नहीं है और न ही किसी सिद्धान्त को मानता है, वह क्यों इतना चिन्तित है?
“वास्तविक परम्परावाद” का स्वरूप अवधारित किये बिना ऐसे प्रलाप करना स्वयं में महान् दोष है। उद्देश मात्र से कुछ नहीं हो जाता। लक्षण व परीक्षा कहाँ हैं?
निन्दक द्वारा कथित “वास्तविक परम्परावाद” तथा “मध्यकालीन कुरीतियों” में भेद पता करना असम्भव है। जितने अंश को वह “वास्तविक परम्परावाद” मानता है, उसकी प्रमा तो तभी सम्भव है, जब परम्परा के प्रारम्भिक बिन्दु का उसे यथार्थ अनुभव हो चुका हो। परन्तु हमारे श्रीकुमारिलभट्ट आदि महान् आचार्यों ने अकाट्य प्रमाणों व युक्तियों से वेदों का अनादित्व तथा स्मृतियों में कही गई बातों का भी अनादित्व सिद्ध किया है। अनादि होने से काल का प्रारम्भिक बिन्दु तो है नहीं, फिर निन्दक भेद कैसे पता करेगा?
कहा जा सकता है कि हर द्वापरयुग के अन्त में व्यास जी वेदों का संकलन करते हैं, अतः उसे एक बिन्दु मान सकते हैं। इसपर हम कहते हैं कि ५००० से अधिक वर्ष पूर्व जाने का सामर्थ्य है, तो जाओ। परन्तु यह सर्वथा असम्भव है।
अब अनुमान प्रमाण से अपना पक्ष सिद्ध करते हैं।
प्रतिज्ञा– निन्दक जिन विधियों-निषेधों को मध्यकालीन कुरीति कहता है, पूर्वकाल उनसे रहित था, ऐसा नहीं है।
[पूर्वकाल– अनादिकाल से लेकर अभी से ठीक पहले तक।]
हेतु– पूर्वकाल के काल होने से।
उदाहरण– जैसे वर्तमानकाल काल है। वर्तमानकाल उन सब विधि-निषेध से रहित है, ऐसा नहीं है।
उपनय– पूर्वकाल में वर्तमानकालवत् कालत्व सिद्ध है।
निगमन– तस्मात् पूर्वकाल उन विधियों-निषेधों से रहित था, ऐसा नहीं है।
तर्क– यदि पूर्वकाल उन विधियों-निषेधों से शून्य होता, तो पूर्वकाल काल ही न होता।
■ पूर्वपक्ष
आपके बताये हेतु में सव्यभिचार हेत्वाभास है। किसी पुरुष द्वारा किसी काल में लिखित ग्रन्थ उसके पूर्व के काल में नहीं होता। ऐसे तो आपके हेतु से कहा जा सकता है, “पूर्वकाल महाभारतरहित था, ऐसा नहीं है। काल होने से। वर्तमानकालवत्।” जो कि मिथ्या है, क्योंकि महाभारत तो व्यासजी द्वारा रचने के पूर्वकाल में नहीं थी, यह आप भी मानते हैं।
■ उत्तरपक्ष
नहीं। हेतु का व्यभिचार नहीं होता। तुमने पक्ष व साध्य धर्म को ठीक से समझ लिया होता, तो यह पूर्वपक्ष ही न करते। किसी पक्ष में साध्य किसी एक धर्म की सिद्धि के लिए बताये गए हेतु के विरोध में अन्धे होकर उसी पक्ष के किसी अन्य अविरोधी धर्म को लेकर हेत्वाभास दिखाकर अपनी अज्ञता का परिचय दे रहे हो।
सव्यभिचार हेत्वाभास इस प्रकार होता है कि वादी किसी पक्ष में कोई धर्म होना किसी हेतु से सिद्ध करना चाहता है, पर जो धर्म हेतु में बताता है, वह धर्म किसी अन्य पक्ष में भी पाया जाता है, जो कि साध्य धर्म से विपरीत धर्म वाला होता है।
उदाहरणतः, नैयायिकों के मतानुसार, पक्ष हो आत्मा, साध्य हो आत्मा का नित्यत्व, हेतु हो स्पर्श वाला न होना, तो यह हेतु व्यभिचारी है, क्योंकि बुद्धि नामक पक्ष भी स्पर्श वाला तो नहीं होता, परन्तु अनित्य होता है। अतः स्पर्श वाला न होना नित्य-अनित्य का हेतु नहीं हो सकता। यहाँ दो अलग-अलग पक्षों [आत्मा व बुद्धि] में एक ही समान धर्म [स्पर्श वाला न होना] होने पर भी विपरीत धर्म [नित्यत्व-अनित्यत्व] है, अतः व्याप्य-व्यापक भाव नहीं हो सकता।
परन्तु हमारे कथन में हेत्वाभास दिखाने के लिए तुम एक ही पक्ष [पूर्वकाल] में कालत्व होने के हेतु से उक्त विधियों-निषेधों से रहित न होना तथा महाभारत रहित होना रूपी दो सर्वथा भिन्न धर्म बता रहे हो, ना कि विपरीत धर्म। पूर्वकाल में महाभारत के राहित्य से पूर्वकाल में उक्त विधि-निषेधराहित्य न होने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हमारे हेतु में व्यभिचार तो तब हो, जब किसी काल का उन विधियों-निषेधों से रहित होना सिद्ध होता हो। परन्तु यह तो हो नहीं सकता।
“पूर्वकाल महाभारतरहित था, ऐसा नहीं है। काल होने से। वर्तमानकालवत्।” इस अनुमान को इसलिए मिथ्या कहते हो, क्योंकि इसके विरुद्ध शास्त्रप्रमाण तुम्हारे पास हैं। परन्तु पूर्वकाल में उन विधियों-निषेधों का राहित्य तो तुम बता नहीं सकते, क्योंकि ऐसा कोई प्रमाण है ही नहीं, जिससे किसी काल में उक्त राहित्य सिद्ध हो सके।
विचारों को शिरोधार्य? तनिक ठहरिए! कितने परंपरावादी बाल विवाहित हैं? अगर बाल विवाह का कोई समर्थन करता है तो करके भी दिखाए, और अगर आपने इस प्रथा का अब परित्याग कर दिया है तो फिर आप अपने ही परंपरावाद के सगे नही हुए।
तुम्हारा कथन ही अप्रामाणिक है। सम्पूर्ण भारतवर्ष में सर्वदेश-सर्वकाल में तुम्हारी गति नहीं है, अतः तुम यह पता नहीं कर सकते कि कितने शास्त्रवादी बालविवाहित हैं और कितने नहीं। अतः इस विषय पर तुम्हारा कोई भी कथन नहीं बन सकता है।
प्रश्न उठता है कि तुम्हारे मत में ‘बालविवाह’ उचित है या अनुचित? यदि उचित है, तो तुम इसपर आपत्ति कैसे कर रहे हो? यदि अनुचित है, तो “अगर बाल विवाह का कोई समर्थन करता है तो करके भी दिखाए” से हमें बालविवाह करने को कैसे कह रहे हो? निश्चित ही तुम प्रवञ्चक हो, जो स्वमत में हमारा हित नहीं चाहते, अपितु अहित चाहते हो। हमारे द्वारा कहे गए विधि निषेध तो हित के लिए ही होते हैं। किन्तु तुम्हारे मत में जो अहित का हेतु है,उसमें हमें प्रवृत्त करवाना चाहते हो? ऐसा व्यक्ति किस मुँह से धर्म की बात करता है? धिक् !
कदाचिद् दुर्जनतोष न्याय से मान लें कि वर्तमान में अधिकांश शास्त्रवादी बालविवाहित नहीं हैं, तो भी यह दूषण नहीं, अपितु भूषण ही है। हम इतने सत्यनिष्ठ हैं कि स्वयं में दोष आ जाने पर भी शास्त्रप्रमाण से सिद्ध विवाह संस्कार की उचित आयु का तिरस्कार नहीं करते हैं, उसे सर्वथा उचित ही कहते हैं। वहीं तुम तो इतने बड़े धूर्त हो कि जो तुम्हें कष्टप्रद होता है, उसमें प्रमाणभूत वस्तु को निर्लज्जता से बिना किसी आधार के अप्रमाण घोषित कर देते हो ।
हमने तो बालविवाह का परित्याग नहीं किया। परन्तु दुर्जनतोष न्याय से मान लो कि कर दिया, तो भी जो आक्षेप तुमने किया है, वह टिकता नहीं। किसी की प्रवृत्ति या निवृत्ति से किसी प्रमाण का प्रामाण्य निर्धारित नहीं होता। मनुष्य तो जन्म लेता है और मरता है, परन्तु प्रमाण तो अनादि काल से है। मनुष्य के दोष से प्रमाणों में दोष नहीं आ सकता।
जो तथाकथित “दोष” तुम बालविवाह के उदाहरण से हमारे शास्त्रवाद में बता रहे हो, वह तो हम प्रत्यक्ष व तन्मूलक प्रमाणों में भी बता सकते हैं। कोई पुरुष प्रत्यक्ष प्रमाण से १०० एकड़ भूमि देखता है, परन्तु वह उस भूमि का स्वामी नहीं बन सकता, तो क्या उस १०० एकड़ भूमि के होने में जो भी प्रमाण है वह अप्रमाण हो जाएगा?
वस्तुतः शास्त्र प्रमा का करण है, क्रिया का नहीं। अज्ञात ज्ञापक है, अकृत कारक नहीं। शास्त्र से ज्ञान लेकर मनुष्य प्रवृत्त व निवृत्त होते हैं। मनुष्य की प्रवृत्ति या निवृत्ति के परिणामस्वरूप शास्त्र काम नहीं करता। जैसे प्रत्यक्ष आदि प्रमाण हैं, वैसे ही शास्त्र भी प्रमाण है। जो दोष इसपर लगाओगे, वह पलटकर पहले तो प्रत्यक्ष आदि पर ही लगेगा ।
“सनातन धर्म की विविध परंपरा है इनमे रुद्र, ब्रह्म, श्री, पुष्टि, गौडीय, तांत्रिक वैष्णव, सहजिया,सिद्धांत शैव,कश्मीरी शैव, कापालिक, नाथ , सिद्ध, औघड़ ,वीर शैव, जंगम,लिङ्गायत्, तंत्रमार्गी, शाक्त, त्रिक, कौलाचार, वामाचार, इत्यादि अनेकानेक मत संप्रदाय भारत धरा पर व्याप्त है, इनमे आपस में दार्शनिक और सैद्धांतिक धरातल पर बहुत भेद है । तो अगर आप परंपरावाद के समर्थक है तो परस्परानुकूलता के साथ पृथक पृथक शाखा आच्छादित निष्पक्ष सम्प्रदाय निर्पेक्ष रक्षा करनी होगी, उनकी सबकी मान्यताएं सुनिश्चित करनी होगी। लेकिन छद्म परंपरावादी केवल शांकर मताबलंबी होकर, और राजनैतिक दृष्टि से केवल करपात्री महाराज और वर्तमान कलयुग प्रह्लाद श्री पूरी शंकराचार्य जी के विचारो द्वारा आदेशित है। अत: यह स्पष्ट है की ये समूचे हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व नही करते। इन्ही दो महाराजो के विचारो को शिरोधार्य किए हुए ये अहंकारग्रस्त मनुष्य नवजवान बंधुओ को मिथ्याहङ्कार का झुनझुना पकड़ा कर बहला फुसलाकर कर यह फैलवाते है।”
तुम सत्य के लिए लेखन करते हो या केवल मान्यताओं के आधार पर, चाहे वे सत्य हों या ना हों?
यदि कहो कि तुम्हें सत्य से कोई लेना देना ही नहीं, तब तो तुम जैसे मूढ़ के खण्डन में हमें कोई रुचि नहीं। परन्तु यदि कहो कि तुम सत्यनिष्ठ हो, तो तुम्हें न्यायपूर्वक परीक्षण अवश्य करना होगा। तो बताओ, इन विभिन्न मतों तथा उनके द्वारा मान्य ‘सिद्धान्तों’ के विषय में तुम्हारा ज्ञान प्रमा है या अप्रमा?
यदि कहो कि अप्रमा है, तो इस विषय तुम्हारा कोई भी कथन नहीं बन सकता। तुम स्वयं अपने कथन का खण्डन कर बैठे।
यदि कहो कि प्रमा है, तो फिर तुमने जो कहा, “इनमें आपस में दार्शनिक और सैद्धान्तिक धरातल पर बहुत भेद है” यह कथन नहीं बन सकता। प्रमा होनेपर आपस में ऐसा भेद असम्भव है। “यह वस्तु रस्सी है और सर्प है” ऐसा कथन संशय का द्योतक है। इसी प्रकार तुमने जो कहा, वह भी संशय का ही द्योतक है। संशय प्रमा नहीं अप्रमा– अयथार्थ अनुभव होता है।
उदाहरणतः मीमांसकों के मत में कर्म स्वयं ही फल देता है। परन्तु वेदान्त दर्शन ईश्वर को फलदाता कहता है। तुम किसे सत्य मानते हो? “सबकी मान्यताएं सुनिश्चित करनी होगी” इससे तो यह स्पष्ट है कि तुम कर्म को भी फलदाता कहोगे और तथा ईश्वर को भी। परन्तु यह तो संशय ही है, इसमें लेशमात्र भी प्रामाणिकता नहीं। वस्तुतः तुम्हारे मत में धर्म अप्रामाणिक ही है, यह स्पष्ट है। प्रमाण तत्त्व से तुम्हारा परिचय ही नहीं हुआ है। केवल मान्यता मात्र ही तुम्हारे यहाँ धर्म है। फिर तो तुम वाद, जल्प, वितण्डा के पात्र ही नहीं हो। तुम अनर्गल प्रलाप में ही निपुण हो।
यह भी असत्य है कि शास्त्रवादी लोग केवल शंकराचार्य परम्परा को ही मानते हैं। तन्त्रमार्गी लोग परम्परावादी या शास्त्रवादी नहीं हैं क्या? वस्तुतः तुम्हें कुछ पता ही नहीं। सभी सम्प्रदाय अपनी-अपनी बात करते ही हैं। तन्त्र की परम्परा देखो। कामाख्या, तारापीठ आदि तन्त्र के गढ़ों में तो कोई शंकराचार्य मठ नहीं हैं। वहाँ स्वसम्प्रदाय के प्रति कट्टरता देख लो। हमारे सामने तो इतना प्रलाप कर रहे हो, जिसका लोककल्याणार्थ हम उत्तर भी दे रहे हैं। उन तन्त्रानुयायियों के सामने तो कुछ बोलने के भी नहीं हो।
अब इस मतभेद को समझाते हैं।
कई लोग सीधे ही शुद्ध श्रौत-स्मार्त मार्ग पर चलने में समर्थ नहीं होते हैं। जन्म लेनेवाला प्राणी सीधे अद्वैत में घुस जाए, यह सम्भव नहीं। इसी कारण इतने भिन्न-भिन्न मत, पन्थ, सम्प्रदाय बनाए गए हैं। इसके तो लोक में प्रचुर उदाहरण मिल जाएंगे। ।
बच्चा सीधे ही देवनागरी में शुद्ध संस्कृत नहीं लिख सकता। पहले तो उसे खुला छोड़ देते हैं, वह पुस्तक या स्लेट पर कुछ भी आड़ी-टेढ़ी आकृतियाँ बनाता रहता है। उनका कोई अर्थ नहीं होता, परन्तु वे सर्वथा निष्प्रयोजन भी नहीं। उनका अभ्यास होना आवश्यक है। इसी प्रकार वर्णमाला का भी कोई अर्थ तो नहीं निकलता, परन्तु क्या वह व्यर्थ है? नहीं, वर्णमाला सीखना तो अत्यन्त आवश्यक है।
एक अच्छा उदाहरण है, सन्तानोत्पत्ति। कोई भी अच्छे हिन्दू माता-पिता अपने बच्चे को नहीं बताते हैं कि उसे उत्पन्न कैसे किया गया था। कई माता-पिता कह देते हैं कि भगवान् बच्चों को धरती पर भेजते हैं। बड़ा होनेपर वह व्यक्ति ग्रन्थों से तथा अपने मित्रों से मैथुन प्रक्रिया को जान लेता है। अब अपरिपक्व बच्चे को मैथुन प्रक्रिया बता दें, तो अनर्थ ही होगा।
इसी प्रकार कई सम्प्रदाय हैं। उनमें से परमार्थतः अद्वैत सर्वोच्च है तथा व्यवहारतः शुद्ध श्रौत-स्मार्त मार्ग सर्वोच्च है। परन्तु भिन्न भिन्न प्रकार के अधिकारी दृष्टिगोचर होते हैं, इसी कारण कुछ तान्त्रिक मार्ग हैं एवं विशिष्टाद्वैत, द्वैत आदि मत हैं।
चूँकि तुम दर्शन का ‘क ख ग’ भी नहीं जानते, अतः प्रस्थानभेद तो समझने से रहे। हमें तुम्हें समझाने में रुचि भी नहीं और समझाना भी चाहें, तो अध्यापन में कई वर्ष लग जाते हैं। संक्षेप में इतना जानो कि मुनि सर्वज्ञकल्प होते हैं, इसलिये उनको भ्रान्त नहीं कहा जा सकता। किन्तु बाह्य विषयों में आसक्त पुरुषों का आपाततः परम पुरुषार्थ में प्रवेश सम्भव नहीं है। अतः उनके नास्तिक्य के वारण के लिये मुनियों ने इस प्रकार प्रस्थानभेद का प्रदर्शन किया है। साधारण जनता अविचारपूर्वक कल्पना कर लेती है कि वेदविरोधी अर्थ में भी उन मुनियों का तात्पर्य है और उसी का अनुकरण करने लगती है। वे लोग उन मुनियों के हार्दिक अभिप्राय को समझने का प्रयास नहीं करते तथा ऐसे मनुष्य अनेक मार्गों के अनुयायी हो जाते हैं।
वेद स्वयं “नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय” कहकर इस बात की पुष्टि करते हैं कि अन्ततोगत्वा एक ही मार्ग है, उससे भिन्न कोई भी मार्ग नहीं है। तात्पर्य यह कि अन्ततः किसी एक मार्ग को ही पूर्णतः सत्य कहना पड़ेगा, घालमेल नहीं चल सकती। अब यदि तुम इस श्रुति का खण्डन करते हो, तो फिर पाखण्डी ही हो। ऐसा व्यक्ति धर्म व ब्रह्म की बात न करे।कोई एक दर्शन सर्वोच्च होगा ही। इसका विरोध करने वाला तो जगत् की विचित्रता का विरोध करता है। तुम्हारे ही शरीर में हाथ की अंगुलियों को देखो। क्या मध्यमा सबसे बड़ी नहीं? क्या सिर सबसे ऊपर नहीं? क्या तुम्हारे पिता तुमसे बड़े नहीं? क्या बबूल व चन्दन में मूल्यभेद नहीं? कल से तुम कह सकते हो, “दूध तो भैंस का पी रहे हैं, फिर गाय माता क्यों है? अब से गाय माता नहीं, अब से भैंस ही माता है।” परन्तु किसी भी आस्तिक के लिए तुम्हारा यह गौ-विरोध असह्य ही होगा।
इसी प्रकार ब्राह्मण सभी वर्णों में श्रेष्ठ है, ब्राह्मण द्वारा दण्ड संन्यास सभी आश्रमों में श्रेष्ठ है, केवलाद्वैत सब दर्शनों का शिरोमणि है। चारों आम्नाय मठ मठाम्नाय उपनिषत् में वर्णित हैं, अतः वेदोक्त वस्तु हैं। अनेकों मुख्य पुराणों द्वारा शंकर का अवतार,शिव का जगद्गुरूत्व एवं शिव के ही वशिष्ठ,व्यास आदि नाम सिद्ध हैं। फिर उनपर आसीन आचार्य सर्वोच्च आचार्य या कहें सार्वभौम जगद्गुरु क्यों नहीं होंगे? सार्वभौम जगद्गुरु सम्पूर्ण हिन्दू धर्म का ही प्रतिनिधि होता है।
रही बात हमारे द्वारा अन्य मतों को गौण मानने की। तो इसपर हम कहते हैं कि वेद में श्येन नामक याग है, जिसके फल को अनर्थ मानकर श्येनयाग के विधायक वाक्यों को धर्म का वाचक नहीं माना गया। स्वयं वेद में भी कुछ बातें अनर्थकारी हैं। जिसे जैसी कामना हो, वैसा मार्ग पकड़ ले। परन्तु इससे उन वेदवाक्यों का प्रामाण्य बाधित नहीं हो सकता। इसी प्रकार कोई आस्तिक किसी एक दर्शन का कट्टर समर्थक हो, तो भी अन्य दर्शनों को मान्य विद्यास्थान मानने से वह मना नहीं कर सकता। फिर भी अद्वैत की सर्वोच्चता, सर्वसहिष्णुता का बाध नहीं होता। हमारा तो कार्य ही है “सर्वसिद्धान्तसमन्वय” यह करपात्री जी का ही उपदेश है। “त्रिपुंड्र धारण करने वाले अवैदिक हैं, ऊर्ध्वपुंड्र धारण करने वाले अवैदिक हैं” ऐसे आक्षेप हमारे यहां नहीं प्राप्त होते दोनों का ही सम्मान है। अपने इष्ट के अतिरिक्त अन्य देवताओं को नीचा दिखाना या अपशब्द कहना भी हमारे सिद्धान्त में नहीं होता, समन्वय है। सहस्त्रों वर्षों से स्मार्त ही सम्पूर्ण भारतवर्ष में वैदिक कर्मकाण्डो को संचालित करते रहे हैं। अत: उनके विरुद्ध विषवमन करना तुम्हें कुदृष्टि से पीड़ित ही सिद्ध करता है।।
इति
नोट:- यह लेख दिनाङ्क 7.9.2021 को लिखा गया है। यदि उसके प्रत्युत्तर में कोई प्रमाणों से सुसज्जित लेख आता है जिसमें ठीक हमारी भांति एक एक पंक्ति का खंडन किया हो तो उसका उत्तर दिनांक 13/9/2021 के पश्चात दे दिया जाएगा। जिसको शास्त्रवाद, परंपरावाद से समस्या है,हम उन्हें लेखनी उठाने का प्रोत्साहन देते हैं और कहते हैं कि प्रमाणों के आधार पर कुछ खण्डन करें इससे शास्त्रवादियों का ही पक्ष दृढ़ होगा। इति
तर्करत्नार्णव
किंखण्डनन्ते प्रकरोभि यस्मात्,प्रत्यक्षरं खण्डितमेव यस्मात्। अखण्डितं यत्स्वत् एव सर्वं,तत्खण्डनंको मनसापि कुर्यात्?
आपके लेख का अक्षर-अक्षर खण्डित है। खण्डित का क्या खण्डन? हमारे शास्त्रीय सिद्धान्त सर्वथा अखण्डित है,मन से भी इनके खण्डन की बात कोई नहीं सोच सकता।।
लेख में नवीन भाग जोड़ने का कारण यह है कि हमारे द्वारा दिनाङ्क 7.9.2021 को लेख लिखा गया था जिसका कुछ उत्तर देने का प्रयास दिनाङ्क 12.9.2021 को किया गया है। लेखक ने पूर्वपक्ष लिख डालने की हमारी शैली का अनुकरण तो किया,किन्तु अच्छा होता यदि उत्तर देने की शैली का भी अनुकरण किया जाता। अनेकों स्थानों पर तो आपको पूर्वपक्ष क्या है और उत्तरपक्ष पर क्या वार्ता हो रही है,यह ही भान नहीं होगा। लेख लिखने वाला व्यक्ति अपने मन से एक नया ही निर्मित कर लेता है और उसका भी कुछ अप्रासंगिक उत्तर देने का प्रयास करता है।अस्तु,अब जितना भी यह फटे हुए वस्त्र में अलग से कपड़ा लगाने का प्रयास है ,उसकी समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है।
यद्यपि लेख केवल करपात्री महाराज के विचार के प्रस्तुतिकरण पर था, पुन:भी कुछ पूर्वाग्रह से ग्रस्त मनुष्यों को ऐसा लगा कि यह करपात्री महाराज पर प्रहार है। और तो और उनको यह लगने लगा कि यह स्मार्त्त परंपरा पर सैद्धांतिक प्रहार है। अपने इसी कल्पित विचारों को लेखक के साथ जोड़कर कुछ खण्डन जैसा लिख दिया और मुझ पर मिथ्याभियोग लगाया : यहां_पढ़े। भले ही इन्होंने विषयांतर करके बात की हो, पर उसकी भी समीक्षा मैं करने का प्रयत्न करता हूँ। यहां मैं कहीं कहीं अपने विचार अवश्य प्रस्तुत करूंगा। पूर्वपक्षी के वक्तव्य नीले रंग में एवं समीक्षा काले रंग में अंकित हैं, पुरी शंकराचार्य के वीडियो अंश लाल रंग में अंकित किए गए है।
यह कहना कि लेख केवल करपात्री जी के विचार के प्रस्तुतिकरण पर था” और पुन:स्वयं ही अपने लेख में अंश मिला देना, प्रस्तुतिकरण के स्थान पर स्वयं के ही वक्तव्य दे देना, अर्थान्तर कर देना” स्पष्ट रूप से “वदतो-व्याघात्” है। यह कथन भी नहीं बन सकता कि “पूर्वाग्रह से ग्रसित लोगो को यह लगने लगा कि यह स्मार्त परम्परा पर प्रहार है” क्योंकि पूरे लेख में शांकर मत आदि का उल्लेख तुमने अनेकों बार किया है, पूर्वाग्रह से ग्रसित तुम सिद्ध हुए। “विषयांतर”? अनेकों बार स्पष्ट किया जा चुका है कि वाद में उद्देश मात्र से कुछ नहीं होता ,प्रमाण भी देने होते हैं। विषयांतर का कोई प्रमाण? नहीं! हमने तो प्रत्येक पक्ष को पंक्तिवत लिख कर उत्तर दिया है। यह विषयांतर का आरोप हमारे पक्ष पर इसलिए ही लगाया गया है क्योंकि इससे इनके द्वारा किए हुए विषयांतर ढक सकें।
सही है, अखण्ड भारतीय ज्ञान, ध्यान, भक्ति योगादि की परंपरा के स्त्रोत शास्त्र और ऋषि मुनि हैं, और इन विधाओं के प्रवर्तक और वाहक ही धर्म के वैश्विक प्रतीक हैं, कोई मध्यकालीन मान्यता नहीं जिसको धर्म के साथ चिपकाया जाय। ऐसे में धर्म के वैश्विक प्रतीकों का जब चीरहरण होता है तो इससे धर्म की ही हानि होती है। फलस्वरूप धर्म के वैश्विक गुरुओं, जिनके विचार और आख्यान मठों के बाहर भी सार्वभौम सर्वत्रगम सर्वहृद् रमण करते हैं; जब उन साधुजनों पर सीमा का अतिक्रमण करके अनर्गल आरोप और गाली गलौच होने लगता है, तब हमे भी प्रतिपक्षभावनार्थ कारणात् लेखनी उठानी पड़ती है, सो मैंने भी उठाया, परंतु धर्म के डाकिया ठेकेदारों को यह रास नहीं आया। आप कहते हैं कि मैं संशय विपर्यय से ग्रसित हूँ, अत: मेरे यथार्थ ज्ञान पर प्रश्नचिन्ह उठता है, किन्तु आपको यह विदित नहीं है कि बिना अनुभूति के यथार्थ ज्ञान थोथला है। मैंने अपने कुछ अनुभव ही प्रकट किए थे, उनकी अनुभूति ही मेरे ज्ञान का कारणभूत प्रमाण है। केवल महल में बैठे रहने से नहीं, घने जंगल में अंधेरे की अनुभूति के बाद ही उसकी यथार्थ व्याख्या संभव है, परोक्षापरोक्षघटित अनुभूतजन्य विचारों का प्रस्फुटीकरण ही यथार्थ ज्ञान है।
साथ ही प्रारंभ में ही आपने व्यक्ति केन्द्रित कुतर्क की पृष्ठभूमि बना ली, जिसका पोषण आप व्यक्तिगताक्षेपों द्वारा आगे के लेख में करते हुए प्रतीत होते हैं।।
मध्यकालीन मान्यता सिद्ध होना अभी साध्य कोटि में है, उसे उदाहरण या हेतु के रूप में प्रस्तुत किया जाना दोष है। लेखक ने एक भी प्रमाण नहीं दिया कि शास्त्रों के सिद्धान्त मध्यकालीन कैसे? हमारे द्वारा पूछे गए “इन सभी का आधार क्या है? का उत्तर भी लेखक ने नहीं दिया। साथ ही यह भी हमारे पूर्व लेख में स्पष्ट कहा जा चुका है कि “मान्यता के आधार पर चलते हो या प्रमाणों के आधार पर?” इसका अर्थ यह ही है कि हमें मान्यताओं से कुछ लेना देना है ही नहीं,शास्त्र जो कहता है तद्समर्थित मान्यताएं ही हमें स्वीकार है। “व्यक्ति केन्द्रित कुतर्क की पृष्ठभूमि , व्यक्तिगताक्षेपों ” यह तो हमने किए ही नहीं? यदि करपात्री जी के सिद्धांतों का स्वरूप दिखाने के स्थान पर यह ही करणीय होता तो ऐसे कितने ही तुम्हारे ट्वीट हैं जो स्पष्टत: अद्वैत और शांकरों के विरुद्ध हैं। उतने से ही तुम द्वेषी सिद्ध हो सकते थे । हमारे द्वारा इनके कथनों में संशय, विरोध आदि दिखाए जाने के उपरान्त प्रश्न किया गया था कि क्या ऐसा व्यक्ति यथार्थ ज्ञान का स्रोत हो सकता है? उत्तर में यह फेसबुक व्हाट्सएप पर आई खोखली बातें दोहराने लग जाते हैं कि “बिना अनुभव के यथार्थ ज्ञान खोखला है, केवल महल में बैठे नहीं घने जंगल की अनुभूति के बाद ही यथार्थ ज्ञान की व्याख्या सम्भव है”। यह हास्यासपद तो है ही,कैसे? वह हम आगे स्पष्ट करेंगे किन्तु ज्ञान को “यथार्थ ज्ञान” मानने के उपरान्त ही तुम उसे ‘बिना अनुभव वाला ‘ व्याख्यारहित ‘ कह रहे हो,अनुभव से ज्ञान की यथार्थता पर कुछ प्रभाव पड़ता नहीं। यदि अनुभव को प्रमाण माने तो जंगल में निवास करने वाले बौद्ध-आर्हत-सांख्य-लोकायत का अनुभव भिन्न भिन्न है, ऐसे में ज्ञान के अनुभवजन्य या पुस्तकीय होने का प्रश्न ही व्यर्थ है,ज्ञान की यथार्थता-अयथार्तता पर ही प्रश्न होना चाहिए। व्यास जी को ब्रह्म के विषय में “शास्त्रयोनित्वात्” के स्थान पर “अनुभवयोनित्वात्” लिखना चाहिए था।
वास्तव में वन जाने जैसी बातों को कहने की यहां आवश्यकता ही नहीं थी। या तो लेखक ने इतना स्पष्ट भाव नहीं समझा है,या तो वह पृष्ठ भरने के लिए कुछ भी लिखना चाहता है(जैसा करते हुए लेखक अनेक स्थलों पर दृष्ट हुआ है)। यथार्थ ज्ञान क्या है? स्मृति में विद्यमान हो तो “अवाधितार्थविषयकज्ञानत्वम् ।” और स्मृति में अविद्यमान हो तो “अनधिगतअवाधितार्थविषयकज्ञानत्वम्” उदाहरण के लिए “अयं घट:”।
यह घड़ा है, यह विषय अबाधित है इसलिए यथार्थ ज्ञान है, तुम इस प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने जंगल जाओ!!,हमें क्या। वैसे ही यहां प्रमा का प्रसंग है “करपात्री जी के वाक्य” उसपर लेखक का संशय से ग्रसित होना,स्वयं के वाक्य को मिला डालना उसके ज्ञान की अयथार्थता को प्रकट करता है। ऊपर से व्यवहारिक यथार्थ ज्ञान को सीधे ब्रह्मज्ञान ही समझ लेने से दर्शनशून्यता भी दृष्ट है।
व्यक्ति केन्द्रित कुतर्क की नाव पर सवार आप हेत्वान्तर का गीत गाते हैं। किंतु आपको प्रस्तुतिकरण की शैली नहीं पता है, उद्धृत वचनों के अंतराल में लेखक द्वारा लघु समीक्षा/आशय स्पष्टीकरण देना पड़ता है, तात्पर्य मर्मादि बताना पड़ता है। जैसा कि दृष्टिगोचर है, करपात्ररत्नसमुच्चयांश में भी (जहां मैने ट्रैड वाद की चर्चा नहीं की है) मैंने यथासंभव निष्पक्ष रहने का प्रयास किया है। इन वचनों में भी मैंने करपात्री महाराज की निंदा या स्तुति तो की नहीं। अगर मेरे द्वारा बीच बीच में सीधे सीधे निष्कर्ष रूपी वक्तव्य आपको निंदा/स्तुति लगते हैं तो यह आपका भ्रम मात्र है; प्राक्कथनानुसार आलेखविस्तारपर्यन्त मै दृढ़-प्रतिज्ञ रहा, जहाँ जहाँ मैने महाराज जी के वचन सप्रमाण उद्धृत किए हैं वहाँ मेरा कुछ नहीं है। यहाँ किसी भी स्थान पर करपात्री महाराज के शब्दों के साथ छेड़छाड़ नहीं हुई है। देखते हैं आगे आपने कुछ प्रमाण भी प्रस्तुत किया है या बस हवा में बात की है। अभी तक आपने मात्र व्यक्ति केन्द्रित कुतर्क किया है। इसके माध्यम से आपने पाठक के मन में पूर्वाग्रह स्थापित किया है, जिससे कोरी भावुकता की दृष्टि से लोगों को वश में किया जा सके।
हेतवन्तर का प्रयोग करना कुतर्क नहीं अपितु विशुद्ध तर्क ही है।पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञातार्थापनयनं प्रतिज्ञासंन्यासः , अविशेषोक्ते हेतौ प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतो हेत्वन्तरम् यह तो स्पष्ट तर्कशास्त्र के वचन हैं। लेख तो वेदवाणी के समान अपौरुषेय है नहीं जो उसपर प्रश्न न खड़े किए जाएं। अल्पज्ञ जीव द्वारा निर्मित ही यह लेख है, वक्ता पर भी कथन का प्रामाण्य निर्भर करता है। दृष्टिदोष से पीड़ित व्यक्ति कृष्णघट को श्वेत कहे तो वह अप्रमाण्य ही है। ऐसे ही हेतु के अभाव में पड़ा व्यक्ति कोई कथन कहे तो उसकी परीक्षा भी अनिवार्य ही है। यदि समीक्षा टिप्पणी ही करनी थी तो स्पष्ट कर देना चाहिए था। ठीक है यदि आप इस उत्तर को “व्यक्ति केन्द्रित” भी माने तो यह उत्तर वैध है,दिए गए चार संदर्भों में से एक भी सन्दर्भ का स्पष्टीकरण आपके द्वारा नहीं दिया गया है। साथ ही सज्जनों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इन्होंने अपने पुराने लेख में नए हेतु जोड़े गए हैं और अनेक परिवर्तन भी किए हैं। यह ही तो हेतवान्तर दोष है, जिससे वादी को तत्क्षण निगृहीत घोषित कर दिया जाता है। इनके पूर्व में दिए गए हेतु पर्याप्त न थे ,इस कारण नवीन हेतु का प्रयोग करना पड़ा यहीं पर यह शिष्टों के अनुसार वाद में निगृहीत हो गए।हमारे लेख में तो हमने एक अल्पविराम तक का परिवर्तन नहीं किया है। सम्भवत: प्रस्तुतिकरण की विधा तुम्हे ज्ञात नहीं है, यदि तुम्हे आशय,समीक्षा ही देनी थी तो वह स्पष्ट करना चाहिए था । यह लिखने का क्या तात्पर्य था कि “”अत: बिना स्तुति और निंदा किए,मैं महाराज जी कुछ अनसुने विचारों को प्रस्तुत कर रहा हूं”। निंदा स्तुति में भी निष्कर्ष रूपी गुणधर्म रहता ही है। “महाराज जी के वचन सप्रमाण उद्धृत किए हैं वहाँ मेरा कुछ नहीं है।” ऐसा कथन भी नहीं बन सकता क्योंकि जो जो संदर्भ हमारे द्वारा दिए गए हैं कि यह करपात्री जी के विचारों में नहीं है ,उनके उत्तर तुमने नहीं दिए हैं। लेखक हमारे ऊपर “कोरी भावुकता” का चिन्ह लगाता है, वास्तविकता यह है कि जो जो दोष लेखक के लेख में हैं,उन्हें वह पुन:-पुन: हमारे पक्ष में प्रदर्शित करने का विफल प्रयास करता है,जिससे कि स्वयं उन दोषों से बच सके। पाठक दोनों लेखों को पढ़कर देख सकते हैं कि लेखक का तो पूरा ही लेख ही भावुकता का परिणाम है। पूर्वाग्रह से ग्रसित लोगों के लिए ही हमारा लेख है, न कि किसी को पूर्वाग्रही बनाने में।।
अत: अभी तक जो भी तर्क लेखक को अल्पप्रतिज्ञ, निगृहीत सिद्ध करने में दिए गए थे वह वैसे के वैसे ही हैं। बिना उत्तर के भी कोई व्यक्ति पढ़े तो स्पष्ट है कि लेखक ने कहीं भी उनका वारण नहीं किया है। लेख के प्रारम्भ में ही लचर स्थिति स्पष्ट है।
अगला आक्षेप यह लगाया गया की लेखक ने मनमानी व्याख्या की है। सर्वप्रथम मैं आपको यह बताना चाहूंगा कि पहले प्रमेय प्रस्तुत किया जाता है पुन:उसके प्रमाण दिए जाते हैं। यथा मैंने पहले यह प्रमेय रूपी वक्तव्य रखा कि करपात्री महाराज शूद्र के प्रवेश के विरोध में थे। पुन:इससे संबंधित अष्ट प्रमाण प्रस्तुत किए, जो वक्तव्य को सिद्ध करने हेतु पर्याप्त हैं। करपात्री महाराज के उद्धृत वक्तव्यों (जिनको मैने हाईलाइट किया है) में किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं हुई। किन्तु आपने व्युत्पतिशास्त्र कुतर्क का सहारा ले मूलार्थ विषयान्तर कर एक शब्द “शूद्र” पर प्रलाप करने लगे कि दिखाओ यह शब्द कहाँ प्रयोग किया है। चलो माना की की शूद्र का प्रयोग नहीं किया है। लेकिन किन किन शब्दों का प्रयोग किया है? उत्तर : “भंगी” , “हरिजन”, “अन्त्यज” इत्यादि। अब भंगी यानी वाल्मीकि समाज किस वर्ण का है? यह भी भला कोई पूछने वाली बात हुई? “हरिजन” में बहुत से दलितों अन्त्यजों चण्डालों के अलावा यह शब्दावली शूद्रों के लिए भी प्रयुक्त होती है। यह सभी विभाजन शिथिल है, इसी शिथिलता का लाभ उठाकर एक विशेष वर्ग को प्रवेश से इतिहास में वंचित किया गया! आप दलित, अन्त्यज, शूद्र, अनुलोमज, प्रतिलोमज, चाण्डाल इत्यादि शब्दों से मत खेलियह! वैसे भी संपूर्ण विभाजन चार वर्णों में ही हुआ है, कोई अन्य पांचवा वर्ण नहीं है, “चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पञ्चमः” इनसे जो पृथक तथाकथित “अवर्ण” हैं भी कभी शूद्र की श्रेणी में थे। और अवर्ण सवर्ण का खेला मध्यकालीन मल मात्र है।
कहाँ आप पहले गर्भगृह की तान छेड़े हुए थे, और कह रहे थे कि सभी को मंदिर प्रवेश का अधिकार है! और अब ढोल की पोल खुलते ही अन्त्यज, चांडाल पर बात ले आए! और अब एक शब्द को पकड़ कर मिथ्या खण्डन का दावा ठोकने लगे।
लेखक पुन:अनर्गल प्रलाप कर रहा है। लेखक ने यह स्पष्ट मान लिया है कि इन संदर्भों में कहीं भी शूद्र पद का प्रयोग है नहीं। “कहां आप गर्भगृह की तान छेड़े हुए थे,और कह रहे थे सभी को मंदिर प्रवेश का अधिकार है” कहना भी खपुष्प के समान है। इस विषय में हमारा कोई भी वक्तव्य न ही किसी ट्वीट में है ,और न ही ब्लॉग में। इससे पूर्व जो एक काफी पुराना लेख लिखा गया था उसपर भी आप स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि हमने “अन्त्यज, चांडाल” आदि का मन्दिर प्रवेश अस्वीकृत किया है। अत: अनर्गल प्रलाप करना शिष्टों को शोभा नहीं देता,यह अशिष्टों का ही कार्य है। अन्य व्यक्तियों द्वारा गर्भगृह आदि की बात कही गई हो तो उनसे न ही हमारे प्रामाण्य पर कोई अन्तर पड़ता है न, ही शास्त्रीय सिद्धान्त पर, वह व्यक्तियों का ही दोष है। करपात्री जी तो स्पष्ट ही शूद्र को अन्त्यजों से भिन्न रखते थे उसका स्पष्ट प्रमाण देखिए “धर्मव्याध जैसे अन्त्यज, विदुरादि शूद्र, तुलाधार आदि वैश्य उच्च कोटि के ज्ञानी सम्मानित धर्मात्मा थे। (मार्क्सवाद और रामराज्य ३८१) अपनी बात सिद्ध न हो पाने के चक्कर मात खाए लेखक के प्रमाण देखिए, आप भी हंसेंगे “शब्दों से मत खेलिए चार ही वर्ण है, जो अवर्ण है वह भी शूद्र श्रेणी में थे” भाई! इस मनुवचन का यही तात्पर्य है कि चार ही वर्ण है पंचम नहीं अन्य सभी वर्णसंकर हैं,शूद्र आदि नहीं हैं। जैसा कि मेधातिथि ने लिखा है “अन्यतु बर्बरकैवर्तादय: संकीर्णयोनयो वक्ष्यन्ते” । सम्पूर्ण विभाजन चार वर्णों में हुआ है यह जो तुम कह रहे हो इसपर यही कहा जाता है कि जाओ किसी गुरु के मुख से शास्त्राध्ययन करो। शुक्ल यजुर्वेद में ही सभी संकर जातियों के नाम भी हैं “नृत्ताय सूतं गीताय शैलूषं धर्माय सभाचरं नरिष्ठायै भीमलं नर्माय रेभꣳ हसाय कारिम् आनन्दाय स्त्रीषखं प्रमदे कुमारीपुत्रं मेधायै रथकारं धैर्याय तक्षाणम् (मा०स० 30.6)। “अवर्ण सवर्ण शब्दों को मध्यकालीन विष्ठा बताते हो तो प्रयोग क्यों करते हो? विष्ठा प्रयोग में क्यों रुचि है? हम भी अवर्ण शब्द में रुचि नहीं रखते और न ही स्वपक्ष स्थापन के लिए प्रयोग करते हैं यह स्पष्टत: अशास्त्रीय है। संकीर्तन मीमांसा और वर्णाश्रम धर्म में भी स्वामी जी ने एक श्लोक उद्धृत किया है ,
और शूद्र और अन्त्यज शब्द भिन्न प्रयोग किए हैं “जिसने ‘ हरि’ इन दो अक्षरों का संकीर्तन किया,उसने ऋग्वेद,यजुर्वेद,सामवेद,अथर्ववेद इन चारों का अध्ययन कर डाला। “ब्राह्मण ,क्षत्रिय वैश्य, स्त्रियां,शूद्र, अन्त्यज यह सभी इन पापों से छूटकर भगवान के चरणों को प्राप्त होते हैं।(पृष्ठ 8)। इतने प्रमाणों के बाद भी तुम अपनी ही कल्पनाएं सिद्ध करने का प्रयास करते हो। धिक्
जो भंगी चर्मकार आदि जातियों वाला प्रमाण तुम दे रहे हो वह चर्मकार जाति अन्त्यजो में गिनी गई है न कि शूद्रों में “रजकश्चर्मकारश्च नटो वरुड एव च । कैवर्तमेदभिल्लाश्च सप्तैते चान्त्यजाः स्मृता” । मनुस्मृति 8.385 में भी अन्त्यज पद से शूद्रभिन्न स्त्रियों का ग्रहण किया गया है। शूद्र स्त्री और अन्त्यज स्त्री भिन्न ही वर्णित हैं “क्षत्रियावैश्यह शूद्रां वा त्वन्त्यजस्त्रियम्”। जो तुम श्रवपच(भंगी) जाति कह रहे हो वह भी चातुवर्ण्य में नहीं है, जातिभास्कर आदि ग्रंथों में शास्त्रीय प्रमाणों से इन सभी की उत्पत्ति बताई गई है । अत: लेखक यह ही सिद्ध नहीं कर पाया कि इसके संदर्भ सही हैं या नहीं। प्रमाणाभाव में करपात्री जी द्वारा प्रयुक्त अन्त्यज शब्द शूद्र से सम्बन्धित है यह कहने की लेखक ने कुचेष्टा की है। यदि उन्हें शूद्रों का ही मन्दिर प्रवेश रोकना होता तो क्या वे शूद्र शब्द से परिचित नहीं थे? या पुन:ऐसे स्पष्टवक्ता को कहने का भय था? वे करपात्री जी या उनके सहयोगी इतने संदर्भों में शूद्र शब्द का प्रयोग न करें यह विचारणीय है। अनेकार्थक होने के आधार पर अन्त्यज शब्द को शूद्र के लिए सिद्ध करने वाली लेखक की कल्पनाएं तर्कहीन हैं। यह ऐसी ही हैं जैसे अप्रासंगिक स्थलों पर ब्राह्मण” शब्द का प्रयोग “ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य” के लिए सिद्ध करना, द्विज पद का अर्थ मात्र ब्राह्मण सिद्ध करना । हमने तो कहा भी है कि “शूद्रों का मंदिर प्रवेश निषिद्ध है इस विषय में शास्त्र प्रमाण दो” हम मीमांसा कर जो भी निष्कर्ष आएगा उसे मान लेंगे। हम शास्त्रवादी हैं,व्यक्तिवादी नहीं। किन्तु तुमने तो कुछ भी नहीं दिया उल्टा तुम बचकाने इतिहास प्रमाणों पर और एक दो स्थानों पर लगे बोर्ड ही प्रमाण रूप में ले आए। तुम्हारी लचर अवस्था स्पष्ट है। भगवान उनकी बुद्धि में प्रमाणतत्व का प्रकाश करे।
सर्वप्रथम तो कलयुग प्रह्लाद श्री श्री पुरी शंकराचार्य के वीडियो का शीर्षक एकदम स्पष्ट है, पुन:भी आप अपने ही पक्ष की इतनी बड़ी चूक बता कर पलायन करके निकल लिए। कोई बात नहीं यह आपकी लीपापोती ज्यादा देर तक नहीं टिकेगी। आइए पाठकों पुरी शंकराचार्य के वीडियो पर प्रकाश डालते हैं: (मूल वीडियो लाल फॉण्ट में)
प्रश्न: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ………(घटिया स्तर की निम्न ध्वनि जिसमे कुछ स्पष्ट नहीं है) .. उसको मंदिर में जाने के लिए क्या शास्त्रों में मतलब निषेध है, या अंदर जा सकता है और पूजन भी कर सकता है, कि नहीं?
महाराज जी०: आपका नाम क्या है ?
(महाराज जी हमेशा सर्वप्रथम जाति ही पूछते हैं, लगभग सभी वीडियोज् में; यहाँ तक कि महान नित्य संन्यासी संतों जिनके चीरहरण की बात मैंने प्राक्कथन में कहीं थी, उनको भी महाराज जी सर्वदा जातिसूचक शब्दावली से संबोधित करते हैं।)
प्रश्न कर्ता के नाम नाम बताने के बाद:
महाराज जी: क्या कहे? उपाध्याय है? बैठिए!
आपको तो कहीं रोका नहीं गया? आपने रोका था !! आपको को नहीं रोका, अच्छा ठीक हूं हू हू (हंसकर) !
(यह इस बात का भी सूचक है कि इनके ट्रैड वादी शिष्य किस प्रकार के हैं! जो लोगो को रोक देते हैं मंदिर में घुसने से)
गीता से श्लोक उद्धृत करने के पश्चात महाराज जी समझाते हैं कि किस प्रकार फल चौर्य नहीं है, पुन:जिस बात को लेकर आप सभी पलायन कर रहे थे; जिस शब्द “शूद्र” को लेकर इतने देर मिथ्या भाषण कर रहे थे उसी की ढोल खोल दी महाराज स्वयं ने:
महाराज जी : “बहुत अच्छा उदाहरण है, आप शूद्र और अन्त्यज को छोड़ दीजिए, मुझे ले लीजिए क्योंकि आजकल ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने में – न देना भी अनुचित है और दे दिया तो बस जेल में हथकड़ी ही हूं हूं हूं (हंसकर) इसीलिए सुप्रीम कोर्ट तक कोई फांस न सके और सारी बात आ जाए वो शैली तो अपनानी पड़ती ही है; समझ गए नहीं तो हम रोजै जेल में जाए! हूं हूं हूं (हंसकर) “
प्रश्न में ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य तथा शूद्र सभी सम्मलित है, परंतु शीर्षक में मात्र शूद्र शब्द ही प्रयुक्त हुआ है। अतः स्पष्ट है की उक्त वीडियो के प्रसंग को अपने अंदर समेटने में शीर्षक असमर्थ है,यह दोष है। यहां कोई पक्ष,प्रतिपक्ष की बात ही नहीं क्योंकि जगतगुरु शंकराचार्य तो खुद शीर्षक आदि का निर्धारण नहीं करते, न ही शीर्षक लिखने वाले कोई शास्त्रज्ञान संपन्न व्यक्ति ही होते हैं। अनेकों शीर्षक ऐसे गिनाएं जा सकते हैं जिनमें विषय अन्य है और शीर्षक अन्य। प्रतिपक्षभावनार्थ अनुभूतजन्य विचार यहां यह बात समझने में असमर्थ प्रतीत होता है,| अवश्य ही सीखना कठिन होता है परंतु यदि किसी व्यक्ति का विद्यार्जन ही ध्येय होता हैं तो वह मूषक के ध्वनि सुनकर भी अपने ज्ञान का वर्धन करता है, परंतु वही द्वेष से ग्रसित व्यक्ति सिंह की गर्जना भी अस्पष्ट कह अनसुनी कर देता है।। यह घटिया निम्न स्तर की ध्वनि इस गर्दभ -विलाप से अधिक सुन्दर है।
प्रश्नकर्ता का प्रश्न- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शुद्र,जो वर्ण है, उसको मंदिर में जाने के लिए क्या शास्त्रों में मतलब निषेध है या जा सकता है और पूजन भी कर सकता है कि नहीं?प्रश्नकर्ता के प्रश्न से स्पष्ट है कि वह मंदिर की मर्यादा की बात कर रहा है विधि निषेध आदि कब प्रश्न पूछ रहा है जिसमें सभी वर्ण सम्मिलित है,मात्र शूद्र ही नहीं |
प्रथम बात यहां, ‘अंदर’ शब्द प्रश्न में प्रयोग नहीं हुआ है, कदाचित आपके अनुभूतजन्य विचारों ने अपने आप सुन लिया होगा |
उन्होंने उनका नाम पूछा, शायद अब भी यह व्यवहारिक बात है कि व्यक्ति यदि अपने आप अपना परिचय ना दें तो दूसरा उसका नाम पूछता है। यदि आपके मंतव्य को भी मान ले तब भी सनातन सिद्धांत में किसी का वर्ण उसके लिए कैसे अपमान हो सकता है?यह भी व्यावहारिक लोक में प्रसिद्ध ही है कि व्यक्ति दूसरे को उसके अंतिम नाम से बुलाता है जैसे पांडे जी, त्रिपाठी जी इत्यादि | यद्यपि कोई भी जातिसूचक शब्दावली किसी का अपमान नहीं होता, पुन: शास्त्रीय पक्ष को दुत्कारकर इसे भी द्वेषात्मक या किसी के अपमान के रूप में प्रस्तुत करना किसी व्यक्ति की संकुचित बुद्धि का ही प्रमाण हो सकता है |
वर्ण व्यवस्था को द्वेषात्मक प्रस्तुत करने वालों का भी यही ध्येय होता है कि व्यक्ति अपने वर्ण को अपमान समझने लगे तभी वर्ण व्यवस्था का सिद्धांत अपने अंत को प्राप्त हो जाएगा,अतः सनातन सिद्धांत भी |किसी सभा में आपसे प्रश्न पूछने वाला व्यक्ति आपका स्वत: ‘शिष्य’ हो जाता है यह बात तो मुझे पता ही नहीं थी |
परंतु इन सब को एक बार किनारे भी रख दें तब अभी यह स्पष्ट नहीं है की आपके द्वारा जगतगुरु शंकराचार्य के शिष्य घोषित किए गया वह व्यक्ति किसे मंदिर में जाने से रोक रहा था? क्या वह ‘पतित ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य या शूद्र था? या कोई मलेच्छ आदि |
वैसे गौ मांस खाने वाले,सुरा पान आदि करने वाले भी मंदिर में प्रवेश करके मूर्ति को छूकर दर्शन करते और करवाते हैं ऐसा करने वाले तथा इनके पक्षधर इस बात से अवश्य असहमत होंगे | परंतु जो पतित ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य या शूद्र है, अन्त्यज तथा मलेच्छ है उनको मंदिर प्रवेश वर्जित है| । “चातुर्वर्ण्यबहिष्कृत (तत्व प्रदीपिका)” “वर्णबाह्यजनश्च च(विष्णु संहिता)”
यद्यपि कानूनी रूप से अब आप गौ मांस भक्षक को भी मंदिर प्रवेश करने से नहीं रोक सकते, जो ब्राह्मण सुरा पान करके पतित है उसको भी नहीं रोका जा सकता| पुन:भी जैसे अनेक राक्षसों के आतंक काल में देव पूजन यज्ञ आदि करना मना था पुन:भी यज्ञ आदि देव पूजन को भी लुप्तप्राय मानकर उसे छोड़ नहीं दिया गया वैसे ही आज का परिदृश्य देखा जाना चाहिए |
स्पष्ट रूप में आप सभी कान फाड़ फाड़ कर सुन लीजिए, “शूद्र और अन्त्यज” अगर इनको पृथक भी मानें तो भी दोनों के अनधिकारों की बात हुई है। शूद्र शास्त्रीय शब्दावली है जबकि चमार, भंगी, हरिजन दलित यह सब जातिगत व्यवहारिक शब्दावली है जो आम समाचारों में प्रयुक्त होती हैं। सार्वजनिक पूजास्थल (प्रवेश अधिकार) अधिनियम 1956 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को मंदिर में पूजा से रोकने पर 6 माह कैद की सजा भुगतनी पड़ सकती है। इस प्रकार मंदिर प्रवेश संबंधी और तो और महाराज जी को अदालतों और भारतीय न्यायिक संविधान के अंतर्गत नियम कानून पता हैं, इसीलिए उन्होंने पूरे वीडियो के समय केवल सांकेतिक प्रयोग किया है! शासकों पर शासन की रट लगाए हुए महाराज जी को हथकड़ी लगने का क्या डर? आगे पुन:महराज जी अपने कथित राजनैतिक और सांस्कृतिक सर्वोच्च पद की बात का स्मरण करते हुए पुनः “शूद्र” शब्द की पुष्टि कर देते है :
महाराज जी : ” मै सन्यासी हूं, आप शूद्र और दलित की बात छोड़ दीजिए….
क्यों बार बार महाराज जी शूद्र शब्द की पुरुक्ति कर रहे है?
जिस प्रकार एक मूर्ख आम का भोजन करने की इच्छा करते हुए सभी प्रकार से आम को खोजने का प्रयत्न करता है परंतु जब आम नहीं मिलता तब बेर को ही आम!आम! चिल्लाकर अपने दुराग्रह जनित अभिमान को पोषित करने लगता है, वैसे ही आपका मनोभाव भी परिलक्षित हो रहा है | इतना तो आपने मान ही लिया कि करपात्री जी ने कहीं भी शूद्रों को मंदिर प्रवेश से वर्जित नहीं किया,क्योंकि उनकी सभी बातों का आधार तो स्मृतियां तथा शास्त्र ही है ,ना ही उनके लेख से कहीं पर भी आप यह सिद्ध कर पाए तो अब आप जगतगुरु शंकराचार्य श्री निश्चलानंद सरस्वती जी के वीडियो पर आए हैं | अब आप मात्र शब्द को प्राप्त कर दोबारा अपने आप उसका अर्थ निकालते हुए खुद की पीठ थपथपाते हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं | ना आप उस चर्चा का प्रसंग बताएं और ना ही उसके आगे की बात बस आम!आम! कहकर चिल्लाने लगे |।
क्यों बार बार महाराज जी शूद्र शब्द की पुरुक्ति कर रहे है?
आपका पक्ष क्या है? सिद्ध क्या करना चाहते हैं? की जगद्गुरु शंकराचार्य ने कितनी बार शूद्र शब्द बोला है अपने वीडियो में? तो मान्यवर इसी वीडियो में सन्यासी,दंडी स्वामी,शंकराचार्य शब्द ‘शूद्र’ से ज्यादा प्रयुक्त हुआ है और इन पर इनके ऊपर निषेधाज्ञा और नियमों की अधिक चर्चा हुई है। शब्दों की पुनरावृत्ति कितनी हुई यह नहीं अपितु किस प्रसंग में प्रयुक्त हुआ यह महत्व रखता है |
अब आइए देखते हैं कि जगतगुरु शंकराचार्य जीने यहां क्या बात कही संक्षिप्त रूप में बताता हूं | उनके परंपरा प्राप्त ब्राह्मण,समय से यज्ञोपवीत संस्कार आदि से आच्छादित तथा ऊपर से दंडी स्वामी उसके बाद शंकराचार्य की पद पर बैठा हुआ व्यक्ति थी अग्नि को छू नहीं सकता अर्थात भोजन भी पका नहीं सकता,पुन:भी ‘फल’अर्थात भोजन करने में उसको मनाही नहीं है, उसके बाद उन्होंने फल प्राप्तिमार्ग में भिन्नता बताते हुए यह संकेत किया कि मार्ग अलग-अलग होते हुए थी फल सबको समान ही प्राप्त होता है | इसको बताने का प्रयोजन,,उन लोगों को मुंह बंद करना था जो यह सिद्ध करते फिरते हैं की सनातन धर्म में मात्र शूद्र के ऊपर ही नियमों तथा निषेधों का लिखा है |
क्योंकि यह आम मान्यता बन चुकी है कि हमारे धर्म ग्रंथों में शूद्र पर ही नियम आदि बने है तो इसी बात की व्याख्या करते हुए जगद्गुरु शंकराचार्य जी कहते हैं- “जो भ्रम चल रहा कि शूद्रों तथा स्त्रियों को ही अमुक अमुक से वंचित किया गया इन भ्रम फैलाने वालों को यह नहीं पता है कि सबसे बड़े पद पर,ऊचे पद पर है ( सन्यासी,दंडी स्वामी,शंकराचार्य जैसा कि पूर्व में उन्होंने बताया ) सबसे ज्यादा निषेधाज्ञा उन पर लागू है”
या यह सिद्ध करना चाहते हैं कि जगद्गुरु शंकराचार्य जी ने शूद्रों को मंदिर प्रवेश करने से रोका है? तो शंकराचार्य जी ने ऐसा कहीं भी नहीं कहा |
जहां वह शूद्र और अन्त्यजों के मंदिर प्रवेश की बात करते हैं अपना उदाहरण देते हुए पहले यह समझाते हैं कि विधि निषेध केवल उन पर ही नहीं अपितु सन्यासियों में सबसे ज्यादा है उसके उपरांत शूद्र तथा अन्त्यजों के लिए देव मूर्ति दर्शन का फल बताते हैं |
शूद्र और अन्त्यजो की बात करते हुए जगतगुरु शंकराचार्य जी बोलते हैं-
“कोई गर्भगृह के बाहर से तो कोई मात्र ध्वज दर्शन से तथा कोई मंदिर की छत की परिक्रमा करके फल वही प्राप्त करता है”
शूद्रों के लिए गर्भगृह के बाहर से तथा अन्त्यजों के लिए ध्वज दर्शन तथा छत की परिक्रमा से वहीं फल प्राप्त होता है |अब आपको घने जंगल के अंधेरे की अनुभूति के बाद जो यथार्थ ज्ञान प्राप्त हुआ है उसका ध्यान करते हुए मुझे यह बताएं कि इसमें कहां शुद्र को मंदिर प्रवेश वर्जित किया है | मुझे प्रतीत होता है कि आप को बेर भी नहीं प्राप्त हुआ आप तो ‘इमली’ को ही आम! आम! चिल्लाने लगे |
एक कहावत है ‘सांप भी मर जाए और लाठी ना टूटे’ दिग्भ्रमित हो कर अदूरदर्शी शासन तंत्र जिसका एकमात्र उद्देश्य हिंदू मान्यताओं का दमन करना है ऐसे विधर्मी शक्तियों के हाथ में पढ़े बिना उनके प्रपंच को चीरते हुए सत्य सनातन सिद्धांत की स्थापना करना यही उत्तम नीति है | कदाचित काले अंधेरे जंगल से प्राप्त हुई विशेष अनुभूति एवं ज्ञान व्यक्ति को नीतिवान नहीं बनाता |
सूर्य को ‘कथित’ “ऊर्जावान” कहने से ना तो सूर्य का प्रकाश कम होता है और ना ही उसका महत्व | हां ऐसा कहने वाले व्यक्ति का द्वेष तथा मूर्खता अवश्य प्रत्यक्ष प्रदर्शित होती है | जिसको खुद शिवावतार आदि गुरु शंकराचार्य ने जगतगुरु घोषित किया हो…….ऐसे में तुच्छ मानव क्या प्रश्न उठाएंगे?
“कृतेविश्वगुरूब्रम्हात्रेतायांऋषिसप्तमः।
द्वापरेव्यासएवंस्यात्, कलावत्रभवाभ्यहम्।।”
अतः आप की बात आपके अहं को पोषित करती हुई प्रलापी ही सिद्ध हुई
चूँकि आपने पुरी शंकराचार्य की वीडियो की तान छेड़ ही दी है तो एक और वीडियो देख लो:
पुरी मंदिर प्रवेश आंदोलन १९३२-३४ तो विश्व प्रसिद्ध है। इससे पहले मंदिर में निम्न जातियों का भी आना वर्जित था, अब सभी हिन्दू प्रवेश कर सकते हैं, केवल गैर हिंदू प्रवेश वर्जित है। निम्न जातियों में कैवर्त मछुआरों जैसे गोखा, सियुल, तियार, न्यूलिय, कन्द्रादि का प्रवेश निषिद्ध ही था यह सभी कैवर्त्त जातियां शूद्र ही कहलाती हैं। पुरी शंकराचार्य बताते हैं कि अब शास्त्रसम्मत मंदिर प्रांगण प्रवेश (≠ गर्भगृह) नहीं होता! अब जो नियम है वो शासनतंत्र द्वारा प्रतिपाद्य है, इसी बात को ख्यापित करते हुए पण्डे पुजारियों की आलोचना करते हुए महाराज जी एक अन्य वीडियो में कहते हैं-
इसी बात को ख्यापित करते हुए पण्डे पुजारियों की आलोचना करते हुए महाराज जी एक अन्य वीडियो में कहते हैं-
“पण्डे पुजारी भी जिनको शास्त्र का विधिवत ज्ञान नहीं है जिनको बिल्कुल ज्ञान नहीं है; वे समझते हैं कि जिनका प्रवेश निषेध किया गया है वो शास्त्रसम्मत निषेध है। वो शास्त्र सम्मत निषेध नहीं है! शास्त्रसम्मत निषेध तो पहले क्रियान्वित था। अब तो ओडिसा शासनतंत्र के द्वारा, यहाँ के न्यायालय के द्वारा जो निषेध आज्ञा है या विधि है, उसका अनुपालन हो रहा है। शास्त्र की मर्यादा यही है कि जो व्यक्ति शास्त्र सम्मत विधा से मंदिर के प्रांगण में प्रविष्ट होते हैं, विधिवत् श्री जगन्नाथ दारुब्रह्मादि का दर्शन करते हैं; उनको फल प्राप्त होता है, लेकिन जो व्यक्ति शास्त्रीय मर्यादानुसार क्योंकि शुद्धि-अशुद्धि में शास्त्र ही प्रमाण है……………..()….. शास्त्रों ने जिनके लिए निषेध किया है उसके उपर अनुग्रह है कि वो शिखर का दर्शन करके, परिक्रमा करके भी वही फल प्राप्त कर सकते हैं, फल से किसी को वंचित नहीं किया गया है”
सर्वप्रथम आपने पुरी शंकराचार्य श्री निश्चलानंद सरस्वती जी के वीडियो के प्रसंग को तिलांजलि देकर शीर्षक उठा कर अपने बौद्धिक लोक में विशेष परिस्थिति का निर्माण किया था | हमने तो मात्र आपके द्वारा प्रस्तुत रंगी गई पत्तियों का नैसर्गिक रंग समक्ष रखा है | मात्र अपने अहं की सिद्धि तथा अपने पाठकों का ध्यान आकृष्ट करा कर, शंकराचार्य जी की बातों को उसी अनुरूप सज्जित कर कर प्रस्तुत करने का अत्यंत ही निष्फल प्रयत्न है ।
पहले तो उसी वीडियो में शंकराचार्य जी के कुछ शब्द-
जगन्नाथ मंदिर को लेकर प्रांगण में कुछ समय पहले तक गर्भगृह तक आमुख प्रवेश करें अमुक ना करें, यह शास्त्रीय मर्यादा अनुसार नहीं यह तो ओडिशा के शासन तंत्र द्वारा स्वतंत्रता के बाद क्रियान्वित विधि निषेध है
यहां गर्भगृह के संबंध में दारुब्रह्म श्री जगन्नाथ,श्री बलभद्र तथा देवी सुभद्रा के पूजा में अधिकृत ब्राह्मण की बात हो रही है |
श्री जगन्नाथ जी के विषय में चर्चा करते हुए बताते हैं-
कि उस समय के शास्त्रज्ञ मनीषियों के द्वारा अमुक कार्य में प्रमाद हो जाने का कारण क्षत्रिय राजा को भी अंदर घुसने का आदेश नहीं दिया
जब यहां ब्राह्मणों के लिए भी विधि निषेध की चर्चा हो रही है, एक क्षत्रिय को अंदर ना घुसने देने की बात हो रही है तब तब कोई इस निष्कर्ष में किस प्रकार पहुंचे सकता है कि किसी भी प्रकार मात्र शूद्रों के मंदिर प्रवेश, शुद्धि-अशुद्धि की चर्चा हो रही है?
इसीलिए पुनः यह सिद्ध नहीं होता कि शंकराचार्य जी ने किसी भी रूप में शूद्रों को मंदिर प्रवेश वर्जित बतलाया है |
आपके सभी तर्क तथा प्रमाण ‘ढोलक समान’ है जो ध्वनि तेज करते हैं परंतु होते खोखले हैं | अपने ऊपर कुछ जातियों का नाम लिया, उनमें से कुछ सुरा (शराब) विक्रेता थी, पक्षी मारकर तथा जीव हत्या कर कर माया अर्जित करती थी तो ऐसे लोगों का मंदिर में प्रवेश वर्जित था | अब यह तो सिद्ध हो ही गया है कि मात्र जाति विशेष नहीं अपितु जिन जिन का शास्त्र में मंदिर प्रवेश वर्जित है उन सब को मंदिर प्रांगण घुसने की अनुमति नहीं थी हड्डी अवशेष होने पर भी शंख पवित्र है,क्यों? क्योंकि उसका शास्त्र प्रमाण है | क्यों? क्योंकि उसका शास्त्र प्रमाण है |
इसी प्रकार मंदिरों में स्थापित मूर्तियों में देवत्व का प्रमाण मात्र शास्त्र है इसीलिए शास्त्रों का विधि-निषेध मानना उचित ही है |
महात्मा गांधी तो मुस्लिमों का एक जत्था लेकर भी मंदिर पहुंच गए थे घुसने | वह आंदोलन की नींव ही श्री जगन्नाथ महाप्रभु को आदिवासियों का देवता बताकर ही हुई थी, जिनका के बाद में ब्राह्मणीकरण करके हिंदुओं का घोषित किया गया, हालांकि यह स्पष्ट होता है कि पतित ब्राम्हण क्षत्रिय को भी मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता था तब भी मात्र विदेशी षड्यंत्र कार्यों के प्रभाव में आकर शास्त्रों की तिलांजलि दे वह आंदोलन शुरू हुआ
आंखे धोखा नहीं खाती! क्यों? पीत दोष से ग्रसित नेत्र धोखा नहीं खाता? श्रुतिस्मृतिविहीन नेत्र भी ऐसा ही धोखा खाता है। मान भी लिया जाय तो बिल्कुल उचित, परंतु आप यहां जगतगुरु शंकराचार्य श्री निश्चलानंद जी के द्वारा दीक्षा प्राप्त किए उनके शुद्र शिष्यों की बात करना ऐसे ही भूल जाते हैं जैसे अंधेरे जंगल में उपजा एक नन्हा पौधा सूर्य के दर्शन का अनुभव भूल जाता है |
जिस बात की सिद्धि करने में आप लगे हैं कि शंकराचार्य जी ने शूद्रों को मंदिर प्रवेश करने से वर्जित किया है वे सभी बातें किसी भी रूप में आप सिद्ध करने में असमर्थ हैं तथा आपके सभी प्रमाण और तर्क अपने खोखले स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं। बाकी इमली को आम! आम! जितना चिल्लाना है चिल्ला लीजिए इमली, इमली ही रहेगी मात्र आपकी लिए आम के रूप में मान्यता नहीं की जा सकती।
शूद्र मंदिर प्रवेश निषिद्ध है , मंदिरो के बाहर ऐसे निषेध सूचक वाक्य लगाने वाले वेद वेदांत मर्मज्ञ पंडे पुजारी वास्तव के किससे प्रेरित है? आंखे धोखा नहीं खाती!श्रीपाद व्यासतीर्थ स्वामी जी के शिष्य महान वैष्णवाचार्य श्री कनकदास जिनका जन्म बीर गौडा और बचम्मा के गड़रिया कुरुबा जाति में हुआ था। कुरूबा जाति शूद्र मानी गई है। यह रेड्डी जाति समतुल्य प्रथम शूद्र है और स्वयं को “इंद्र शूद्र” से संबंधित करते हैं। एक बार व्यासराज मठ के व्यासराय स्वामीजी के अनुरोध पर वे उडुपी आए थे। लेकिन यह एक ऐसा मध्यकालीन युग था जब पंडितो द्वारा जाति के आधार पर भेदभाव अपने चरम पर था। मंदिर के पंडे पुजारियों ने उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया क्योंकि वह शूद्र थे, हालांकि व्यासराय स्वामीजी ने उन्हें कनकदास को मंदिर में जाने के लिए कहा था। कनकदास मंदिर के बाहर कृष्ण, उनके भगवान का ध्यान कर रहे थे, और श्रीकृष्ण की स्तुति में गीत गा रहे थे। उन्होंने हफ्तों तक ऐसा किया, मंदिर के बाहर डेरा डाला और खाना पीना भी स्वयं से बनाया। यद्यपि मंदिर में प्रवेश करने से रोके जाने से व्याकुल होकर उन्होंने भगवान कृष्ण की स्तुति में कविताओं की रचना की और कीर्तन (कविता) की रचना की जो आज भी प्रासंगिक हैं। वह गाते हैं कि कैसे सभी मनुष्य समान हैं, जैसे सभी का जन्म समान रूप से शारीरिक रूप से होता है, सभी एक समान जल साझा करते हैं और एक ही सूर्य को पृथ्वी पर जीवन की सहायता करते हुए देखते हैं। हिंदू मंदिर और मंदिरों में देवता हमेशा पूर्व की ओर मुंह करते हैं। उडुपी में, यद्यपि, भगवान कृष्ण, देवता रूप में, पश्चिम का सामना करते हैं। ऐसा माना जाता है कि कुछ अस्वाभाविक हुआ होगा जब कनकदास मंदिर में जाने की अनुमति के लिए कई दिनों तक मंदिर के बाहर थे। ऐसा माना जाता है कि उन दिनों, जब कनकदास को भगवान कृष्ण के दर्शन करने की अनुमति नहीं थी, उन्होंने अपने प्रिय भगवान के लिए कीर्तन गाते हुए अपना दिल बहला दिया। चमत्कारिक रूप से, भगवान कृष्ण के देवता पश्चिम की ओर मुख किए। मंदिर की बाहरी दीवारों में एक दरार के माध्यम से, श्री कृष्ण के प्रबल भक्त कनकदास अपने भगवान को देखने में सक्षम हो गयह।
इसने रूढ़िवादी ट्रैड वादियों को चकित कर दिया कि ऐसा कुछ क्यों हुआ। तब से, श्रीकृष्ण के देवता पश्चिम की ओर मुख किए हुए हैं, हालांकि मुख्य प्रवेश द्वार पूर्व की ओर है। अभी चमत्कार बाकी है। आज वह खिड़की ( “कनकना किंडी” कहा जाता है) कनकदास को श्रद्धांजलि के प्रतीक में विद्यमान है। उडुपी के श्रीकृष्ण मंदिर में आने वाले भक्त, इस छोटी सी खिड़की के माध्यम से भगवान कृष्ण के दर्शन करने का प्रयत्न करते हैं। यह कनकदास के लिए एक स्मारक है, और उदार हिंदू मान्यता का भी प्रमाण है कि भक्ति, कविता और संतत्व जाति और पंथ से ऊपर हैं और निश्चित रूप से कठोर बनाए गए रूढ़िवाद से ऊपर हैं। ऐसा कहा जाता है कि कनकदास इस स्थान पर “गोपुर” के सामने एक झोपड़ी में रहते थे। बाद में, उनकी स्मृति में एक छोटा मंदिर बनाया गया और इसे “कनकना किंडी” या “कनकना मंदिर” के नाम से जाना जाने लगा। इसी प्रकार श्रीपाद वल्लभाचार्य ने शूद्र कृष्णदास(अष्ट छाप) को मंदिर का मुख्य मैनेजर तक नियुक्त किया।
अब आप ट्रैड वादी बताए मुझे उस समय किन शास्त्रों के आधार पर शूद्र कनकदास को मंदिर प्रवेश नही दिया गया था? क्या वो शास्त्र लुप्त हो गए क्या? अपने लोगों को पागल बनाना छोड़ दीजिए!
अब नहीं लगता मुझे इस विषय पर बोलने की कुछ आवश्यकता है। करपात्री महाराज और उनके अनुयायियों के विचार स्पष्ट हैं, वैसे ही मेरा आलेख केवल उनके विचार पर था। वैसे तो आज के समय में मंदिर अनधिकार की परंपरा भी छिन्न भिन्न हो गई है, सभी को मंदिर प्रवेश का अधिकार प्राप्त है चाहे हरिजन हो या भंगी या अन्त्यज, या दलित या शूद्र! सबको समान मंदिर प्रवेश का अधिकार प्राप्त हो, सर्वप्रथम इस आंदोलन की नींव श्रीपाद रामानुजाचार्य ने डाली थी। अब आप जैसे ट्रैड वादियों के सामने समस्या यह है कि इसका पालन तो कर नहीं रहे हो, अपने गलतियों को स्वीकार भी नहीं कर रहे हो, जब ऐसी परंपरा काल के गर्त में समा गई और अनेक संत महात्माओं द्वारा धर्मविरुद्ध घोषित हो गई! यह परंपरा अब बची ही नहीं तो संरक्षण किस बात का है?क्योंकि संरक्षण (conservation) तो endangered का किया जाता है extinct का नहीं! आपका कथित संरक्षण है केवल और केवल मिथ्याहङ्कार का! ऐसे में आपका छद्मपरंपरावाद नितांत खोखला तो निकला ही !!
इतिहास का धर्म विषय में प्रामाण्य है ही नहीं। इतिहास का प्रयोजन धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सिद्धि ही होना चाहिए। प्रयोजनहीन कथित इतिहास कूड़ा होता है। जिस प्रकार कूड़े को घर से बाहर फेंक दिया जाता है, उसी प्रकार बिना प्रयोजन वाले किसी भी इतिहास आदि को त्याग दें।
जो इतिहास मुख्यतः वेदमन्त्रों व अर्थवाद आदि की व्याख्या के रूप में होता है, वही धर्म में प्रमाण मानने योग्य होता है। वह भी तब जब उसका रचयिता स्वयं शास्त्रवादी होने के साथ-साथ शिष्ट भी हो, अर्थात् श्रौत-स्मार्त कर्मों का अनुष्ठान करनेवाला परम् धार्मिक हो। संक्षेप में, केवल वेदमूलक इतिहास ग्रन्थ या उपाख्यान आदि ही प्रमाण मानने योग्य होते हैं। तदतिरिक्त किसी भी प्रकार के कथित इतिहास से धर्म व अधर्म के विषय में निर्णय लिया ही नहीं जा सकता। पुन:वेदनिन्दकों, म्लेच्छों, आचारहीनों के द्वारा इतिहास या History कहकर लिखे या कहे गए किसी भी कथन के बारे में तो कहना ही क्या!
आजकल के धूर्त लोग जातियों, विशेषकर ब्राह्मणों, तथा मूल शास्त्रोक्त धर्म को मानने वालों पर प्रहार करने के लिए कुछ भी फर्जी कहानियाँ गढ़ रहे हैं तथा उन्हें सत्य घटना बताकर शास्त्र, धर्म व धार्मिकों की निन्दा की जा रही है। यह सब लोग दण्ड के पात्र हैं, परन्तु इनके झांसे में आने वाले तो निरे मूर्ख हैं। मान लो कि वे सब घटनाएँ सत्य हैं, तो भी उन्हें शास्त्र के आलोक में ही समझा जायह तभी वह मान्य होगा। इतिहास का अनुसरण शास्त्र नहीं करते, शास्त्र का अनुसरण इतिहास करता है। कारण कि जगत् केवल शास्त्र से ही चलता है। पुन:लेखक ने चार मंदिरों के सूचना पट्ट की फोटो दी है और दिखाना चाहा है कि हां यह परम्परावादियों के ही कार्य हैं। तदविपरीत हम 10 फोटो दिखाते हैं ,जिनमे हिन्दुओं का प्रवेश है लिखा है। अब दोनों में से किसको प्रमाण मानोगे? इनमें से एक तो जगन्नाथ मंदिर परिसर की ही है। हमारा पक्ष तो यह ही है कि शूद्र का मन्दिर प्रवेश समर्थित है, अन्त्यज आदि का निषिद्ध तद्विपरीत जो भी आचरण है उसे करने वाले स्वयं ब्रह्मा जी ही क्यों न हो वह अशास्त्रीय होने के कारण त्याज्य है।
ऐसी ही एक इतिहास कथा लेखक ने कनकदास जी के सन्दर्भ में दी है और अन्त में प्रश्न पूछा है कि “अब आप ट्रैड वादी बताए मुझे उस समय किन शास्त्रों के आधार पर शूद्र कनकदास को मंदिर प्रवेश नही दिया गया था? इन लोगों की मानसिक योग्यता दयनीय है। प्रथमत: इस कथा का क्या संदर्भ? प्रामाणिक स्रोत है?कथाओं के अन्य रूप भी सुनने में आते हैं कि वादिराज तीर्थ जी के साथ इन्हें अनुमति मिल गई थी! ठीक है कथा सत्य भी हो तो क्या व्यक्तियों का आचरण शास्त्र है?नहीं, तो पुन:यदि उनका निर्णय शास्त्रसम्मत था तो हमें प्रमाण है ,नहीं था तो हमें प्रमाण कैसे हो सकता है। अभी तुम कह रहे थे कि वैष्णवाचार्य मंदिर प्रवेश आदि में भेद नहीं करते तो यह बताओ कि “उडुप्पी कृष्ण मंदिर के अर्चक कौन होते हैं? शंकराचार्य? उस समय यह भेद किसने किया? शंकराचार्य ने?
यह आगे जो तुम गप्पें लगा रहे हो कि वैष्णवाचार्य स्पर्श्य- अस्पृश्य विवेक नहीं मानते। भाई तुम तो किसी परम्परा को ही नहीं मानते, न ही किसी मान्य वैष्णवाचार्य के साथ तुम्हारा अध्ययन या संपर्क हुआ है। इसके विपरीत यह देखने में अवश्य आता है कि वैष्णवाचार्यों के शिष्य ही तुम्हारी अनेकों गप्पों का खंडन किए हैं। क्या वैष्णवाचार्य स्मृतियों को नहीं मानते? पांचरात्र आदि आगम में विश्वास नहीं रखते? उत्तर आएगा स्पष्ट रूप से रखते हैं पुन:ऐसी स्थिति में कैसे कहा कि यह नहीं है? हमने जितने वैष्णवाचार्यों के दर्शन किए हैं वह तो अनुपनीत द्विज के हाथ का भी भोजन न करें चांडाल आदि का प्रश्न ही कहां है। यह व्यक्ति न जाने क्यों स्व स्वार्थ की सिद्धि के लिए हमारे आचार्यों पर अवैदिकत्व का चिह्न लगा रहा है।
श्रीरामानुजसम्प्रदाय का एक ग्रंथ है “स्मृतिरत्नाकर” जिसमें सभी प्रकार के अभक्ष्यान्न , अस्पृश्य स्नान का वर्णन किया गया है। इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि “1932 में गुरुवयुर मन्दिर में अन्त्यज प्रवेश पर सभी आचार्यों ने माध्व,वल्लभ,रामानुज ने विरोध व्यक्त किया था। वल्लभाचार्य जी द्वारा शूद्र को अधिकारी नियुक्त करने पर किसे आपत्ति है?कृष्णदासजी तो बाहरी कार्यों के ही अधिकारी के तौर पर नियुक्त किए गए थे। आज भी वल्लभकुल के ब्राह्मण निर्णय करते हैं कि किस जाति और आचार के ब्राह्मण श्रीनाथजी आदि की विग्रहसेवा करेंगे। वल्लभाचार्य जी का तो स्पष्ट सिद्धान्त ही यह है:-
स्वधर्माचरणं शक्त्या विधर्माच्च निवर्तनम् ।
इन्द्रियाश्वविनिग्राहः सर्वथा न त्यजेत् त्रयम् ।। (तत्वार्थ दीप निबन्ध)
सत्य यह है कि पीडीएफ के आधार पर तुम्हें परंपरा का ज्ञान हो ही नहीं सकता। अभी भी वल्लभाचार्य संप्रदाय के मान्य आचार्य श्री श्याममनोहरजी ,रामानुज सम्प्रदाय के श्रीराघवाचार्य जी, मध्वसंप्रदाय के श्री उत्तरादिमठ के स्वामी जी के चरणों में जाओ और पूछो कि क्या आपकी परम्परा श्रुति स्मृति में आए आहार,मंदिर प्रवेश के आचरण को मानती है ? उत्तर हां ही आएगा।
आप कितने प्रतिभासंपन्न लग रहे हैं यह भक्ष्याभक्ष्यविवेक? अभक्ष्य, अस्पृश्य का अंतर? महाराज जी ने स्वयं इस शब्द का प्रयोग किया है तथा बार बार और जन्मना छुआछूत को शास्त्र सिद्ध कहा है। यह मानते हैं कि रोटी व्यवहार तक न हो। शूद्र की रोटी, शूद्र की रोटी की रट लगा रखी है और आपकी हिम्मत तो देखो, छी! इसी शूद्र की रोटी के विषय में तो एक वीडियो में पुरी शंकराचार्य जी ने श्रीरामजन्मभूमि के योद्धा, अयोध्या के सन्त श्रीनृत्यगोपालदासजी महाराज तक की निन्दा की ही थी। अगर कोई कहे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद अछूत है क्योंकि जन्म से शूद्र है तो मेरे दृष्टि में यह विवेक नहीं विनाशोन्मुखता है, यहाँ मैं अपने विचार जरूर लिखूंगा।आपने अपने मन से अपने मन से क्या लगा रखा है?? जहाँ जहाँ करपात्री महाराज के वचनों का उद्धरण दिया वहाँ कोई छेड़ छाड़ नहीं हुई अब लेखक उद्धरण के मध्य कुछ न कुछ तो लिखेगा ही? उसमें आप रोने लगे कि यह इनके वचनों को उल्ट पलट दिया! यह सब आपका पारिस्थितिक कुतर्क है। पाठक स्वयं ही समझ लेगा। स्पष्ट रूप से कथावाचक, सुधारक, कीर्तन, सांस्कृतिक सामूहिक भगवन्नाम कीर्तन इत्यादि का वर्णन करने वाली संपूर्ण पुस्तक जिसका शीर्षक ही संकीर्तन मीमांसा हो वो किस पर कटाक्ष है यह कोई सूंघ के भी जान लेगा। उनका सीधा मन्तव्य तत्कालीन वैष्णवाचार्यों के प्रति ही था जो रोटी व्यवहार, छुआछूत, जात परजात, जन्मना कर्तव्य भुलाकर शोषित अछूतोद्धार हेतु हरिनाम संकीर्तन करवा रहे थे। अतः अपने कुतर्क अपने पास रखें!
और कौन कौन वैष्णवाचार्यों के क्या क्या पक्ष हैं इसकी जानकारी किसी को आपके मुंह से नहीं अपेक्षित है जिनके स्वघोषित सार्वभौम गुरु मध्वाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, गोस्वामी तुलसीदास सब को स्मार्त अद्वैतवादी बता चुके हो। वैष्णवाचार्यों के क्या विचार हैं वो अभी चर्चा का विषय ही नहीं हैं! करपात्री महाराज के लिए तो देवल और मेधातिथि ही शास्त्रविरुद्ध सुधारवादी थे तो वैष्णवों की तो क्या ही बात करनी! यह सब बातों का उपरोक्तोक्तालेख से कोई मतलब नहीं है, आप अनायास ही अपने छद्म पाण्डित्य का प्रदर्शन कर रहे हैं।
हमारे द्वारा प्रयुक्त शब्द स्पष्ट हैं कि तुमने शूद्र को अस्पृश्य कहा है इस कारण हमने तुम्हे उचित मार्ग दिखाया है कि अभक्ष्य और अस्पृश्य में अन्तर जान लो। चांडालादि का जो लोकप्रसिद्ध अस्पृश्यत्व है उसका अपलाप हमने नहीं किया। शूद्र की रोटी भक्ष्य अभक्ष्य विवेक में आती है न कि स्पृश्य अस्पृश्य विवेक में। सभी सम्प्रदायों के स्मृति ग्रंथों में यह दोनों प्रकरण भिन्न भिन्न रूप से वर्णित ही हैं। पुन:भी लेखक का साहस तो देखिए लिखता है कि “शूद्र की रोटी, शूद्र की रोटी की रट लगा रखी है और आपकी हिम्मत तो देखो, छी!”। आहार – व्यवहार के नियम तोड़ोगे तो निन्दा होगी ही उसमें क्या आपत्ति है। अगर कोई कहे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद अछूत है क्योंकि जन्म से शूद्र है तो मेरे दृष्टि में यह विवेक नहीं विनाशोन्मुखता है” यह कहना भी नहीं बन सकता क्योंकि पक्ष प्रतिपक्ष उभयसम्मत दृष्टान्त ही वाद में प्रस्तुत किया जाता है। शूद्र का अस्पृश्य होना न हमे मान्य है न तुम्हें। जो जातियां अस्पृश्य हैं भी उनके विषय में दी गई धर्माज्ञा तुम्हे *विनाशोनमुखता” लगती है तो पुन:तो तुम्हारी दृष्टि में ही दोष है। श्रुति स्मृति उभयविध नेत्रों से हीन व्यक्तियों की यही दशा होती है।
लेखक ने मन से ही वैष्णवाचार्य,शूद्र की छाया पड़ने पर स्नान करो आदि बातें कही, हेतुओं और तर्कों से हीन व्यक्ति इस धृष्टता को संकेत करने पर रो पड़ा। इसका रोना आगे के प्रमाणों से दिख जाता है लेखक को अपने दिए हुए प्रमाणों की पुष्टि के लिए कुछ नहीं सूझा ” कथावाचक, सुधारक, कीर्तन, सांस्कृतिक सामूहिक भगवन्नाम ” यह सब तो उस समय के सभी सम्प्रदायों के व्यक्ति कर रहे थे, अखण्डानन्दजी, विष्णुआश्रम , माधवाश्रम जी, उड़िया बाबा आदि प्रसिद्ध कथावाचक हमारे ही सम्प्रदाय के थे। वास्तव में यह संकीर्तन मीमांसा और वर्णाश्रम धर्म की रचना क्यों हुई? एक बहुत ही प्रसिद्ध शांकर सन्यासी थे जो संकीर्तन में स्त्रियों और शूद्रों को ॐ उच्चारण करवा दिया करते थे,उनसे बातचीत के उपरांत ही इस पुस्तक का प्रणयन हुआ,इस विषय में जो भी तर्क हैं जैसे कि “वैदिक प्रणव लौकिक प्रणव से भिन्न है” आदि वह उनके द्वारा ही दिए गए हैं। उनका उत्तर स्वामी जी द्वारा दिया गया। अत: ऐसे में यह किनपर कटाक्ष है कहना बन ही नहीं सकता। प्रमाणों से रो- रोकर भागने की इनकी दशा देखिए “और कौन कौन वैष्णवाचार्यों के क्या क्या पक्ष हैं इसकी जानकारी किसी को आपके मुंह से नहीं अपेक्षित है” क्यों भाई? इसमें कारण है मेरे मुंह से प्रकट होना? तर्क आदि क्या है? वर्णाश्रम स्वराज्य संघ में उस समय के सभी मान्य वैष्णवाचार्य जी थे यह सभी को ज्ञात है ,धर्मसंघ की भी यही स्थिति है। रही बात मेधातिथि की तो वर्ण जाति के पक्षधर के रूप में तो वे उन्हें परंपरावादी सिद्ध करते हैं किन्तु विदेश यात्रा आदि पक्षों में वह पलयनवादी ही सिद्ध होते हैं। मेधातिथि कोई साक्षात मनुवचन कर्ता तो है नहीं जो प्रमाण हो?वेदों के आधार पर ही व्यक्ति का प्रामाण्य – अप्रामाण्य निर्धारित होता है, कुल्लुकभट्ट जी ने भी अनेकों स्थान पर मेधातिथि का खंडन किया है। कुल्लुक ने तो धर्म विषय पर मेधातिथि पर कटाक्ष भी किए हैं “प्रागल्भ्या लौकिकं वस्तु परं धर्ममिति ब्रुवन् । चित्रं तथापि सर्वत्र श्लाघ्यो मेधातिथिः सताम्” । तुम मेधातिथि को मानते हो तो क्या भोजन,आहार, जाति के विषय में मेधातिथि के नियमों को मानोगे? नहीं मानते तो फिर प्रमाण अप्रमाण होने से क्या अन्तर पड़ता है? देवल के विषय में ऐसा कहां कहा गया है तुमने कोई संदर्भ नहीं दिया, देते तो अच्छा रहता। शंकराचार्य जी ने श्लोक व्याख्या कारण से या जिस किसी भी माध्वाचार्य आदि को अद्वैतवादी कहा हो उससे मेरे प्रमाणय का कहां बाध होगा? ऐसा तो है नहीं कि शंकराचार्य जी उन्हें तत् तत् संप्रदाय से जुड़ा नहीं मानते,एक दो श्लोकों में अद्वैत सहिष्णुता होने के कारण प्रसंगवश अद्वैतवादी कहा हो तो इससे प्रकृत विषय पर क्या प्रभाव पड़ता है?
शूद्र को किसी भी शास्त्र में अस्पृश्य नहीं कहा उनसे मिलना जुलना आदि के बाद भी कोई दोष नहीं होता तो छाया पड़ने पर स्नान की बात ही क्या है?शास्त्र की बात कोई नहीं कर रहा यहाँ! यहाँ विषय है करपात्री महाराज के विचार का, बार बार बार एक ही कुतर्क करना, उस चीज का जिसका आलेख से लेना देना नहीं है, उस अन्यत्र चिंतनीय विषय पर आपने पूरा प्रमाणशून्य विषय विमुख कथित प्रत्युत्तर डाल दिया जिससे पाठक को ऐसा प्रतीत हो कि अहो! यह सारी बातें गलत हैं!!!
यहां पर हमारा पक्ष था कि कहां पर करपात्री जी ने “शूद्र की छाया देख कर स्नान करो कहा है? स्पष्ट रूप से लेखक ने स्वयं ही जोड़ा है, उसे सिद्ध न कर पाने के उपरान्त देखिए यह व्यक्ति क्या कह रहा है? शास्त्र की कोई बात ही नहीं कर रहा? न ही तुम्हे शास्त्र की बात करनी है ,न ही अपने मिलाए हुए वचनों की प्रमाणिकता दर्शानी है? तो ऐसे में तुम विक्षिप्त ही सिद्ध हो रहे हो। हमारा लेख तो प्रमाणों से सु:सज्जित है। शास्त्र की बात न करने का कोई प्रश्न ही नहीं होता। सभी विषय धार्मिक हैं वह तुम्हारी कल्पनाओं से नहीं चलते।
बाकी रही बात छुआछूत की तो स्पष्ट रूप से भंगी-चमार, हरिजन, अन्त्यज आदि जातिसूचक शब्द जो प्राय: शूद्र के चर्चित शब्दावली में ही प्रयुक्त होते हैं, अगर नहीं भी होते तो भी इनमें पृथकत्व का भाव का अनुपालन दुर्लभ है, इतिहास साक्षी है! यहाँ पर आप जानबूझकर पारिभाषिक कुतर्क करके शब्दों का विच्छेदन करने का प्रयत्न कर रहे हैं, जबकि करपात्री महाराज ने स्पष्ट रूप से शूद्र शब्द का प्रयोग करके उन्हें कीर्तनों सम्मेलनों में मिलने जुलने से मना किया है। शास्त्र क्या कहते हैं आप कितनी घोपले बाजी करके ढक रहे हो!
परिस्थितियों का प्रभाव आप जैसे क्षुद्रहृदय वालों पर अधिक पड़ता है, शास्त्रीय शुद्दतावादियों पर नहीं। हमारे अनुसार तो शब्दार्थ का नित्य सम्बन्ध है “औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्ध:” जो शब्द जिस अर्थ में रूढ़ और वाच्यार्थ को लिए है ,उस अर्थ में ही उपयोग होता है। सत्य तो यह है कि आप एक भी स्थान पर शूद्र नहीं दिखा पाए, स्मृति ग्रंथों में भी मन्दिर प्रवेश के नियमों में शूद्र और अन्त्यज भिन्न वर्णित है ऐसी स्थिति में हतप्रभ होकर आप क्यों अपनी अयोग्यता,कुटिलता को ढक रहे हो? यह कल्पना करना ही हास्यास्पद है कि करपात्री जी कहीं शूद्र शब्द का प्रयोग नहीं किए किन्तु उनका तात्पर्य वह ही था। करपात्री जी ने शूद्र शब्द का प्रयोग करके उन्हें कीर्तन सम्मेलनों में मिलने से मना किया है अथवा यह कहा है कि स्वधर्म को छोड़कर अनेकों लोग ऐसी संस्थाओं के पाले में पड़ जाते हैं? बंबई के यज्ञ में “मरीन ड्राइव” के पास के मैदान में भव्य कथा आयोजन हुआ! वहां शूद्र तो क्या अन्त्यज आदि के लिए भी मंडप बना था ,सबका नाम संकीर्तन हुआ। जब ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही कह दिया गया है कि “ब्राह्मण ,क्षत्रिय वैश्य, स्त्रियां,शूद्र, अन्त्यज यह सभी इन पापों से छूटकर भगवान के चरणों को प्राप्त होते हैं।(पृष्ठ 8) कहा भी है कि “शूद्रादि वर्ण,जिनके जीवन यात्रा निर्वाह करते हुए ही भगवन्नाम का समाश्रयण करें”(पृष्ठ 78)।
अगर मान भी लें कि आपको विषय विमुख बात ही करनी है और आप कह रहे हैं कि शूद्र को किसी शास्त्र में अस्पृश्य नहीं कहा तो जाके ग्रंथ पढ़ना प्रारम्भ कर दीजिए। स्पष्ट वचन है ग्रन्थों में “सर्वं च शूद्रसंस्पृष्टमपवित्रं न संशय:” अर्थात् शूद्र के संपर्क में/स्पर्श में आने वाली सभी सभी वस्तुएं अपवित्र हो जाती हैं, इसमें कोई संशय नहीं है। यहाँ तक कि संसार में ३ चीज जो शास्त्रों द्वारा अपवित्र (लोके त्रीण्यपवित्राणि) कहीं गई उनमें शूद्र भी है। “श्वा च शूद्र:श्वपाकश्च अपवित्राणि” अर्थात् शूद्र, कुत्ता, और चण्डाल अपवित्र है! आपने हमें पहले तुच्छ घोषित कर दिया तो आप जैसे महापंडित में इतनी तो योग्यता होनी ही चहिए कि उपरोक्त वचन कहाँ से उद्धृत है यह आपको पता हो! अपितु गौतम धर्मसूत्र ही आपको नहीं पता वहा भी कथन है कि, “शुद्र का लाया जल दूषित हो जाता है!” इसीलिए यह शब्दों में विच्छेद उत्पन्न करके अपने भोले भाले पाठकों का जी न बहलाइए यह कहकर- “यह देखो उन्होंने शूद्र नहीं लिखा, भंगी-चमार, हरिजन-दलित अन्त्यज यह सब लिखा है (हालांकि उन्होंने शूद्र भी लिखा है किन्तु आपको दूर दृष्टि दोष है)! इतने झूठ के पश्चात् भी आप कैसे शास्त्र को लेकर मिथ्या भाषण करते हैं! धिक्!
यह श्लोक जहां पर आता है वहां पर तीन अपवित्र और पांच अमेध्य कोटियों का वर्णन किया गया है। तीन अपवित्र में तो जैसा लेखक ने कहा है वह है। पांच अमेध्य में “गायकः कुक्कुटो यूपो ह्युदक्या वृषलीपतिः” और आगे कहा गया है कि प़ञ्चैते स्युरमेध्याश्च स्प्रष्टव्या न कदातन।
स्पृष्ट्वैतानष्ट वै विप्रः सचेलो जलमाविशेत्॥ अगले श्लोक में कहा गया कि इन सबको स्पर्श कर स्नान करें। “सर्वं च शूद्रसंस्पृष्टमपवित्रं न संशय:”” यहां प्रसंग न्याय,मीमांसा,वेद का है। यहां तीन प्रकार की व्यवस्था है कि उपयुक्त इतिहास के वचन “शूद्रस्यापि न दुष्यति” “गुडस्तक्ररसा ग्रह्या निवृत्तेनापि शूद्रत:” ऐसे वचनों से बाध हो जाता है। साथ ही शूद्रों का द्विजातियों के घर कार्य करना भी प्रमाणों से सिद्ध है। शूद्रों के लिए भी अन्य जातियों का भोजन न करने और उन्हें स्पर्श न करने का विधान है “शूद्रोऽप्यहवं यदा भुङ्क्ते प्राजापत्यं समाचरेत् ।। ” ऐसे ही अनेकों स्मृति वचन हैं जहां शूद्र को अस्पृश्य नहीं कहा तो पुन:इस महाभारत वचन की क्या संगति लगाई जाए? संगति यह ही है कि आगे भगवान ने अपनी भक्ति के प्रभाव का वर्णन किया है “जो मनुष्य मेरे भक्तों का शूद्र जाति में जन्म होने के कारण अपमान करते हैं, वे नराधम करोड़ों वर्ष तक नरक में निवास करते हैं”, “अत: चांडाल भी मेरा भक्त हो तो बुद्धिमान पुरुष को उसका अपमान नहीं करना चाहिए” इत्यादि अत: भक्ति की महत्ता बताने को ही पूर्व में यह वचन कहे गए हैं। “यूप” का स्पर्श भी विहित है “अष्टाचत्वारिंशतं मध्यमे यूप आलभते” यह श्रुति है।
अथवा यह भी संगति लग सकती है कि “अश्वत्थो ब्राह्मणा गावो मन्मयास्तारयन्ति हि।तस्मादेतत्प्रयत्नेन त्रयं पूजय पाण्डव॥ ” आदि वचनों के अनुसार ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन करना ही उद्देश्य है तो अन्यों की निन्दा भी की है। अन्यथा यज्ञीय यूप का स्पर्श तो ब्राह्मण करता ही है। जैसे इन वाक्यों की व्यवस्था की जाती है कि “अवैष्णवं द्विजं स्पृष्ट्वा सवासा जलमाविशेत् II” अवैष्णव द्विज का स्पर्श कर सवस्त्र स्नान करें, “जो त्रिपुंड्र धारण नहीं करता उसका स्पर्श कर स्नान करें” ऐसी ही व्यवस्था यहां भी की जानी चाहिए। निन्दा का तात्पर्य निन्दा में न होकर अन्य की स्तुति में यह भी आर्ष सिद्धान्त है।
अथवा तो जैसे गायक पद का अर्थ अश्लील गायक ही अनुवादक के द्वारा किया गया है वैसे ही शूद्र पद का अर्थ असत शूद्र माना जाए। स्मृतिसंदर्भ कार अनेकों स्थान पर ऐसा करते हैं।
यह सब शब्दों के जाल हैं जो जो उदाहरण इस व्यक्ति ने दिए हैं वह कहां से उठाए गए हैं देखिए ,न ही गौतम धर्मसूत्र का सूत्र दिया है? देगा भी कहां से, शास्त्र अध्ययन न होने पर ऐसे ही इधर उधर के प्रमाणों से काम चलाना पड़ता है।इस विषय पर आगे और लिखा जा रहा है। यह जो भी कहा गया है कि “शूद्र कहां लिखा है? वह निषाद के प्रसंग में है न की भोजन के प्रसंग में। उत्तर न दे पाने की स्थिति में कुछ भी प्रसंग बदलकर कह देना मूर्खता है। धिक्
आप कहते हो शूद्र से छुआछूत नहीं था और उसकी रोटी खाते तो आपको एक वैष्णव ग्रंथ निहित इतिहास बताता हूँ, जो वैष्णवाचार्य श्री रविदास जी से संबंधित है। रविदास जी तो जन्म से शूद्र थे।(कहानी)उस समय किस शास्त्रों का पालन करके ब्राह्मण ऐसा बर्ताव कर रहे थे? वो शास्त्र लुप्त हो गए क्या आज? वो परंपरा कहा गई आज??वैसे भी शुद्र से रोटी व्यवहार भी निषिद्ध है ट्रैड वादियों के मत में। आप विषय विमुख हो कर, शास्त्र की बात करते हो! तो मैं कुछ और भी लिख ही देता हूँ। कहीं कहा गया है कि ब्राह्मण के मरते समय यदि शूद्र का अन्न उसके पेट में रहता है तो अगले जन्म में वो या तो सूकर होता है या शूद्र के कुल में जन्म लेता है (“शूद्रान्नोदरस्थेन य: कश्चिन्म्रियते द्विज:,स भवेच्छूकरो ग्राम्यस्तस्य वा जायते कुले“) इत्यादि उदाहरण भरे पड़े हैं! करपात्री महाराज जो भी बोलते हैं सब शास्त्र सम्मत होता है।
लेखक के भीतर लेख पढ़ने का साहस भी नहीं हुआ,हमने तो स्पष्ट ही अस्पृश्यता को अलग वर्णित किया है और अभक्ष्यता को भिन्न। कहा भी है “शूद्र से फल, गौ महिषी का दुग्ध,कच्चा अन्न,मिठाई आदि ग्रहण किया जा सकता है। ब्राह्मण एवं अन्य द्विजातियों के लिए तो स्वगृह में बने अन्न, उपनयन संस्कार संपन्न द्विजाति के बने अन्न अथवा बलिवैश्वदेव करने वाले गृहस्थ का ही अन्न भक्षण विहित है।”” स्पष्ट रूप से दिखता है कि पके हुए भोजन,जल का हमने भी निषेध माना है मात्र फल, गौ आदि का दुग्ध,कच्चा अन्न,मिठाई आदि खाए जा सकते हैं बनाई वस्तुएं या जल नहीं। अत: तुम किसी और का ही सिद्धान्त कल्पित कर इतिहास की कहानियां ले आ रहे हो। पहले ही कहा जा चुका है इतिहास का कोई प्रामाण्य नहीं।
आप भी थोड़ा शब्दों पर ध्यान देना सीख लीजिए और आंख फाड़ कर देखना सीखिए। झूठ पर झूठ तो इतना कि “विद्वान ब्राह्मण” और “वीर” दिखा पर पूरी बात ही काट दी! उन्होंने कहा “विद्वान ब्राह्मण पुरोहित तथा महामात्य बनाना चाहिए। न्यायाध्यक्ष तथा अध्यापक के पद पर भी ब्राह्मणों को ही नियुक्ति होनी चाहिए। सेनापति के पद पर पवित्र वीर क्षत्रिय एवं सैनिक भी अधिकतर कुलीन क्षत्रिय ही होने चाहिए ” यह बात क्यों लिखना भूल गए कि अध्यापक और न्यायाध्यक्ष में कोई विशेषण नहीं लगाया यह नहीं देखा “ब्राह्मणों को ही“। और भला कुलीनता कौन सी योग्यता है सेनापति के लिए!! और जो झाड़ू साफ करे वाले और दास लोग है उनमें तो योग्यतायोग्यता कोई प्रश्न ही नहीं! इसके बाद पुन:से वही विषयविमुख पांडित्य का व्यर्थ प्रलाप प्रलाप; मैं बार बार नहीं बोलूंगा इस पर अंत में चर्चा करेंगे आगे कुछ नहीं कहूंगा पाठकगण समझदार है।
अनेक बार की तरह इस बार भी प्रसंग से भागने का विफल प्रयास। इनका पक्ष था कि “पुरुषार्थशून्य इस व्यवस्था में योग्यायोग्य का विचार किए बिना जन्माधारित स्वधर्मानुरत प्राणी ही सच्चा हिंदु होगा” हमारा उत्तर था कि “ब्राह्मण के आगे जो विद्वान,क्षत्रिय के आगे वीर पद लगे हैं? वह बिना पुरुषार्थ के हैं?कुछ तर्क नहीं मिला तो कह दिया कि “अध्यापक और न्यायधीश के समक्ष विशेषण क्यों नही लगाया? विशेषणों की पुनरूक्ति क्यों की जाय? अध्यापक और न्यायधीश पद से ही व्यक्ति को शास्त्रों का ज्ञाता और नीति का ज्ञाता होना सिद्ध है। ऐसे बचकाने पलायन करने के मार्ग ढूंढकर ही लेखक बचना चाहता है। “जो झाड़ू साफ करेंगे उनमें योग्यता का प्रश्न नहीं” यदि तुम ऐसा मानते हो तो तुम ही पराजित हुए। “पुरुषार्थ शून्य जो तुमने हेतु दिया था वह विद्वान ब्राह्मणादि में तो व्याप्त है किन्तु झाड़ू मारने वालों में नहीं अत: तुम्हारा हेतु ही व्यभिचरित है। क्या लेखक वर्तमान समय में सफाई का कार्य देखने वालों को “प्रतिभाहीन कहता है” क्यों शुचिता में प्रतिभा नहीं चाहिए? और यदि प्रतिभा बहुमुखी हो तो अपनी जाति के बताए अन्य कार्य भी कर लें। करपात्री जी ने सफाई विभाग का अध्यक्ष की ही बात कही है,इस विषय में भी कोई प्रमाण नहीं कि संस्था का अध्यक्ष नियुक्त व्यक्तियों के समान ही कार्य करे”।।
आपको आलेख कैसे लिखे जाते हैं और गणितीय तर्कशास्त्र द्वारा कैसे चीजों का वाचन और पाठनबोध किया जाता है वो भी नहीं पता! मैंने तो कहीं आलेख में यह कहा ही नहीं कि यह हूबहू शब्दशः करपात्री महाराज का वक्तव्य है? इसको मैंने बोल्ड और उद्धृत भी नहीं किया तो पुन:यह आपका प्रलाप क्यों? न ही इसका कोई उद्धरण संख्या लिखा! पुन:भी अनर्गल आक्षेप कुतर्क? आपकी आँखें और आपकी बुद्धि हीनभावना से ग्रस्त हो गई है, जो संसार के हर वक्तव्य में करपात्री महाराज देखते फिरते हो। आप यह प्रश्न पूछ रहे हो कहाँ लिखा है! अरे अग्रज! आपने इससे पहले कोई लेख देखा ही नहीं! यह तो मेरा आशय बतलाता हुआ वक्तव्य है, कई उद्धृत करपात्रवक्तव्यों के बीच; जिसकी बात मैंने की! अब देखते है कि यह वचन क्या है। “जासु छांह छुई लेइअ सींचा” यह तुलसीदास का वचन निश्चित रूप से उस तत्कालीन परंपरा का द्योतक है जिसमें छाया पड़ने पर भी लोग अपने आपको सींचते थे! सीधा सीधा शाब्दिक अर्थ ही यही है। अब कोई इस परंपरा का समर्थन करता है तो भाई मेरे उसके लिए क्या लिखा जाए! इतने घपलेबाजी करके आप लोग थकते नहीं हो! अंत में जब करपात्री महाराज का नाम ही नहीं लिया तो काहे की निंदा और काहे की स्तुति!
किन किन वस्तुओं का नाम लेकर बचना चाहोगे? अच्छा होता भौतिकी की किसी शाखा का भी वर्णन कर लेते। साधारण सा तर्क है जो अल्पमतियों के समझ में नहीं आता ” रचना का साक्षात सम्बन्ध विवक्षा से है। विवक्षा तद्विषयक इच्छा स्वरूप है। घट की जब विवक्षा रहती है तब घट स्वरूप अर्थ के बोधक पद से युक्त वाक्य की ही रचना लोग करते हैं। यदि विवक्षा बदल जाती है तो वाक्य रचना भी बदल जाती है”। अत: ऐसी स्थिति में करपात्री जी का क्या तात्पर्य है वह तुम्हारे बचकाने प्रमाणों से ज्ञात नहीं होगा, शाब्दबोध से ही निर्णय लिया जाएगा। तुमने स्पष्ट लिखा है कि “करपात्री महाराज के अनुसार अव्यवहार्य निम्न जाति के निषादराज और श्री राम द्वारा आलिंगन की अनुकृति हमे नही करनी चाहिए, और तो और व्यवहारादि में धर्मशास्त्र प्रमाण होते हैं इतिहास (रामायण व महाभारत) नहीं(रा.मी/७६५/१८-२६)। और “जासु छांह छुई लेइअ सींचा” की दृष्टि से अगर शूद्र की छाया भी पड़ जाय तो भी जल से सींच लेना चाहिए ऐसा।
क्या यह महाराज जी का कथन है? या क्या तुलसीदास जी का ही ऐसा आशय है?और शब्द जो तुमने प्रयोग किया है वह भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है कि इसके अतिरिक्त भी कुछ है। हंसी की बात यह है कि इतने कमजोर तर्क ,इतनी बचने के विफल प्रयास कर लेखक हमें ही “घपलेबाजी” करने वाला कह रहा है।
चिंता मत कीजिए आपके सारे प्रलाप सदैव प्रासंगिक रहेंगे और आपको अच्छा लाभ होगा। प्रथम तो यह सब आलेख का विषय है ही नहीं! यह आचार्य क्या मानते है यह उनके धर्मावलंबी बताएंगे मैं नहीं! और रही बात करपात्र महाराज के विचार की तो मैंने लिख ही दिए हैं, वर्ण जन्म से या कर्म से यह यहाँ का विषय नहीं! और अन्य आचार्यों ने भले भी जन्म से वर्ण माना लेकिन सभी को मंदिर प्रवेश मिले इसके पक्ष में सभी अन्य वैष्णव आचार्य हैं, कोई जन्मना छुआछूत समर्थक नहीं है! वर्तमान में वैष्णवाचार्यों क्या शांकर सम्प्रदाय के ही अगणित आचार्यों के विचार ही करपात्री महाराज से तनिक भी मेल नहीं खाते, मध्वाचार्य संप्रदाय संबंधित, वल्लभाचार्य प्रभृति आचार्यों ने सामाजिक कुरीतियों का पुरजोर विरोध किया था! इनके तत्कालीन ट्रैड वादियों ने भी इनका विरोध किया, चैतन्य चरितामृत में स्पष्ट है कि किस प्रकार ट्रैड वादियों ने धर्म भंग का आरोप लगा मौलाना काज़ी से शिकायत कर डाली थी! क्यों? क्योंकि महाप्रभु महामंत्र स्त्री और निम्न जातियों को भी दे रहे हैं! इस प्रकार के अनेकानेक उदाहरण हर सांप्रदायिक साहित्यों में निहित हैं। यहां तक कि मलेच्छों को भी वैष्णवों ने दीक्षित किया, उद ० कबीर, हरिदास ठाकुरादि। इसीलिए जन्म से वर्ण में आचार्यों की समानता और उनके भाष्य दिखाकर लोगों को झूठी समानता का झुनझुना मत पकड़ावैं जिसमें उनके सामाजिक धरातल पर मतभेद लुप्त हो जाएं!
पुन: तुम्हारी कथनी और करनी में अन्तर स्पष्ट है। अनेकों बार माध्व,वल्लभ आदि आचार्यों के विषय में प्रलाप करने पर तुम उनके अनुयायियों द्वारा पीटे जा चुके हो और पुन:कहते हो यह उनके धर्मावलंबी बताएंगे मैं नहीं। अब देखिए इनका कहना है कि वैष्णवाचार्य जन्मना छुआछूत नहीं मानते। श्रीवैष्णवों की पुस्तक है “स्मृतिरत्नाकर” और मध्वों की पुस्तक है “स्मृति मुक्तावली” इन दोनों से आपको प्रमाण देते हैं :-
चण्डालपतितादीस्तु कामाद्यः संस्पृशेद्विजः ।
उच्छिष्टस्तत्र कुर्वीत प्राजापत्यं विशुद्धये ॥
पतितचण्डालसूतिकति गौतमस्मरणात्।।
और तो और यह को श्रीमध्वाचार्य जी के महाभारत तात्पर्य निर्णय से प्रमाण, यहां वही बात कही गई है जिसे लेकर तुम कुछ समय बाद विलाप करने वाले हो
हरिभक्तावनुच्चस्तु वर्णोच्चो नातिपूज्यते ।
विना प्रणामं पूज्यस्तु वर्णहीनो हरिप्रियः ।
आदरस्तत्र कर्तव्यो यत्र भक्तिर्हरेर्वरा || 29.28 ||
हरिभक्तों में वर्णक्रम के आधार पर ही पूज्यता होनी चाहिए। वर्णक्रम में जो नीचे हों उनका आदर सम्मान करने को कहा है न कि उन्हें नमस्कार आदि करने को। तुम्हारा क्या है? तुम जैसे व्यक्ति तो मलेच्छों के भी पैर छू देते हैं। भावुकता मात्र से जीवन यापन करने वालों को यदि इसमें गुण भी दिखें तो भी कुछ नहीं।
क्या तुम परम्परा प्राप्त वैष्णवाचार्यों से मिलें हो? हम मिले हैं, हमने तो उनके भोजन,स्पर्श,स्नान में वही शास्त्रीय व्यवहार मिलते हैं जो हमारे। सामाजिक धरातल पर मतभेद से क्या आशय है? भोजन आदि के मतभेद या पुन:सैद्धांतिक मतभेद? यदि आहार व्यवहार में वह मतभेद रखते हैं तो वे तो अपने आचार्यों के ही विरुद्ध जाने पर ही दोष से ग्रसित हुए। यदि सिद्धान्त में मतभेद है तो वह तो अनादि काल से ही है और आवश्यक भी है,भिन्न भिन्न अधिकारियों के लिए ही भिन्न भिन्न मार्गों का प्रणयन है। जिस “चैतन्य चरितामृत” की बात आप कर रहे हैं? उसे और वैष्णव सम्प्रदाय प्रमाणिक मानते हैं या नहीं?
मलेच्छों को दीक्षा देने में क्या परेशानी है? अधिकार अनुसार स्वामी करपात्री जी ने भी मलेच्छों को मंत्र दीक्षा दी है, पुरी शंकराचार्य जी भी स्त्रियों शूद्रों आदि को मंत्र दीक्षा देते ही हैं। किन्तु वेद जैसी अमूल्य निधि को मलेच्छ व्यक्तियों को दे देना? यह किसी भी स्थिति में हितकर नहीं।
“तुम्हारे हाथ क्यों कांपते हैं?” ठीक है, माना की आप जैसे शोषक निष्ठुर करुणा-दया हीन रौक्ष्य प्राणी के कभी किसी चीज पर हाथ नही कांप सकते, किंतु जिसे इतिहास का ज्ञान है, जिसे इस बात का प्रमाण सहित ज्ञान है उसके हाथ तो जरूर कांपेंगे। ऐसे अनेकानेक उदाहरण व्याप्त हैं जहाँ जन्मना दासत्व पर क्रूरता के उल्लेख है। इतिहास में कई जगह और विगत १०० वर्षो में तो अनेक उदाहरण हैं ही। किंतु आपको विषय विमुख पांडित्य का चस्का लगा है तो मैं भी लिखे ही देता हूँ! दासों के १५ भेद बताए गए है तथाकथित शास्त्रों में जिसमें “गृहे जातस्तथा क्रीतो लब्ध:“ अर्थात् घर के दास दासी से उत्पन्न, और खरीद के लाया, लाभ में मिला.. यह भेद भी हैं! अर्थात जन्म से दास और तो और उनका क्रय विक्रय भी! एक निर्जीव वस्तु की भांति! अपितु यह कभी दासत्व से मुक्त भी नहीं हो सकते, स्वामी के चाहने के बाद भी, “यथा- तत्र पूर्वाश्चतुर्ववर्गो दासत्वान्न विमुच्यते, प्रसादाद्धनिनोऽन्यत्र दास्यमेषां क्रमागतं” ! इतना ही क्यों इन दासों का परीक्षण भी होता था पुन:इनका मूल्य चुकाया जाता था! दास ही नहीं दासी और स्त्रियों के क्रय विक्रय की “परंपरा” थीं! प्राय: दास का परीक्षण अवधि १५ दिन और स्त्रियों की १ महीने होती थी (यथा:” द्विपादामर्धर्धमास: स्यात् पुंसां तद्द्विगुणं स्त्रिया:”)! और तो और अगर दासी अपने से निम्न वर्ण की हुई तो स्वामी उसके साथ दुष्कर्म भी कर सकता है। और इसमें कोई दोष नही होता! केवल दासी ही नहीं चार प्रकार की स्त्रियों के साथ यह हो सकता है: १. स्वैरिणी (ब्राह्मणी के अलावा: क्षत्राणि, वैश्य स्त्री, और नीचे वालों का तो क्या ही कहना), २. वेश्या, ३.दासी, ४. निष्कासिता(घर से निकली हुई) [यथा:“स्वैरिण्यब्राह्मणी वेश्या दासी निष्कासिता च या, गम्या: स्युरानुलोम्यहन स्त्रियो न प्रतिलोमत:”] ! एक अन्य स्थान पर यह कहा गया कि अगर दासी से दुष्कर्म पश्चात् संतान की प्राप्ति होती है तो स्वामी चाहे तो उसे दासत्व से मुक्त कर सकता है (“स्वदासीं यस्तु संगच्छेत्प्रसूता च भवेत्ततः, अवेक्ष्य बीजं कार्या स्यान्न, दासी समन्वया तु सा”)। दास का अशुभ कार्य क्या है? “गुह्याद्वास्पर्शनोच्छिष्टविण्यमूत्रगहणोज्झनमिष्टत: स्वमिनश्चाङ्गौरूपस्थानमथोऽन्तत:” लिखूं?? इनका उद्धरण संख्या तो पता ही होगा आपको? इनके इतर मनुस्मृति ८.४१३~४१५, भी शूद्र को दास के रूप में प्रतिष्ठापित करता है, दूसरे शब्दों में शूद्र को ब्रह्मा ने ब्राह्मणों के दास के लिए बनाया है (“दास्यायैव हि सृष्टोऽसौ ब्राह्मणस्य स्वयम्भुवा“)! “यथाकामवध्य:” जैसे विशेषणों से सुशोभित शूद्र है। इनकी कितनी भी लीपापोती कर लो शास्त्रीय ढंग से, इतिहास साक्षी है दासप्रथा की परंपरा का! मेरा तो हाथ जरूर कांपेगा इस शब्द को लिखते हुए।
अनर्गल प्रलाप करने वाले व्यक्ति के मुख से आने वाले शोषक,निष्ठुर,करुणाहीन आदि भी श्रृगाल-विलाप के समान ही हैं। इतनी बार हम स्पष्ट कर चुके इतिहास में कुछ सही हुआ या गलत वह धर्मशास्त्र से समर्थित नहीं हो तो त्याज्य है, दुर्भाग्यपूर्ण है। करपात्री जी तो व्यवस्था बता रहे थे देखिए “शासन ,न्याय , शिक्षा , सेना आदि सभी विभागोंमें उच्च कर्मचारियों और निम्न कर्मचारियोंमें अंगांगिभाव या शेष – शेषिभाव अनिवार्य रहता है । ‘ एक व्यक्ति दूसरेका हुक्म माननेके लियह बाध्य हो , न माननेपर दण्डित हो ‘ , यही दास – प्रथाका नमूना है । इसका कब अभाव हो सकता है । धर्मनियन्त्रित राज्यमें ही शासन एवं शासित आदिका अभाव कहा जा सकता है । वहाँ भी धर्ममूलक नियम्य – नियामकभाव , गुरु – शिष्य , अग्रज अनुज , पिता – पुत्र , पति – पत्नीका नियम्य – नियामकभाव रहता ही है (मार्क्सवाद और रामराज्य पृष्ठ ३२९) तुम नियम के प्रभाव आदि के स्थान पर इतिहास की कल्पना करने लग गए तो यह तुम्हारा दोष। तुम तो किसी भी बात पर कांप सकते हो। पिछले 100 वर्षों के इतिहास का जो तुमने रोना लगाया है,यह बताओ कि शासन धर्मनियंत्रित था या अधर्मनियंत्रित ? इतने सन्दर्भ जो तुमने दिए हैं? उनसे क्या इन करुणामय श्लोकों का बाध होता है जो दासों की सम्पन्नता चाहते हैं,उन्हें पुत्र समान बताते हैं?
“बालानामथ वृद्धानां दासानां चैव यह नराः ।
अदत्त्वा भक्षयन्त्यग्रे ते वै निरयगामिनः ।।अनुशासन पर्व २३. ८२ ।।
भृत्यः शिष्यश्च पोष्यश्च वीर्यजः शरणागतः ।
धर्मपुत्राश्च चत्वारो वीर्य्यजो धनभागिति ॥ उनपर क्रोध न करने को कहते हैं
यह क्रोधं संनियच्छन्ति क्रुद्धान्संशमयन्ति च ।
न च रुष्यन्ति भृत्यानां दुर्गाण्यतितरन्ति ते ।। उन्हें स्वर्ग का कारण बताते हैं (२.१०५.३३ वाल्मिकी रामायण) ” क्या इनका बाध हो रहा है? यह जो क्रीतदास के विषय में प्रलाप कर रहा है? वह अत्यन्त ही लाचार स्थिति में हरिश्चंद्र की भांति कोई हो, तब लागू है। बलपूर्वक नहीं। अब अन्य संदर्भ देखें
यश्चैषां स्वामिनं कश्चिन्मोचयहत् प्राणसंशयात्।
दासत्वात् स विमुच्यहत पुत्रभागं लभेत चेति॥
जो (दास) अपने स्वामी को प्राणसंकट से बचाता है, वह दासत्व से मुक्त होकर पुत्र के समान हो जाता है। (यहां तक कि उसका अपने स्वामी की सम्पत्ति में भी अधिकार हो जाता था)
तेन लोभादिवशादसौ न मुक्तस्तदा राज्ञा मोचयितव्य इत्याह नारदः।
चौरापहृतविक्रीता यह च दासीकृता बलात् ।
राज्ञा मोचयितव्यास्ते दास्यन्तेषु हि नेष्यते॥
यदि लोग लोभवश बलपूर्वक बनाए हुए अथवा तस्करी से लायह गए दासों को मुक्त न करें तो राजा अपने हस्तक्षेप से उन्हें मुक्त कराए, क्योंकि ऐसे लोग दासत्व के योग्य नहीं होते हैं, ऐसा स्मृतिकार नारद का वचन है।
अवरुद्धासु दासीषु भुजिष्यासु तथैव च।
गम्यास्वपि पुमान्दाप्यः पञ्चाशत् पणिकं दमम्॥
जिन स्त्रियों को बंधक (जेल आदि में) बनाया गया हो, जो स्त्रियां दासी हों, जो स्त्रियां (प्रमुखतः वेश्याएं) किसी और के उपभोग लिए पहले से नियुक्त हों, (अथवा जिनका विवाह आदि किसी और के साथ निश्चित हो), उनका उपभोग करने वाले व्यक्ति को पचास पण का दण्ड राजा दे। (यहां पर किसी जाति, वर्ण यह चमड़ी के रंग की बात नहीं है, सबों के लिए यह नियम है। किंतु विदेशों की स्लेवरी में ऐसा नहीं था।।
और सभी वर्ण एक दूसरे के किंकर हैं ही जैसा कि कहा भी गया है!विप्रस्य किङ्करा भूपो वैश्यो भूपस्य भूमिप।
सर्व्वेषां किङ्कराः शूद्रा ब्राह्मणस्य विशेषतः॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, गणपतिखण्ड, अध्याय ३४, श्लोक – ५९)
अब पाठक सभी प्रकार के वचनों का विवेचन कर लेवे दुष्कर्म करने की आज्ञा शास्त्रों द्वारा कहां दी गई है इस सन्दर्भ में श्लोक भी नहीं दिया। दुष्कर्म के पश्चात उत्पन्न संतान को दासत्व से मुक्त करने को यदि तुम “दुष्कर्म करो” ऐसी आज्ञा मान रहे हो तो तुम्हारा ही दोष है।
दासों,स्त्रियों,जातियों कुछ एक कटु श्लोकों का होना भी इस प्रकार ही समझना चाहिए कि शास्त्र कोई चाटुकार तो हैं नहीं कि केवल प्रेम ही प्रेम के वचन कहें भय,क्रोध,सावधानी न दिखाएं। भयपूर्ण हितैषी वचनों को सामने रख अन्य सभी मृदु वचनों को छिपाना अनैतिकता ही है।
आपने प्रायश्चित प्रायश्चित के भी बड़े गीत गाए हैं। कितने प्रायश्चित आजके युग में प्रायोगिक हैं? प्रसांगिक हैं? अगर इनकी परंपरा पूर्ण रूप से स्वाहा हो चुकी है तो जब परंपरा ही नहीं बची तो संरक्षण किस बात का? आपको पता भी है सुरापान का प्रायश्चित? “सुरापोग्निस्पर्शा सुरां पीबेत्“ (आ.धा. १.९.२५.३), “सुरां पीत्वोषणया कार्य देहात“( बो. सू २.१.१.१७) इत्यादि अनेकानेक विधान हैं, चोरी करने के भी प्रायश्चित हैं, जो वर्तमान समय में बिल्कुल भी उपयोगी नहीं हैं। किसी काल खण्ड में रहे होंगे इसपर भी संशय ही है क्योंकि किसी हिन्दूराज्य के इतिहास में ऐसा ऐतिहासिक प्रमाण आदि देखने में नहीं आता! अब कोई लिंगोच्छेदन करवा के प्रायश्चित नहीं करता, व इन वचनों के आधार पर पहले भी कौन करता था?! कथित ट्रैड वादियों से पूछता हूँ कि क्या तुम बाल ब्रह्मचारी हो? पुन:स्मृति अनुसार गर्दभ की बलि देकर वन में उपवास क्यों नहीं करते! स्मृतियों में जो अव्यवहारिक प्रायश्चित्त दे रखे हैं वह इनमें से एक भी नहीं कर सकता है। बात बात में चान्द्रायण व्रत का विधान लिख रखा है। कथित ट्रैड वादियों के लगभग शतांश पूरे जीवन में एक चान्द्रायण नहीं कर सकते।! ऐसे में तुम सभी तथाकथित ट्रैड धर्मच्युत हों!
धर्मविमुख लोगों के लिए ही प्रायश्चित अकरणीय लगते हैं।अन्यथा जिन्हे अवश्य ही भले की इच्छा होती है वह तो कुछ न कुछ उपाय कर ही लेता है। आपको पता भी है सुरापान का प्रायश्चित? यह किससे प्रश्न कर रहे हो? यह प्रायश्चित तो हम रोज ही पतित ब्राह्मणों को गिनाते हैं। तुम्हें अप्रासंगिक लग रहा हो तो तुम्हारा दोष, हम तो यही मानते हैं कि ज्ञानवश सूरापान का कोई प्रायश्चित नहीं है,कोई दोष से मुक्ति चाहता हो तो दिया हुआ विधान कर ले, ब्राह्मणत्व की हत्या वह पहले भी कर ही चुका है। अन्य किसी उपाय से शुद्धि संभव नहीं। अज्ञानवश सुरापान किसी ने किया हो तो वह पुन: उपनयन से शुद्ध होता है। बात बात में चांद्रायण व्रत का विधान लिखा है कहने वाले को यह भी ज्ञात होना चाहिए कि इन्हीं परम्परावादियो के अनेक आचार्य ऐसे उपवास करते ही हैं। प्राजापत्य जैसे प्रायश्चित करने वाले व्यक्तियों से भी हम मिलवाने में समर्थ हैं। मलेच्छाअन्न खाने वालों को क्या ही अपनी या अन्यों की क्षमता का ज्ञान होगा। चांद्रायण,प्राजापत्य आदि का तो प्रत्यामनाय भी हो जाता है। अनेकों प्रकार के प्रत्यामनाय का विधान है। प्रजापत्य के स्थान पर मौसल स्नान आदि की विधा भी है। वेद का एक यज्ञ हैं चित्रयाग यह भी अनेकों वर्षों से किया गया हो किसी इतिहास पुस्तक में नहीं देखने को मिलता। किंतु आज भी ” चित्रया यजेत पशुकाम:” यह विधि स्पष्ट ही है।
और यह भी बुद्धि की शिथिलता की सीमा ही है! प्रायश्चितों की कर्मफल व्यवस्था बदल गई है क्या, जो आज वह अप्रासंगिक हों? क्या नए प्रायश्चित कल्पित किए जा सकते हैं? उनका आधार क्या होगा? अन्य वचनों से उनका विरोध कैसे दूर किया जाएगा? हमारे मत में तो शास्त्र वर्णित प्रायश्चित हैं,उनका ही कोई शास्त्रवर्णित विकल्प सुलभ हो तो वही किए जाने चाहिए। अन्यथा लोगों का अहित ही है,इन मलेच्छप्राय व्यक्तियों के मत पर पहले ही कहा जा चुका है कि अशास्त्रिय प्रायश्चित के कहने पर शतगुणित पाप लगता है।
अज्ञात्वा धर्मशास्त्राणि प्रायश्चित्तं ददाति यः ।
प्रायश्चित्ती भवेत्पूतः किल्बिषं पर्षदि व्रजेत् ।। (पराशर )
अज्ञात्वा धर्मशास्त्राणि प्रायश्चित्तं वदन्ति यह।
तत्पापं शतधा भूत्वा , तद्वक्त्रमधिगच्छति॥
(वाधूल स्मृति)
एक और बात हमने पहले ही स्पष्ट की है शास्त्र प्रमा का करण है, क्रिया का नहीं। अज्ञात ज्ञापक है, अकृत कारक नहीं। शास्त्र से ज्ञान लेकर मनुष्य प्रवृत्त व निवृत्त होते हैं। मनुष्य की प्रवृत्ति या निवृत्ति के परिणामस्वरूप शास्त्र काम नहीं करता। तुम्हारी क्षमता न होने से वस्तु अप्रमाण नहीं हो जाती,यह भूमिखंड के उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा चुका है।
एक अन्य बंदरबांटकुतर्क बहुत विख्यात है, अगर कोई सामने वाले किसी व्यक्ति को कोई सहस्त्रों झापड़ जड़ने के बाद जब न्यायायिक समीक्षा की बात आयहगी तो झापड़ मरने वाला व्यक्ति कहे कि पूर्वकाल में मैने भी १० झापड़ खाए थे! एक अन्य उदाहरण ले कीजिए कोई यह कहे आलाने फलाने को खाने का अधिकार नहीं है, और पुन:कहे यह मुझे ले लो मुझे भी उपवास में भोजन निषिद्ध है। और इतना ही नहीं साथ में यह कहे कि केवल थाली की तलहटी देखकर आप तृप्त हो जायहंगे तो यह तर्क, कुतर्क की ही श्रेणी में रखे जाते हैं।
बिलकुल नहीं, शास्त्र तर्क शब्द का विधान करता है तभी तुम इसका प्रयोग कर पा रहे हो। बिना शास्त्र के वैदिक शब्दार्थ के सम्बन्ध को सिद्ध ही कर दिखाओ? हमने तो जो भी अपने पक्ष में दिया है वह शास्त्र से दिया है। इन्होंने जो कल्पित तर्क प्रस्तुत किया है उसका स्वरूप इस प्रकार है:-
दृष्टांत :-व्यक्ति को जड़े गए सहस्त्रों झापड़, पूर्वकाल में कृत समान क्रिया।
अन्य दृष्टांत :- फलाने को खाने का अधिकार नहीं है, मुझे उपवास में भोजन निषिद्ध है।
ऐसे ही अटकलें कुतर्क की श्रेणी में रखी जाती हैं। दृष्टांत तो दिया किंतु उसमें हेतु क्या है? ऊपर से दृष्टांत भी धर्मी के गुण नहीं लिए हुए है भोजनादि ग्रहण,तृप्ति प्रत्यक्ष और अनुमान जन्य है, किन्तु धर्म का फल भविष्यत काल का प्रसंग होने से शास्त्रगम्य होने से प्रत्यक्ष,अनुमान आदि प्रमाणों से रहित है। यदि कोई अनुमान प्रमाण से जन्य फल को निरूपित करना चाहे तो उसे यह बताना होगा कि अनुमान में व्याप्ति क्या बनेगी? नहीं बन सकती।एवं दोनों परिस्थितियों में व्यक्ति को चांटा मारने वाला व्यक्ति पूर्वकाल में भिन्न है वर्तमान काल में भिन्न,भिन्न न भी हो तो काल का भी भेद है किन्तु यहां तो एक ही शास्त्र सब के लिए सार्वकालिक नियम विधान करता है।
वानर पुन:भी प्राणियों में मेधासंपन्न है ही किन्तु इनके कुतर्क , शुतुरमुर्ग तुल्य होते हैं। सिर छिपाने के लिए कुछ न कुछ सहारा (कुतर्कों) का ढूंढ लेते हैं और अधिकांश भाग स्वयं को नग्न (तर्कहीन) दिखने के लिए छोड़ देते हैं। भले ही लेखक में इस प्रकार का निरूपण करने की क्षमता न भी हो तो भी अन्य प्रकार के तर्क इस कारण ही दिए जाते हैं ताकि धर्म पालन में राग द्वेष है इस भावना का भान न रहे और व्यक्ति प्रवृत्त हो।
इसके आगे जो भी एक दो गद्यांश में आक्षेप किए गए हैं वह व्यक्तिगत ही हैं। उचित हो या अनुचित हमे उससे कोई लेना देना नहीं है। शास्त्र और धर्म के प्रतिपक्ष में जो भी हेतु इन व्यक्तियों द्वारा दिए गए उन्हें हमने काट दिया है। अब बस पाठकों के मनोरंजन मात्र के लिए व्यक्तिगत आक्षेपों का भी पंक्तिवत उत्तर दिया जाता है।
“मेरे द्वारा वर्णित “करपात्ररत्नसमुच्चय” में करपात्री महाराज के समस्त विचारों को आपने माना ही है! आपने अपने लेख में उनको शास्त्रसिद्ध किया है, और अन्य आचार्यों के विचारो का उदाहरण लेकर समतुल्यता प्रकट करने की चेष्टा की है। आपका लेख करपात्री महाराज के विचारो को बचाने की दृष्टि से है, यहां भी आपका ही दोष है क्योंकि आपने पहले ही मान लिया की यह सारे विचार महाराज जी के आभामंडल को हानि पहुंचा रहे हैं, ऐसे में आपको लेख लोगो को समझाने हेतु लिखना था नाकि मेरे खण्डन निमित्त”
तुम्हारे द्वारा लेख में मात्र करपात्री जी के विचार नहीं लिखे गए थे, उन विचारों पर अपने अनावश्यक विचार, करपात्री जी के विचारों का भावार्थ बदलना यह सब भी किया गया। उसका ही उत्तर वह है। तुम्हारी प्रतिज्ञा और कार्य में विरोध होने पर ही हम उसमें प्रवृत्त हुए। जहां पर व्याख्या करनी थी वहां व्याख्या की जहां तुम्हारे बचकाने वादों को काटना था वहां उसमें ही प्रवृत्त हुए। यह भी तुम नहीं कह सकते कि “आपने यह पहले ही मान लिया है कि यह सारे विचार महाराज जी के आभामंडल को हानि पहुंचा रहे हैं” हम तो सिद्धान्त की ही रक्षा के लिए विषय में प्रवृत्त होते हैं,धर्म ही हमारा ध्येय है। धर्मगुरुओं, शास्त्रनिष्ठ आचार्यों के विषय में अनर्थ कहना भी धर्म की ही हानि है उसके वारण में ही हम प्रवृत्त हुए। करपात्री जी के आभामंडल का तो कहना ही क्या है,तुम जैसे करोड़ों तिमिरकीट भी उसका कुछ नहीं कर सकते। हमारे पूर्वज धर्म का ही अनुसरण कर ख्याति प्राप्त किए हैं,अधर्मियों द्वारा कुछ भी विलाप किया जाए उससे क्या अन्तर पड़ता है? “अज्ञ जनता को करपात्री जी के विषय में भ्रम न हो” यह भी लेख में कहा ही गया है।
कितनी मूर्धन्यता का विषय है कि आप न जाने कहाँ-कहाँ के ग्रंथों से शास्त्रीय प्रमाण देने लगे महाराज जी के बातों का! अरे महाराज जी के मुख में तो सरस्वती विराजमान है तो जो वो बोलेंगे वो शास्त्रीय ही होगा (उनकी व्याख्यानुसार) आपको इतने प्रमाण देने के आवश्यकता नहीं है। और तो और यह सब व्यर्थ के विषयविमुख बातों पर व्यर्थ के पांडित्य का प्रदर्शन भी कुतर्क की पराकाष्ठा है। क्यों? क्योंकि मैं यहाँ(आलेख में) यह निर्णय थोड़ी कर रहा हूँ कि क्या सही क्या गलत? मैं यह भी निर्णय नहीं कर रहा हूँ कि यह शास्त्रप्रोक्त है सही है या शास्त्र विरुद्ध? धर्म विरुद्ध है या धर्मसंगत? मैं यहाँ कोई किसी के सिद्धांत का खण्डन थोड़ी न करने बैठा हूँ? मैं तो मात्र महाराज जी के विचार प्रस्तुत कर रहा था, उनको रेखांकित कर रहा था। जिसको मानना है मानो न मानना है मत मानो। लेखक को क्या? सीधी सीधी बात है! पाठक के सामने सारे विचार प्रदर्शित होने चाहिए उसको क्या चुनना है, यह उस पर निर्भर है। यहाँ पर केवल इस बात का निर्णय हो सकता है कि उन्होंने ऐसा कहा या नहीं? हाँ या न? थोड़ा बहुत मंशा/प्रयोजन पर भी विमर्श हो सकता था! किन्तु आलेख का स्वरुप न जानकर जघन्य पूर्वाग्रह से ग्रस्त कुछ भी अनर्गल विषयविमुख परिपेक्षविमुख थोथे पांडित्यविषयों को लिख देना तर्कसंगत ही नहीं है। परिसर की बाहर की चीज़ों पर व्यर्थ वाद विवाद करना जड़ता का सूचक है।
ठीक है,तुम मान रहे हो कि “करपात्री जी का प्रत्येक वचन शास्त्रीय होगा ही” यह उनकी व्याख्यानुसार क्या होता है? जो सन्दर्भ उन्होंने दिए हैं उनका कोई अन्य शिष्ट अर्थ करने का तुम में सामर्थ्य है तो करो,पुन:उसकी प्रामाणिकता पर चर्चा होगी। नहीं है तो शास्त्रीय तो तुमने मान ही लिया है,तो पुन:शास्त्र स्वीकार क्यों नहीं करते? इस कारण अनेक स्थानों पर लेखक प्रमा- अप्रमा, स्रोत, यथार्थ ज्ञान आदि विषयों पर चुप्पी साध लेता है। क्योंकि किसी एक पक्ष/ सम्प्रदाय का स्वयं को अनुयायी स्वीकार कर लेगा तो उसमें सभी दोष (उनके ही आचार्य वचनों) द्वारा हम सिद्ध कर देंगे। अत: लेखक “में किसी से संबद्ध नहीं हूं का ढोंग करता है। यह विचारसंकर प्रजाति दर्शन व्यवहार से शून्य है। यह जो कहा है कि “क्योंकि मैं यहाँ(आलेख में) यह निर्णय थोड़ी कर रहा हूँ कि क्या सही क्या गलत?” तो पुन:व्यवस्था को पुरुषार्थ शून्य कहना ,करपात्री जी के विचारों को अग्राह्य बताना यह क्या था? ऐसी स्पष्ट बातों को कहकर भी स्वयं को निष्पक्ष कहने का साहस करना कलुषित अन्त: करण की ही निशानी है। “पाठक के सामने विचार रखने चाहिए..चुनना” आदि कथन नहीं बन सकता क्योंकि तुमने कथन मात्र नहीं किया है, उनमें से अनेक वस्तुओं के स्वरूप को तोड़ मरोड़ कर रखा है। अज्ञ पाठक के सामने “संध्यावन्दन” नामक कर्म रखा जाय? वह किस आधार पर ग्रहणाग्रहण करेगा? संध्यावंदन कर्म को धार्मिक बताया जाए तभी तो प्रवृत्ति सम्भव होगी। हमारे द्वारा प्रकृत विषय से अन्य कुछ विचार ही नहीं किया गया है, उन्हें न समझ पाना तुम्हारी ही जड़ता का सूचक है।
यदि समझ नहीं आया तो उदाहरण स्वरूप अगर मैं बोलूं की मोदी ने कहा अच्छे दिन आयहंगे !! और आप यह बताने लग जाएँ संविधान खोलकर कि यह देखो इसके अनुसार यह होना चाहिए, इसके हिसाब से मोदी की बात शास्त्रसम्मत है तो इसमें मेरा क्या खण्डन हुआ?! और अगर इसके विपरीत संविधान खोलकर यह दिखाने लग जाओ कि यह गलत है वो गलत है, तो भी इसमें मोदी का खण्डन हुआ या मेरा? दोनो ही दृष्टि से संविधान प्रयोग तर्कसंगत नहीं है। और अगर आप यह बताने लग जाए कि राजनाथ ने भी यह बोला है, अलाने फलाने ने यह बोला है तो भी इसमें मेरे प्रयोजन से क्या लेना देना? इसमें मेरा खण्डन हुआ क्या ??
ईश्वर लेखक को तर्क सीखने की क्षमता प्रदान करे। दृष्टांत में हेतु की आकांक्षा का तो हमने त्याग कर ही दिया है किन्तु ऐसे मन्दमातियों के साथ साधर्म्य का त्याग भी करना होगा। “मोदी का अच्छे दिन का दावा करना” यह दृष्टांत है। किन्तु स्वामी करपात्री जी ने तो शास्त्रों का उद्धरण देकर ही प्रत्येक बात कही है। तुमने पूरे वाक्य समिल्लित क्यों नहीं किए। यह वैसा ही है कि यह कहा जाए कि देखो मोदी ऐसा कहता है? यह अग्राह्य है, अर्थात् मोदी के अनुसार व्यक्ति नहाए न! यह शैली ही तुम्हारे लेख की है। और राजनाथ आदि का दृष्टांत देना भी संगत नहीं हो सकता, इन पार्टीपोषित ग्रामशार्दूलों का किसी भी अंश में आप्त वाक्यों,ईश्वर वाक्यों और अपौरूषैय वेद वाक्यों से साम्य नहीं हो सकता। तुम्हारा खंडन नहीं हुआ’ तो यह अभी तक का इतना विलाप किसके लिए था? यदि स्वयं को कोई संविधान की परंपरा का अनुयायी कहे,संविधान को प्रमाण मानने वाला कहे तो ऐसे में मोदी के वचन संविधान सम्मत होने से प्रमाण होंगे ही। ऐसे ही कोई स्वयं को सनातन धर्म का अनुयाई कहे तो इससे सुदृढ़ स्थिति शास्त्र प्रमाण्य की है।
पूंछे नीम बतावें इमली वाला हाल हो रखा हैं! उपर से इसमें भी आप न्याय शास्त्र, अद्वैत, बौद्ध, आचार्यों के विचार, वेद शास्त्रादि ग्रंथो की अस्मिता पर वाद विवाद को उतार दिया! ऐसा लग रहा था जैसे कोई अद्वैत वाद, स्मार्त संप्रदाय से शास्त्रार्थ कर रहा हों! धन्य है प्रभो! यह सारी तोड़ तुमुन; यह सारे थोथलेबाजीं सिद्ध करतीं हैं कि आप अपने अभिनिवेषीयात्मसम्मान तक इसको उतार ले गए! अगर आपको पांडित्य प्रदर्शन करना है, तो शास्त्र सम्मत विधा से समझाइए लोगों को की किस प्रकार बालविवाह शस्त्रसम्मत है, इसके क्या क्या आध्यात्मिक सामाजिक लाभ है, किस प्रकार रजस्वला स्त्री के मन में विकार आता है, कैसे घूंघट से मोक्ष मार्ग सुलभ होता है, यह सब समझाइयह न, तब तो बात बनेगी!समझाइए की कैसे दलित, अन्त्यज, शूद्र मंदिर के शिखर कर मोक्ष प्राप्त करेगा!
लोगो को समझाएं कि किस प्रकार शूद्र को दास बनाया जाए, और उनके दासत्व में ही उनके मुक्ति का मार्ग है! अपने “धर्म सम्मुच्चय” को अपने अंजली में ही मत समेटिए, थोड़ा मानसिक अहंकारिक चक्कवाल से बाहर निकलिए, मठों से बाहर निकलिए और अपने प्रोक्त धर्म का प्रचार करिए, जन जन को समझाएं, उनका मोक्ष मार्ग सुलभ करावैं। सभी वर्णों को; शास्त्रोद्धरण से, शास्त्रगम प्रमाण से समझाइए की किस प्रकार एक जितेंद्रिय शूद्र हुआ तो भी अभिवादन नहीं करना है और दु:शील जन्मना ब्राह्मण भी हुआ तो भी पिता समान जी लगाकर हाथ जोड़ लेना है, अधर्मी ब्राह्मण के भी न दंड देने के प्रावधानादि अनेकानेक विषयों पर सुप्त हिंदू समाज को शिक्षित तो कीजिए! जन जन तक इनका मर्म समझाइए और स्वयं पालन कीजिए तब तो कुछ धर्मोत्थान होगा! जन्मना छुआछूत की अनिवार्यता समझाएं, जन्मना व्यवसाय से कैसे मोक्ष मिलता है यह बतलाए! कहा फंसे हुए है आप लोग! आखिर आप लोग यह कार्य नहीं करेंगे तो पुन:कौन करेगा? हम जैसे लेखक तो नहीं करेगें! जिस दिन आप पूर्ण रूप से मुझको/जन जन को इन विषयों पर संतुष्ट कर देंगे प्रत्यक्षानुमानागम प्रमाणों के धरातल पर उसी दिन मैं आपके मतों का अनुपालन कर्ता बन जाऊंगा! अभी हम जैसे लेखकों के मत जान कर क्या करना आपको??
बिलकुल, हम तो अनेक स्थलों पर शास्त्र सम्मत विवाह संस्कार, खान पान, मर्यादा आदि की रीति से अवगत करवाते ही हैं। तुम्हें क्या लगता है? हमारे द्वारा वर्णित वर्णधर्म यहां अन्य है और जीवन में अन्य, हमारे द्वारा वर्णित शास्त्रसम्मत विवाह संस्कार की आयु यहां अन्य हैं और जीवन में अन्य? बिल्कुल नहीं! दूसरा तुम्हारा हेतु भी गलत है “कैसे घूंघट से मोक्ष मिलता है,मंदिर के शिखर से कैसे मोक्ष मिलता है, जन्मना छुआछूत से कैसे मोक्ष मिलता है आदि” हम तो ज्ञानातिरिक्त किसी अन्य साधन से मोक्ष मानते ही नहीं, यह सब तो चित्त शुद्धि के ही मार्ग हैं। वैष्णवाचार्य आदि ज्ञानकर्मसमुच्चय पक्ष वाले हैं। आगम प्रमाण के आधार पर तो हमने स्पष्ट रूप से इनकी धार्मिकता सिद्ध कर दी है? क्या आपको स्वीकार्य है? नहीं!तो फिर ढोंग क्यों? प्रत्यक्ष के लिए हमने जो तर्क दिया कि “धर्म का फल भविष्य विषयक है ,इंद्रिय अर्थ का सन्निकर्ष वर्तमान विषयक” तो पुन:धर्म में प्रत्यक्ष की गति कैसे संभव है बताइए?उसका उत्तर भी आपके द्वारा नहीं दिया गया है। हम ब्राह्मण हैं हमारा कार्य केवल लोगों की प्रवृत्ति हेतु कथन,उपदेश,योजना,धर्मपथ प्रदर्शन मात्र करना है,किसी असाम्प्रदायिक संतुष्ट करना नहीं। आगे का कार्य क्षत्रिय देखें। हम तो हित के लिए ही धर्म का प्रचार करते हैं, हमें धर्म पर कर्मफल पर पूर्णरूपेण विश्वास है, अत: तुम्हे अपना अहित ही प्रिय हो तो इन कर्मों का उल्लंघन करो। क्या धर्म तुम्हारी दृष्टि में इतनी तुच्छ वस्तु है जो तुम्हारे मानने या किसी अन्य के न मानने से यह पालनीय या प्रामाणिक होगी? धर्म नियंत्रित तंत्र में तो शास्त्रवाद की सदैव जय ही होनी चाहिए, चाहे प्रेम से हो या दण्ड से।
दण्डो दमनादित्याहुस्तेनादान्तान्दमयहत्॥ २.२.२८॥ वर्णाश्रमाः स्वस्वधर्मनिष्ठाः प्रेत्य कर्मफलमनुभूय ततः शेषेन विशिष्टदेशजातिकुलरूपायुःश्रुतचित्रवित्तसुखमेधसो जन्म प्रतिपद्यन्ते॥ २.२.२९॥ विष्वञ्चो विपरीता नश्यन्ति॥ २.२.३०॥ तानाचार्योपदेशो दण्डश्च पालयते॥ गौतम २.२.३१॥
दमन करने के कारण ही दण्डविधि को दण्ड कहा गया है, उस दण्ड के द्वारा राजा उच्छृङ्खल व्यक्तियों को अपने वश में करे। ब्राह्मणादि वर्णों और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के लोग अपने-अपने धर्म में रत रहने परं मृत्यु के बाद अपने कर्मों के फल का भोग करते हैं और उसके अनंन्तर शेष बचे हुए कर्म के अनुसार विशेष देश, जाति, कुल, आयु, विद्या, आचार, धन, सुख और बुद्धि से युक्त होकर जन्म लेते हैं।
इसके विपरीत आचरण वाले अर्थात् स्वधर्म का पालन न करनेवाले अनेक योनियों में भटकते हुए नष्ट हो जाते हैं।
उन्हें नष्ट होने से बचाने के लिए क्या करें? तो बताते हैं―
उन्हें अर्थात् विपरीत आचरण वालों को आचार्यों का उपदेश और राजा का दण्ड सम्भालते हैं। तात्पर्य है कि पहले तो आचार्य प्रजाजनों को उनके वर्णाश्रम आदि के अनुसार शास्त्रीय आचरण का उपदेश करे। यदि कोई न माने, तो राजा दण्डप्रयोग से ऐसे अधर्मी लोगों से वर्णाश्रमधर्म का पालन करवा।।
दुष्यहयुः सर्ववर्णाश्च भिद्यहरन्सर्वसेतवः।
सर्वलोकप्रकोपश्च भवेद्दण्डस्य विभ्रमात्॥ मनु
दण्ड न देने से सब लोग वर्णधर्म के विरुद्ध आचरण में लग जाते हैं, यथा– ब्राह्मणादि वर्ण इतरेतर वर्णों की स्त्री से गमन करके संकरता फैलाते हैं और सब शास्त्रीय नियम छोड़ देते हैं। इससे लोक में उपद्रव होते हैं। तात्पर्य है कि दण्ड से वर्ण व्यवस्था का पालन अपेक्षित है। दण्ड से उच्छृंखल लोगों का दमन व सज्जनों का रक्षण करके वर्ण व्यवस्था का पालन करवाना चाहिए।
यहीं तो विडंबना है आप सभी में, हजारों वर्षो से खण्डन मंडन करते करते भी क्षुधा शांत नहीं हुई, व्यर्थ के लाल बुझक्कड़ के मानवनिर्मित शब्द जालों से आपने सामान्य जनता को बुन दिया! सत्य की संगोष्ठी केवल खण्डन कर्ता और प्रतिखण्डनकर्ता तक सिमट गई और कालक्रम में इसका उद्देश मात्र जातिगत शुक्रगत संप्रदायगत अहंकार के सींचन हेतु रह गया। वाद संवाद सत्य को अपनाने के लिए होता है! बाप दादा मिल्कायत के संरक्षण हेतु नहीं! यहाँ भी भाव अपनाने का है, जिसके लिए कुछ असत्य छोड़ना पड़ेगा जो की ट्रेडवाद की विचारधारा के विपरीत है। यह ऊल जलूल के कुतर्क शब्द भेदी जाल मात्र
नहीं ,खण्डन मंडन करना तो धर्म का ही स्वरूप है। षड दर्शनों में बहुत खण्डन मंडन हुआ है,वही परंपरा का वैशिष्ट्य है। सत्य की संगोष्ठी केवल खंडन करता और प्रतिखंडकर्ता तक सिमट गई भी नहीं कहा जा सकता, अनेकों व्यक्ति ऐसे हैं जो बौद्धों एवं सनानतियों के बीच हुए खंडन मंडन को तो जानते हैं पुस्तकों के रचयिता आदि के विषय में नहीं। यह संगोष्ठी सिद्धान्त मात्र के लिए होती है न कि व्यक्तियों के लिए। वाद सत्य अपनाने के लिए होता है,असत्य छोड़ना पड़ेगा, ऐसा कहने वाला कितना सत्य का पक्षधर है आप सभी ने देख ही लिया। बाप दादा की मिल्कियत भी यही व्यक्ति बचा रहे हैं जो अभी तक अपना सिद्धान्त भी नही तय कर पाए।
सत्य और ब्रह्म से मीलों दूर।आपसे विनम्र निवेदन है मध्यकालीन मलों को एवं मन के मैलों को त्याग दें! मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि काट्याकाट्य तर्कों के द्वारा संसार की किसी भी वस्तु की तर्कसंगतता सिद्ध करते हुए समर्थन दिया जा सकता है। मैं स्वयं अपने लिखे हुए का बलात् खण्डन कर सकता हूं। हराना बहुत आसान है, जीतना कठिन है और इनके मध्य से कुछ सीखना दुर्गम है। गुरु गोरखनाथ का आदेश है “पंडित सो न करिबा वाद“; अत: शांति की कामना करते हुए मैं सारे विवाद का अंत कर देता हूँ।
यह भी विलाप मात्र है “सत्य से मीलों दूर तो तुमने सिद्ध नहीं किया” ब्रह्म से मीलों दूर? क्या प्रकृत विषय ब्रह्म का है? क्या तुम जैसे व्यक्ति ब्रह्मज्ञान के अधिकारी हैं? पुन: लेखक मध्यकालीन मध्यकालीन का रोना लगाए बैठता है। हमने बहुत साधारण तर्क मध्यकालीन के स्थान पर अनादि सिद्ध करने के पक्ष में दिया था उसका उत्तर लेखक से नहीं बना,उत्तर क्या ऐसा प्रतीत होता है कि पक्ष ही सर के ऊपर से गया होगा। किंतु हवाई किला मात्र बनाकर लेखक स्वयं को “सत्य से मीलों दूर होना सिद्ध कर रहा है। आजकल अज्ञ, अप्रतिभ व्यक्ति भी “मूर्खों को नहीं समझाया जा सकता” ““पंडित सो न करिबा वाद“” जैसी उक्तियों को जगह जगह उद्धृत कर स्वयं को पंडित घोषित कर देते हैं। तुम्हारी प्रतिज्ञा कितनी लचर है उसकी स्थिति में कहीं भी यह वचन नहीं बन सकता “अत: शांति की कामना करते हुए मैं सारे विवाद का अंत कर देता हूँ।” यही वचन लेख लिखने से पूर्व लिखा गया था, किन्तु पुन:तुम वाद को प्रवृत्त हुए। अनेकों बार प्रतिज्ञाहानि के शिकार तुम हो चुके हो, अत: पुन:अपनी प्रतिज्ञाहानि की परम्परा अक्षुण्ण रख कुछ लिखना हो तो लिखो हम उत्तर देने को तैयार हैं।
यह नोट आपके संशय विपर्यय से ग्रसित, और आपके कुतर्कों से भरे, और गालियों और आक्षेपों से सजे प्रति उत्तर के खोखले पन को ही प्रकट करती है। आपको अपने लिखे हुए पर ही विश्वास न था! अत: आप पुन: मेरे प्रत्युत्तर के खण्डन हेतु लालायित थे। मुझे न ही परंपरावाद, न ही शास्त्रवाद से समस्या है! हाँ ट्रैड वाद से जरूर है!
अरे बालक तुम्हें क्या संशय का लक्षण भी ज्ञात है,या बस शब्दों को देख कर ही दोहरा देते हो?”समानानेकधर्मोपपत्तेः विप्रतिपत्तेः उपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातः च विशेषापेक्षः विमर्शः संशयः” यह हमारे पक्ष में कहीं नहीं घटता। गालियां कहां दी गई यह भी तुमने स्पष्ट नहीं किया। हमे अपने लिखे खंडन पर विश्वास था इसीलिए तो निश्चिन्त थे कि कोई प्रतिखंडन भी आया तो हम एक एक तर्क को काट डालेंगे। विचार विनिमय के लिए ही प्रोत्साहन दिया जाता ही है। जैसा कि अन्तिम पंक्ति भी है “इससे शास्त्रवादियों का ही पक्ष प्रबल होगा” तुम्हें परमपरवाद और शास्त्रवाद से समस्या नहीं है?हमने तो पूरा पक्ष ही वेदादि शास्त्रों तन्मूलक स्मृतियों एव संप्रदाय परंपरा से ही दिया है तुम्हें उसका विरोध भी करना है और कहते हो कि इनसे समस्या नहीं है? तुम्हारी समस्या इन सब से ही है अर्थांतर मात्र है। हमारे सिद्धांत में तो पारंपरिक (ट्रेड) व्यक्ति वह ही है जो वेदादि शास्त्रों का प्रामण्य माने,परंपराओं की रक्षा करे। तुम या अन्य तो अपने अनुसार ही किसी को कुछ भी घोषित कर सकते हो,उससे सिद्धान्त थोड़े ही परिवर्तित हो जाएगा। वास्तव में ऐसे व्यक्तियों को समस्या तो एक ही वस्तु से है, किन्तु वस्तु के प्रसिद्धनाम को ही अपनी समस्या बताने का यह प्रयास करते हैं।
अत: सर्वहित में यही होगा कि शास्त्रीय सिद्धांतों के विरुद्ध विषवमन बंद हो। यदि शास्त्रों के विरुद्ध ही वक्तव्य देने हैं तो खुलकर कहिए कि मैं शास्त्रों को नहीं मानता, धर्म को नहीं मानता, नास्तिक हूं! हम उस प्रक्रिया में ही वक्तव्यों का उत्तर देंगे। किन्तु विडम्बना यह है कि इन नव हिन्दुओं को तो धार्मिक भी दिखना है और शास्त्रों की अवहेलना भी करनी है। इस कारण कोई भी पक्ष लेने में यह भयभीत होते हैं। ऐसी विचारसंकर स्थिति को प्राप्त होने से धर्मानुयायी बचें। इति।।
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