पृथ्वी पर रज और तम बढ़ने के कारण इस समय में सात्विकता बढ़ने के लिए चातुर्मास का व्रत करना चाहिए, ऐसा शास्त्रों में कहा गया है, चातुर्मास का महत्व, चातुर्मास में करने योग्य और निषिद्ध बातों के विषय की जानकारी दी जा रही हैं । आषाढ़ शुद्ध एकादशी से लेकर कार्तिक शुद्ध एकादशी तक या आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक होने वाला 4 महीने का समय चातुर्मास कहलाता है  ।

मनुष्य का 1 वर्ष देवताओं का केवल एक दिन-रात होती है, जैसे-जैसे एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाते हैं वैसे वैसे समय का परिणाम बदलता है । अब यह बात अंतरिक्ष यात्रियों के चंद्रमा पर जा कर आने पर उनको आए हुए अनुभव से सिद्ध भी हो गया है । दक्षिणायन देवताओं की रात होती है तथा उत्तरायण दिन होता है ।  कर्क संक्रांति पर उत्तरायण पूर्ण होता है और दक्षिणायन का प्रारंभ होता है, अर्थात देवताओं की रात चालू होती है ।  कर्क संक्रांति आषाढ़ माह में आती है ।  इसलिए आषाढ़ शुद्ध एकादशी को शयनी एकादशी कहा जाता है । क्योंकि इस दिन भगवान सोते हैं । कार्तिक शुद्ध एकादशी को भगवान सोकर उठते है  ।  इसलिए इसे देवउठनी एकादशी कहा जाता है । वस्तुतः दक्षिणायन 6 माह का होता है । इसलिए देवताओं की रात भी उतनी ही होनी चाहिए परंतु देवउठनी एकादशी तक 4 माह पूरे होते हैं । इसका यह अर्थ है कि एक तिहाई रात बाकी है, सभी भगवान जाग जाते हैं और अपना व्यवहार करना प्रारंभ करते हैं  । ‘नव सृष्टि की निर्मिति यह ब्रह्म देवता का कार्य चालू रहने के कारण पालनकर्ता श्री विष्णु निष्क्रिय रहते हैं ।  इसलिए चातुर्मास को विष्णु शयन ऐसा कहा जाता है । तब श्री विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं, ऐसा समझा जाता है । आषाढ शुद्ध एकादशी को विष्णु शयन तथा कार्तिक शुद्ध एकादशी के पश्चात द्वादशी को विष्णु प्रबोधोत्सव मनाया जाता है; देवताओं के इस निद्रा काल में असुर प्रबल होते हैं और मनुष्य को कष्ट देने लगते हैं ‘ असुरों के द्वारा स्वयं के संरक्षण के लिए प्रत्येक व्यक्ति को कुछ व्रत अवश्य करने चाहिए ‘ऐसे धर्म शास्त्रों में कहा गया है इसलिए चातुर्मास का महत्व है ।


1. इस समय में वर्षा होने के कारण धरती का रूप बदलता है 

2. बारिश में आवागमन कम होता है, इसलिए चातुर्मास का व्रत एक स्थान पर रहकर किया जा सकता है । एक ही स्थान पर बैठकर ग्रंथवाचन, मंत्र जप, नामस्मरण, अध्ययन, साधना करना इत्यादि उपासना का महत्त्व है ।
  
3.  मानव के मानसिक रूप में भी इस काल में परिवर्तन होता है । देह की पचनादि क्रियाएं भी भिन्न ढंग से चलती हैं । इस समय कंद,  बैगन, इमली आदि खाद्य पदार्थ वर्ज्य बताए गए हैं।
4. परमार्थ के लिए पोषक और संसार के लिए कुछ बातों का निषेध होना, चातुर्मास की विशेषता है
5. चातुर्मास में सावन माह का विशेष महत्व है, आश्‍विन मास के कृष्ण पक्ष में महालय श्राद्ध करते हैं।
6. चातुर्मास में त्यौहार और व्रत अधिक होने का कारण: श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक इन 4 महीनों में पृथ्वी पर आने वाली तमोगुणी यम लहरी का प्रमाण अधिक होता है उसका मुकाबला कर सकें इसलिए सात्विकता बढ़ाना आवश्यक होता है। त्योहार और व्रत के द्वारा सात्विकता बढ़ने के कारण चातुर्मास में अधिक से अधिक त्यौहार और व्रत आते हैं । शिकागो मेडिकल स्कूल के स्त्री रोग विशेषज्ञ प्रोफेसर डॉक्टर डब्ल्यु. एस. कोगर द्वारा किए शोध में जुलाई, अगस्त, सितम्बर और अक्टूबर इन 4 महीनों में विशेषत: भारत में स्त्रियों को गर्भाशय से संबंधित रोग चालू होते हैं या फिर बढ़ते हैं ऐसा पाया गया है 
7. चातुर्मास में व्रतस्थ रहना चाहिए।

‘सर्वसामान्य मनुष्य चातुर्मास में कुछ न कुछ व्रत करते हैं। जैसे पत्ते पर खाना खाना या एक समय का ही भोजन करना, बिना मांगते हुए जितना मिले उतना ही खाना, एक ही बार सब पदार्थ परोस कर खाना, कभी खाने को एक साथ मिलाकर खाना ऐसा भोजन का नियम करते हैं। काफी स्त्रियां चातुर्मास में ‘धरणे-पारणे’ नाम का व्रत करते हैं। इसमें एक दिन खाना और दूसरे दिन उपवास ऐसा 4 माह करना रहता है । कई स्त्रियां चातुर्मास में एक या दो अनाज ही खाती है। कुछ एक समय ही खाना खाती है। देशभर में चातुर्मास के अलग आचार दिखाई पड़ते हैं।

चातुर्मास में क्या नही करना चाहिए :
1. भगवान् विष्णु को न चढ़ाए जाने वाले खाद्य पदार्थ, मसूर, मांस,लोबिया, अचार, बैंगन, बेर, मूली, आंवला, इमली, प्याज और लहसुन इस अवधि के दौरान वर्जित माने जाते हैं। 
2. पलंग पर नहीं सोना चाहिए
3. ऋतु काल के बिना स्त्रीगमन
4. दूसरों का अन्न नहीं लेना चाहिए
5. विवाह या अन्य शुभ कार्य
6. चातुर्मास में यति को बाल काटना निषिद्ध बताया है। उसको चार माह अथवा कम से कम दो माह तो एक स्थान पर रहना चाहिए। ऐसा धर्मसिंधु और धर्म ग्रंथों में बताया गया है।
 

चातुर्मास में क्या सेवन करना चाहिए : चातुर्मास में हविष्यान्न सेवन करना चाहिए, ऐसा बताया गया है, चावल, मूंग, जौ,  तिल, मूंगफली, गेहूं ,समुद्र का नमक, गाय का दूध, दही , घी, कटहल, आम, नारियल, केला यह पदार्थ सेवन करने चाहिए। (वर्ज्य पदार्थ रज -तम गुण युक्त होते हैं तथा हविष्य अन्न सत्व गुण प्रधान होते हैं) 

संदर्भ  : सनातन – निर्मित ग्रंथ ‘ त्योहार ,धार्मिक उत्सव और व्रत’

चेतन राजहंस, राष्ट्रीय प्रवक्ता, सनातन संस्था

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