किसी भी सभ्य समाज में मार-काट, उपद्रव, हिंसा, आगज़नी, अराजकता आदि के लिए कोई जगह नहीं होती| ऐसी दुष्प्रवृत्तियों को कदापि स्वीकार नहीं किया जा सकता| और भारत जैसे लोकतांत्रिक एवं सर्वसमावेशी देश में तो इसके लिए किंचित मात्र भी स्थान नहीं| भारत तो संवाद, सहयोग, सहजीविता का दूसरा नाम है| किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जन-मन की भावनाओं-आकांक्षाओं, सहमति-विरोध को प्रकट करने के अनेकानेक वैध स्वरूप और माध्यम होते हैं | उसमें असहमति, आलोचना, अहिंसक आंदोलन आदि के लिए भी पर्याप्त स्थान होता है|  परंतु मार-काट, लूट-खसोट, हिंसा, आगज़नी, ख़ून-ख़च्चर, चाहे वह किसी भी कारण या मकसद से किया गया हो- असभ्य और अमानुषिक आचरण ही कहलाएगा| ऐसी घटनाएँ मनुष्यता को शर्मसार करती हैं|

पहले दिल्ली और अब बेंगलुरु में हुई हिंसा एवं आगज़नी ने हमें यह सोचने पर विवश कर दिया है कि क्या हमारे समाज का एक तबक़ा शताब्दियों पूर्व की क़बीलाई मानसिकता का परित्याग कर पाया है और यदि कर भी सका है तो किस अनुपात और प्रतिशत में…? धर्म और आस्था को ठेस पहुँचाना बुरा है| पर क्या यह सिद्धांत किसी एक समुदाय पर ही लागू होता है? आए दिन मज़हबी मान्यता के आहत होने के नाम पर सैकड़ों गाड़ियों को आग के हवाले कर देना, दुकानों और घरों में तोड़-फोड़ करना, पुलिस-प्रशासन पर हमला कर देना, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाना- क्या सभ्य एवं लोकतांत्रिक आचरण है? क्या इसे किसी भी सूरत में जायज़ ठहराया जा सकता है? क्या ज़िंदा लोगों के जान-माल से अधिक मूल्यवान-महत्त्वपूर्ण कोई पीर-पैग़ंबर हो सकता है? श्रद्धा और आस्था को इस देश से बेहतर क्या कोई और देश भी समझ सकता है? क्या व्यक्ति विशेष के कुकृत्य का प्रतिशोध संपूर्ण समाज, पुलिस-प्रशासन, व्यवस्था से लिया जा सकता है? बात निकलेगी तो फिर दूर तक जाएगी| सवाल यह भी कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देने वाले क्या केवल कुछ चुनिंदा मुद्दों या समुदायों तक ही इसे सीमित रखना चाहते हैं? क्या लोकतंत्र में किसी को यह छूट दी जा सकती है कि वह पुलिस-प्रशासन से लेकर पूरे-के-पूरे शहर को बंधक बना ले?

बेंगलुरु के केजी हल्ली और डीजे हल्ली थाने में जो हुआ वह अराजकता की पराकाष्ठा थीI यह कोई भावात्मक या त्वरित प्रतिक्रिया नहीं थी|उन्होंने गुरिल्ला युद्ध की सुनियोजित तैयारी कर रखी थी| इतने कम समय में उपद्रवियों-आतताइयों का उपद्रव करके बिलकुल  निर्बाध एवं निश्चिंत लौट जाना बिना पूर्व तैयारी के संभव ही नहीं था? दंगाइयों ने छोटे-छोटे समूह में स्वयं को विभाजित कर एक अभेद्य-किला बनाते हुए दंगा-क्षेत्र के भीतर प्रभावित थाने तक न तो किसी को प्रविष्ट करने दिया, न हेडक्वार्टर से कोई मदद ही पहुँचने दी| यह उनका सुविचारित प्रयोग था और इस प्रयोग में ‘अब्दुल रहमान’ जैसे पढ़े-लिखे डॉक्टर भी शामिल थे| एक जानकारी के मुताबिक गिरफ्तार लोगों में दस आईटी प्रोफेशनलस भी सम्मिलित हैं| पढ़े-लिखे, खाते-पीते लोगों का दंगा में शामिल होना उस तर्क को ख़ारिज करता है कि अशिक्षा और बेरोजगारी दंगे व आतंक की प्रमुख वज़हों में से एक है| अब असली चिंता यह है कि यदि समय रहते सख़्त कार्रवाई नहीं हुई तो ऐसे प्रयोग देश के बाकी शहरों में भी दुहराए जा सकते हैं| आख़िर कब तक पुलिस-प्रशासन दंगाइयों की हिंसा का शिकार होती रहेगी? सवाल यह भी है कि जब संविधान उन्हें दंगाइयों-बलवाइयों से निपटने के सारे अधिकार देता है, फिर वे उनके समक्ष आत्मसमर्पण की मुद्रा में क्यों आ जाते हैं? क्या इससे उनकी बची-खुची साख़ भी ख़त्म नहीं होती?

हिंसा और अराजकता की ऐसी बदरंग तस्वीरों के सुर्खियाँ बटोरने के बावजूद तमाम बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों का इस पर मौन साध जाना पाखंड से भरा दोहरा आचरण है| आए दिन असहिष्णुता का राग अलापने वाले लोग ऐसे हिंसक दृश्यों में समुदाय-विशेष की एकपक्षीय संलिप्तता देखकर प्रायः मौन साध जाते हैं| क्या यह उपद्रवियों एवं दंगाइयों के मनोबल को बढ़ाना नहीं है? क्या यह उनके कुकृत्यों को मौन सहमति प्रदान करना नहीं है? ज़रा कल्पना कीजिए, कल्पना कीजिए कि यही विरोध या प्रदर्शन हिंदू देवी-देवता या धर्म-आस्था को ठेस पहुँचाने पर हो रहा होता तो देश का सेकुलर ब्रिगेड गला फाड़-फाड़कर यह कहते नहीं थकता कि क्या हमारे देवी-देवता, धर्म-आस्था का आधार इतना दुर्बल है कि किसी की टिप्पणी-पोस्ट से वह ध्वस्त हो जाएगा, कि धर्म-आस्था, ईश-पैग़ंबर जैसी सर्वोच्च सत्ताएँ ऐसी टीके-टिप्पणियों से बहुत ऊपर हैं? गौरतलब यह है कि इस कथित पोस्ट को तो दुनिया ने न देखा, न सुना| यहाँ तो कला एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हिंदू देवी-देवताओं एवं मान्यताओं पर हर दूसरे दिन अपमानजनक टिप्पणी की जाती है| उस पर तो कहीं कोई आपत्ति नहीं की जाती| सेकुलरिज्म के इस दोहरे और दोगले रवैये ने देश को सर्वाधिक नुक़सान पहुँचाया है| अचरज यह भी कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता का सामूहिक कोरस गाने वाले धर्म में असहिष्णुता अवश्य ढूँढ़ लाते हैं|

अराजकता के व्याकरण में विश्वास रखने वाला समूह चेहरा और वेष बदल-बदलकर देश को लहूलुहान कर रहा है और कथित धर्मनिरपेक्ष धड़ा एकदम चुप है| कभी दिल्ली, कभी कानपुर, कभी केरल तो कभी बेंगलुरु| स्थान अलग-अलग, पर हिंसा एवं उपद्रव की प्रवृत्ति, प्रकृति और पृष्ठभूमि एक जैसी| शाहीनबाग, जामिया, अलीगढ़, कानपुर, केरल या बेंगलुरु में हुई हिंसा-आगजनी किसी सुनियोजित षड्यंत्र की ओर स्पष्ट संकेत करती है| महज़ चंद घण्टों में बमों-असलहों-पत्थरों से लैस भारी भीड़ का जुटना बिना पूर्व तैयारी और व्यापक नेटवर्क के संभव नहीं| यह एक प्रभावी, परिणामदायी एवं दंगों पर अंकुश लगाने वाला स्वागत योग्य क़दम है कि पहले उत्तरप्रदेश और अब कर्नाटक सरकार इन दंगाइयों-बलवाइयों की संपत्ति ज़ब्त कर दंगे और आगज़नी से हुए आर्थिक नुक़सान की भरपाई करना चाह रही है| सरकार को बिना किसी दबाव में आए ऐसे दंगाइयों एवं उनके आकाओं को चिह्नित कर उनसे अनुमानित क्षति का पाई-पाई तुरंत वसूलना चाहिए| इतना ही नहीं दंगा एवं हिंसा में संलिप्त संगठनों पर अविलंब प्रतिबंध भी भविष्य के लिए एक ठोस उपचार सिद्ध होगा|

विदित हो कि इन सभी घटनाओं में बार-बार कट्टर इस्लामिक संगठन पीएफआई और उसके राजनीतिक चेहरे एसडीपीआई का नाम आ रहा है|ये वही संगठन हैं जिनका नाम केरल और कर्नाटक में काम करने वाले संघ-कार्यकर्ताओं की हत्या में भी कई बार सामने आ चुका है| बेंगलुरु के ही जनप्रिय संघ-कार्यकर्त्ता ‘रुद्रेश’ की हत्या में पीएफआई का नाम प्रमुखता से उछला था| केवल इतना ही नहीं इन दोनों संगठनों को सहयोग देने वालों का संजाल भी देश-विदेश तक फैला हुआ है| इसमें राजनेताओं एवं रसूखदारों की संलिप्तता को भी स्वतंत्र जाँच का विषय बनाना चाहिए| 

सनद रहे कि पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया वही संगठन है जो शाहीनबाग के प्रदर्शनकारियों को फंडिंग कर रहा था| उस समय लगभग 15 प्रदर्शनकारियों के खातों में 1 करोड़ से अधिक की राशि इसी संगठन के द्वारा जमा कराई गई थी| बल्कि इसी कट्टरपंथी संगठन ने तब दिल्ली दंगों के मुख्य अभियुक्त ताहिर हुसैन का बचाव करते हुए कहा था कि ”उसकी कोई ग़लती नहीं थी, वह तो राजनीति का शिकार बेचारा मुसलमान है|” (सैलेक्टिव नैरेटिव का एक विश्वव्यापी-वामपंथी चलन यह भी है कि मुसलमान प्रायः बेचारा और पीड़ित ही होता है और यदि जो कहीं वह मुसलमान उस शहर या देश में अल्पसंख्यक है तो उसकी बेचारगी पर निश्चित मुहर लग जाती है|) 

पुलिस की छानबीन से यह तथ्य सामने आया है कि नागरिकता क़ानून के विरोध के नाम पर इस संगठन ने देश भर में हिंसक दंगे कराने की साज़िश रची थी| उत्तरप्रदेश समेत देश के सात राज्यों में यह संगठन लगभग 2009 से ही सक्रिय है| इसके कई पदाधिकारी पूर्व में सिमी जैसे प्रतिबंधित कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन के सदस्य रह चुके हैं| बल्कि एनआइए की एक रिपोर्ट के अनुसार इस संगठन की आतंकवादी घटनाओं में भी संदिग्ध भूमिका रही है| इसने घोषित रूप से स्वयं को ग़रीबों-पिछड़ों के लिए काम करने वाला संगठन तो बताया है, पर इसका असली मक़सद धर्मांतरण एवं धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा देना रहा है| और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (SDPI) इसकी राजनीतिक शाखा है|

परंतु इससे भी आश्चर्यजनक यह है कि इन दोनों संगठनों और इनकी देश-विरोधी गतिविधियों पर अधिकांश राजनीतिक दलों ने नपुंसक  मौन साध रखा है| हद तो यह है कि दलितों के हितों की पैरोकारी का दावा करने वाले तमाम राजनीतिक दल बेंगलुरु-हिंसा पर अपना मुँह तक खोलने को तैयार नहीं| एक दलित विधायक के आवास पर उपद्रवियों-दंगाइयों द्वारा किए गए तोड़-फोड़ एवं आगज़नी का सामान्य विरोध करने तक का वे साहस नहीं जुटा पाए|कांग्रेस का आलम तो यह है कि वह अपने दलित विधायक का साथ छोड़ने को तैयार है,पर अपना अल्पसंख्यक वोट-बैंक छोड़ने को नहीं| इसे ही कहते हैं घोर तुष्टिकरण की राजनीति| विरोध तो दूर, पीएफआई जैसे कट्टर इस्लामिक संगठन का केस दिग्गज़ काँग्रेसी नेता कपिल सिब्बल लड़ते रहे हैं| हामिद अंसारी इस संगठन के सार्वजनिक जलसे में शिरकत कर चुके हैं| आप के तमाम नेताओं का पीएफआई से प्रत्यक्ष-परोक्ष संबंध उजागर हो चुका है| वोट-बैंक की ख़ातिर आख़िर कब तक देश को सांप्रदायिकता और दंगे की आग में झोंकने का यह षड्यंत्र चलता रहेगा? जैसे काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ाई जा सकती वैसे ही तुष्टिकरण की फ़सल भी बार-बार नहीं काटी जा सकती| तुष्टिकरण की विभाजनकारी राजनीति पर अविलंब विराम अत्यावश्यक है| यह न देश के लिए लाभदायक है, न अल्पसंख्यक तबकों के लिए|

अल्पसंख्यक समुदाय को यह समझना होगा कि तुष्टिकरण या दबाव बनाने की इन भयावह प्रवृत्तियों का सर्वाधिक नुक़सान उन्हें ही उठाना पड़ा है| कट्टरता की अफ़ीम खिलाकर उन्हें ग़रीबी एवं बेरोज़गारी की अंधी सुरंग में भटकने के लिए छोड़ दिया जाता है| ऐसी हिंसक गतिविधियाँ एवं अराजक प्रवृत्तियाँ समाज में विभाजन की स्थाई रेखा खींचती है| दंगों-बलवों के घाव इतने गहरे होते हैं कि उसे भरने में दशकों लग जाते हैं| 

आज आवश्यकता इस बात की है कि कोई भी समुदाय भीड़ की तरह सोचना छोड़कर जागरूक मतदाता वर्ग या व्यक्ति की तरह सोचे और जिम्मेदार नागरिक की भाँति देश के विकास में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करे| इस्लाम को मानने वालों में से अधिकांश की बड़ी समस्या ही यही है कि वे मंगल और चाँद पर पहुँचते कदमों के इस आधुनिक दौर में भी बंद समूह या झुंड की मानसिकता से बाहर आने को तैयार नहीं, जबकि उन्हें समूह या झुंड की भाँति न सोचकर एक स्वतंत्र-समग्र-जागरूक-जिम्मेदार व्यक्ति की तरह सोचना चाहिए| और हर व्यक्ति या समुदाय को  क़ानून और संविधान को अपना काम करने देना चाहिए और समाज के सभी वर्गों-समुदायों को एकजुट होकर राष्ट्रीय विकास एवं सौहार्द्रपूर्ण परिवेश में अपना-अपना योगदान देना चाहिए| यही बदलते भारत की संपूर्ण, स्वस्थ एवं सच्ची तस्वीर होगी| 
प्रणय कुमार
गोटन, राजस्थान
9588225950

Reply Forward

DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.