ईश्वर एवं गुरु एक ही हैं। गुरु अर्थात ईश्वर का साकार रूप एवं ईश्वर अर्थात गुरु का निराकार रूप।

अधिकोष अर्थात बैंक की अनेक शाखाएं होती हैं। उसमें से स्थानीय शाखा में खाता खोलकर पैसे जमा करें तो भी चलता है। वैसा करना आसान भी होता है। दूर के मुख्य कार्यालय में जाकर ही पैसे जमा करने चाहिए ऐसा नहीं होता। वैसा करने के लिए कष्ट लेने की भी आवश्यकता नहीं होती। इसी तरह भक्ति भाव, सेवा, त्याग, वगैरह न दिखने वाले ईश्वर के लिए करने की अपेक्षा उसके सगुण रूप के लिए अर्थात गुरु के संदर्भ में करने से वह आसान हो जाता है। स्थानीय शाखा में जमा किए हुए पैसे जैसे बैंक के मुख्यालय में ही जमा होते हैं वैसे ही गुरु की सेवा की तो वह ईश्वर को ही पहुंचती है।

वामन पंडित ने भारत भर में घूम-घूम कर बड़े-बड़े विद्वानों का पराभव किया एवं उनसे पराजय पत्र लिखवा लिया। विजय पत्र  लेकर जाते समय एक शाम को वे एक पेड़ के नीचे संध्या पूजन करने के लिए बैठे। तब उन्हें शाखा पर एक ब्रह्म राक्षस बैठा हुआ दिखा। कुछ ही समय में दूसरा एक ब्रह्मराक्षस बगल वाली शाखा पर आकर बैठने लगा । तब पहले वाला ब्रह्मराक्षस उसको आने नहीं दे रहा था और बोला यह जगह वामन पंडित के लिए है, क्योंकि उसे अपनी विजय का बहुत अहंकार हो गया है। यह सुनते ही वामन पंडित जी ने सभी विजय पत्र फाड़ डाले एवं वे हिमालय चले गए। अनेक वर्ष तपश्चर्या करने पर भी ईश्वर दर्शन नहीं दे रहे थे इसलिए निराश होकर वे पहाड़ पर से नीचे कूद गए। उसी समय ईश्वर ने उन्हें संभाल लिया एवं सिर पर बायां हाथ रखकर आशीर्वाद दिया तत्पश्चात उनमें इस तरह संभाषण हुआ।

पंडित : सिर पर बायां हाथ क्यों रखा दाहिना क्यों नहीं?

ईश्वर : वह अधिकार गुरु का है।

पंडित : गुरु कहां मिलेंगे?

ईश्वर : सज्जनगढ में।

इसके बाद वामन पंडित सज्जनगढ़ में समर्थ रामदास स्वामी के दर्शन के लिए गए। समर्थ ने उनकी पीठ पर दाहिना हाथ रखकर आशीर्वाद दिया।

पंडित : सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद क्यों नहीं दिया ?

स्वामी : अरे! ईश्वर ने हाथ रखा ही है न।

पंडित : तब ईश्वर ने सिर पर हाथ रखने का अधिकार गुरु का , ऐसा क्यों कहा ?

स्वामी : ईश्वर का दाहिना और बायां हाथ एक ही है, ईश्वर और गुरु एक ही हैं, यह तुम्हे क्यों समझ नहीं आता !

संदर्भ : सनातन संस्था का ग्रंथ ‘गुरुकृपायोग ‘

श्री. चेतन राजहंस,  प्रवक्ता, सनातन संस्था.

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