भारतीय संडास दर असल खुले में शौच का हीं एक सुधरा हुआ रूप है जिसमें मल विसर्जन प्रक्रिया में बैठने की स्थिति से देह प्राक्षालन प्रक्रिया तक लगभग समान होता है , बस विसर्जित मल एक गड्ढे में जमा होता जाता है और उस गड्ढे के भर जाने पर फिर से कहीं और गड्ढा खोद कर वही संडास बनाया जा सकता है और गड्ढे में भरा हुआ मल कुछ हीं दिनों में पुनः मिट्टी तब्दील हो जाता है। प्रदूषण या दुर्गन्ध का कोई मुद्दा हीं नहीं था।
परन्तु पाश्चात्य संस्कृति में मल विसर्जक कमोड के बनने से पहले ये लोग कैसे फ़ारिग या फ़्रैश होते होंगे ये मेरे लिये ज़रूर कौतूहल का विषय है क्योंकि ये सब यदि पंजों के बल बैठ कर मल विसर्जन करते तो लगभग भारतीय संडास की हीं अगली कड़ी मिलती परन्तु घुटनों को एल शेप में मोड़ कर वगैर कुर्सी के कुर्सीनुमा बैठ कर यदि पाश्चात्य परम्परा में कोई मानव मल विसर्जन करता है तो जरूर उस मल को ये लोग संरक्षित करते होंगे और कोई अन्य उपयोग में लाते होंगे जैसे हम भारतीय गाय भैसों के गोबर से उपले बनाते हैं , घर लीपते हैं या उसे उठाकर कृषि योग्य भूमि में डालते हैं ताकि भूमि उपजाऊ हो जाये।
अब मेरा आरोप पाश्चात्य जगत के लोगों पर मलभक्षी होने का है इसके साक्ष्य में मैं आपको कॉफ़ी की कुछ उम्दा प्रकारों का जिक्र करूँगा जिसे कैट सिवेट कॉफ़ी, एनिमल पू काफ़ी , ब्लैक आइवरी कॉफ़ी और मंकी पू कॉफ़ी या मंकी स्पिटेड कॉफ़ी कहते हैं।
कैट सिवेट एक बिल्ली नुमा जीव है जिसे कॉफ़ी बीन्स खिलाये जाते हैं पर ये बीन्स वो बेचारा जीव पचा नहीं पाता है और उसके विसर्जित मल से ये काफ़ी बीन्स निकाल लिये जाते हैं । इस बिल्ली के शरीर में बने एंजाइमों से उन बीन्स में कुछ अद्वितीय स्वर्गीय फ़्लेवर आ जाता है और उसका रेट आप इंटर्नेट पर देख सकते हैं। यही हाल ब्लैक आइवरी काफ़ी के लिये होता है जिसमें हाथी को ये काफ़ी बीन्स खिलाये जाते हैं और फिर उनके मल या लीद से ये काफ़ी बीन्स चुने जाते हैं और काफ़ी बनाई जाती है प्रोसेसिंग के बाद। अनपचे होने पर भी हाथियों के पेट में बने एंजाइम इन कॉफ़ी बीन्स में अनोखी सुरभि भर देते हैं।
अब बात करते हैं मंकी पू काफ़ी या मंकी स्पिटेड काफ़ी का। बन्दरों को भी काफ़ी बीन्स खाने का मौका दिया जाता है या जबरन खिलाया जाता है । कुछ बीन्स को न्बन्दर खा कर थूक देते हैं और उन थूके हुए काफ़ी बीन्स को प्रोसेस करके काफ़ी बनाई जाती है और दुनियाँ को एक बेहतरीन काफ़ी का फ़्लेवर मिलता है।
आपकी जानकारी को पुख्ता बनाने के लिये इन्टरनेट उपलब्ध है… गूगल कर के देख सकते हैं ।
अब मेरा आरोप …
भिन्न भिन्न प्रकार के जीवों के मलों से काफ़ी का बेहतरीन फ़्लेवर पा लेना या ढूँढ लेना ये जरूर बताता है कि ये संस्कृति मल भक्षण करती रही है तभी तो भिन्न भिन्न प्रकार के जीवों के मल का स्वाद और गंध ये जानते हैं। प्राचीन रोम में मानव मूत्र का सैनिटाइज़र/ डिसैन्फ़ैक्टैन्ट के रूप में प्रयोग किया जाता था।
इनके मल विसर्जन का कमोड भी मल संग्राहक उपादान जैसा दीखता है और मेरा यकीन है कि जिस भी जीव ने मल विसर्जन काफी ऊँचाई से किया है मानव जाति लगभग उन का मल संग्रह कर लेती है। मनुष्यों का खुले में शौच कभी भी मल को संग्रहणीय होने की संभावना व्यक्त नहीं करता है परन्तु पाश्चात्य कमोड की बनावट और प्रयोग की विधि पाश्चात्य संस्कृति में मल भक्षण परम्परा की ओर इंगित तो करती हीं है।

DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.