6 दिसंबर, आज भारतरत्न डॉ बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की पुण्यतिथि है। इस अवसर पर उनके सुविचारों की सुधि हो आना स्वाभाविक है। वे अपने अधिकांश सभी समकालीन राजनीतिज्ञों की तुलना में राजनीति की ठोस, बेहतर एवं व्यावहारिक समझ रखते थे। देश के समस्याओं की उन्हें बेहतर समझ भी थी और उसके समाधान भी वे भारत की दृष्टि से ही सोचते थे। उसके कुछ उदाहरणों को देखना दिलचस्प, प्रेरणादायी एवं समाधानपरक रहेगा। कम्युनिस्टों की देशविरोधी मनोवृत्ति को वे उस प्रारंभिक अवस्था में भाँप सके थे।उन्होंने 1933 में महाराष्ट्र की एक सभा को संबोधित करते हुए कहा कि ”कुछ लोग मेरे बारे में दुष्प्रचार कर रहे हैं कि मैं कम्युनिस्टों से मिल गया हूँ। यह मनगढ़ंत और बेबुनियाद है। मैं कम्युनिस्टों से कभी नहीं मिल सकता क्योंकि कम्युनिस्ट स्वभावतः धूर्त्त होते हैं। वे मजदूरों के नाम पर राजनीति तो करते हैं, पर मज़दूरों को भयानक शोषण के चक्र में फँसाए रखते हैं। अभी तक कम्युनिस्टों के शासन को देखकर तो यही स्पष्ट होता है।”इतना ही नहीं उन्होंने नेहरू सरकार की विदेश नीति पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ”हमारी विदेश नीति बिलकुल लचर है। हम गुटनिरपेक्षता के नाम पर भारत की महान संसदीय परंपरा को साम्यवादियों (कम्युनिस्टों) की झोली में नहीं डाल सकते।” हमें अपनी महान परंपरा के अनुकूल रीति-नीति बनानी होगी।वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 1952 में नेहरू सरकार की यह कहते हुए आलोचना की थी कि उसने सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि ”भारत अपनी महान संसदीय एवं लोकतांत्रिक परंपरा के आधार पर संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा-परिषद का स्वाभाविक दावेदार है। और भारत सरकार को इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए।” 1953 में तत्कालीन नेहरू सरकार को आगाह करते हुए उन्होंने चेताया कि ”चीन तिब्बत पर आधिपत्य स्थापित कर रहा है और भारत उसकी सुरक्षा के लिए कोई पहल नहीं कर रहा है, भविष्य में भारत को उसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगें।” तिब्बत पर चीन के कब्ज़े का उन्होंने बहुत मुखर विरोध किया था और इस मुद्दे को विश्व-मंच पर उठाने के लिए नेहरू सरकार से लगातार अपील की थी। वे नेहरू जी द्वारा कश्मीर के मुद्दे को यू.एन में ले जाने की मुखर आलोचना करते रहे। उन्होंने स्पष्ट कहा कि ”कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है और कोई भी संप्रभु राष्ट्र अपने आंतरिक मामले को स्वयं सुलझाता है, कहीं अन्य लेकर नहीं जाता।” शेख अब्दुल्ला के साथ धारा 370 पर बातचीत करते हुए उन्होंने कहा कि ”आप चाहते हैं कि कश्मीर का भारत में विलय हो, कश्मीर के नागरिकों को भारत में कहीं भी आने-जाने-बसने का अधिकार हो, पर शेष भारतवासी को कश्मीर में आने-जाने-बसने का अधिकार न मिले। देश के क़ानून-मंत्री के रूप में मैं देश के साथ ऐसी गद्दारी और विश्वासघात नहीं कर सकता।” इतनी स्पष्ट राय रखने वाला व्यक्ति वही हो सकता है जो देश के हित के बारे में पल-पल सोचता हो। जिन्ना द्वारा छेड़े गए पृथकतावादी आंदोलन और द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को मिले लगभग 90 प्रतिशत मुस्लिमों के व्यापक समर्थन पर उन्होंने कहा- ” पूरी दुनिया में रह रहे मुसलमानों की एक सामान्य प्रवृत्ति है, कि उनकी निष्ठा अपने राष्ट्र-राज्य(नेशन स्टेट) से अधिक अपने पवित्र स्थानों, पैग़ंबरों और मज़हब के प्रति होती है। मुस्लिम समुदाय राष्ट्रीय समाज के साथ आसानी से घुल-मिल नहीं सकता। वह हमेशा राष्ट्र से पहले अपनी मज़हब की सोचेगा।” मज़हब के प्रति मुस्लिम समाज की ज़ुनूनी सोच पर कदाचित इतनी स्पष्ट एवं मुखर राय रखने वाला व्यक्ति उस समय भारतीय राजनीति में शायद ही कोई और हो! मज़हब के आधार पर हुए विभाजन के पश्चात तत्कालीन काँग्रेस नेतृत्व द्वारा मुसलमानों को उनके हिस्से का भूभाग (कुल भूभाग का 35 प्रतिशत) दिए जाने के बावजूद उन्हें भारत में रोके जाने को लेकर वे बहुत क्षुब्ध एवं असंतुष्ट थे। उन्होंने इस संदर्भ में गाँधी को पत्र लिखकर अपना विरोध व्यक्त किया था। आश्चर्य है कि उस समय मुस्लिमों की आबादी भारत की कुल आबादी की लगभग 22 प्रतिशत थी और उस बाइस प्रतिशत में से केवल 14 प्रतिशत मुसलमान ही पाकिस्तान गए। उनमें से आठ प्रतिशत यहीं रह गए। राजनीति की सामान्य समझ रखने वाला व्यक्ति भी इतनी कम आबादी के लिए मातृभूमि का इतना बड़ा भूभाग देने को तैयार नहीं होगा। आंबेडकर ने तत्कालीन काँग्रेस की इस अतिरिक्त उदारता को मूढ़ता का पर्याय बताया। उल्लेखनीय है कि वे संघ के कार्यक्रमों में भी तीन बार गए थे। विजयादशमी पर आहूत संघ के एक वार्षिक आयोजन में वे मुख्य अतिथि की हैसियत से सम्मिलित हुए। उस कार्यक्रम में लगभग 610 स्वयंसेवक थे। उनके द्वारा आग्रहपूर्वक पूछे जाने पर जब उन्हें विदित हुआ कि उनमें से 103 वंचित/दलित समाज से हैं तो उन्हें बड़ा आश्चर्य और सुखद संतोष हुआ। उन सब स्वयंसेवकों के बीच आत्मीय एवं समरस व्यवहार देखकर उन्होंने संघ और डॉ हेडगेवार की सार्वजनिक सराहना की। न केवल सार्वजनिक सराहना की, अपितु वे जीवन-पर्यंत डॉ हेडगेवार और संघ के निकट रहे। उनकी प्रगतिशील एवं सर्वसमावेशी सोच का एक उदाहरण यह भी है कि उन्होंने अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए केवल दस साल तक आरक्षण की व्यवस्था रखी थी। उसके बाद उन्होंने उनकी वास्तविक स्थितियों के आकलन-विश्लेषण का प्रावधान रखा था। यह उनकी ईमानदारी एवं साफ नीयत का प्रमाण है। और सबसे बड़ी बात कि हिंदू-समाज में व्याप्त छुआछूत एवं भेदभाव से वे क्षुब्ध एवं दुःखी अवश्य थे। ऐसा नहीं था कि उन्होंने सीधे धर्म परिवर्तन का निर्णय कर लिया। उन्होंने पहले स्वयं सामाजिक जागृत्ति के तमाम कार्यक्रम चलाए, तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक नेताओं से बार-बार वंचित समाज के प्रति उत्तम व्यवहार, न्याय एवं समानता की अपील की। जब उन सबका व्यापक प्रभाव नहीं पड़ा, तब कहीं जाकर अपनी मृत्यु से दो वर्ष पूर्व उन्होंने अपने अनुयायियों समेत धर्म परिवर्तन किया। पर प्रशंसनीय यह है कि उन्होंने हिंदू-मूल के बौद्ध धर्म को अपनाया, जबकि उन्हें और उनके अनुयायियों को लुभाने के लिए दूसरी ओर से तमाम पासे फेंकें जा रहे थे। वे मसीही-अब्राहमिक जाल में नहीं फँसे। वे जानते थे कि भारतीय मूल के धर्म में ही भारत और भारतीयता को संरक्षित रखा जा सकता है। अच्छा होता कि उनके नाम पर दलितों की राजनीति करने वाले तमाम दल और नेता उनके विचारों को पढ़ने का भी अवसर निकालते और उनकी बौद्धिक-राजनीतिक दृष्टि से कोई सीख लेते! कदाचित यह संभव होता तो सचमुच देश के लिए बड़ा शुभ, सुदंर और सार्थक होता! प्रणय कुमार |
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