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                                                                       -बलबीर पुंज

आखिर कट्टरवादी-अलगाववादी इस्लामी मान्यताओं-आचरण से सभ्य समाज कैसे निपटें? इसका उत्तर खोजना उस समाज में और भी कठिन है, जो बहुलतावादी और पंथनिरपेक्षी है- जिसके परिणामस्वरूप वहां सभी मतावलंबियों को समान अधिकार प्राप्त होते है। विगत 16 फरवरी 2021 को फ्रांसीसी संसद ने विषाक्त विचारों के उन्मूलन हेतु एक विधेयक पारित किया, जिसका प्रत्यक्ष-परोक्ष उद्देश्य मजहबी कट्टरता से अपने सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने, मूल्यों और लैंगिक समानता को सुरक्षित रखना है। क्या इस विधेयक में उपरोक्त प्रश्न का वस्तुनिष्ठ उत्तर छिपा है?

“सपोर्टिंग रेसपेक्ट फॉर द प्रिंसिपल ऑफ द रिपब्लिक” नामक यह विधेयक दो सप्ताह चली बहस के पश्चात 16 फरवरी 2021 को 347-151 अनुपात से फ्रांस के निचले सदन “नेशनल असेंबली” में पारित हो गया। विचारों की स्वतंत्रता को सुदृढ़ करता यह विधेयक जहां फ्रांस में जबरन-विवाह, बहु-विवाह और कौमार्य परीक्षण जैसी प्रथाओं पर प्रहार करेगा, वही मदरसा शिक्षा पद्धति और मस्जिदों पर सरकारी लगाम लगाएगा। इस प्रकार के कई प्रावधानों से न केवल फ्रांसीसी मुसलमान, अपितु शेष वैश्विक मुस्लिम समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग (भारतीय मुस्लिम सहित) भी रुष्ट है।

यूं तो फ्रांस वर्ष 2006 में व्यंग्य-पत्रिका चार्ली हेब्दो द्वारा प्रकाशित पैगंबर साहब कार्टून विवाद से इस्लामी आतंकवाद का शिकार है। किंतु उपरोक्त विधेयक की जड़े फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन के उस एक वक्तव्य (2 अक्टबूर 2020) में मिलती है, जो उन्होंने जिहादियों द्वारा चार फ्रांसीसी नागरिकों (शिक्षक सैमुअल पैटी सहित) की हत्या से पहले दिया था। तब उन्होंने कहा था- “इस्लामी कट्टरपंथी चाहते हैं कि एक समानांतर व्यवस्था बनाई जाए, अन्य मूल्यों के साथ एक ऐसे समाज को विकसित किया जाए- जो प्रारंभ में अलगाववादी लगे, जिसका अंतिम लक्ष्य व्यवस्था पर पूर्ण नियंत्रण है। फिर धीरे-धीरे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अंतःकरण की स्वतंत्रता और निंदा करने का अधिकार अस्वीकृत हो जाए।” क्या यह समस्या केवल फ्रांस तक सीमित है?- नहीं।

सच तो यह है कि जिन देशों में मुस्लिम आबादी 10 प्रतिशत या उससे अधिक है, वहां मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग संबंधित देश की मूल संस्कृति, परंपरा और जीवनमूल्यों को नष्ट कर वहां शरीयत लागू करने का प्रयास करता है और राजनीतिक दृष्टिकोण इस्लाम के इर्दगिर्द रहता है। भारत इसका दंश आठवीं शताब्दी से झेल रहा है, जिसमें वह अपनी एक तिहाई भूमि 14 अगस्त 1947 को तीन टुकड़ों में गंवा चुका है। फिर भी खंडित भारत में मुस्लिम अलगाववाद शांत नहीं हुआ है। कश्मीर संकट- इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

भारत में विकृत “वोटबैंक की राजनीति” ने इस्लामी कट्टरता और अलगाववाद के निवारण को जटिल बना दिया है। देश के स्वघोषित सेकुलरिस्ट, वामपंथी और मुस्लिम जनप्रतिनिधि आज भी मुसलमानों को मध्यकालीन मजहबी मान्यताओं-मानसिकता के साथ बंधे रहने हेतु प्रोत्साहित कर रहे है। धारा 370-35 लागू करके मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर को विशेषाधिकार प्रदान करना, हज यात्रियों को मजहबी सब्सिडी देना, शाह-बानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पलटना, कई राज्यों द्वारा मौलानाओं-मुअज्जिनों को भत्ता देना, राष्ट्रीय संसाधानों पर पहला अधिकार मुसलमानों का बताना और मजहब के नाम पर मुस्लिमों को आरक्षण देने का प्रयास- इसके उदाहरण है। क्या यह सत्य नहीं कि पाकिस्तान के जन्म में “दो राष्ट्र सिद्धांत” के अतिरिक्त इस प्रकार की “तुष्ट नीतियों” ने भी भूमिका निभाई थी, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण गांधीजी समर्थित खिलाफत आंदोलन (1919-24) था?

फ्रांस से पहले चीन और म्यांमार इस्लामी कट्टरवाद-अलगाववाद के उन्मूलन का प्रारूप विश्व के समक्ष रख चुके है। साम्यवादी चीन अपने शिंजियांग प्रांत, जहां लगभग सवा करोड़ उइगर मुस्लिम बसते है- वहां ‘री-एजुकेशन’ शिविर बनाकर उनका सांस्कृतिक संहार किया जा रहा है। जहां एक ओर पुरुषों की जबरन नसबंदी कराई जा रही है, वही उनकी महिलाओं का यौन-उत्पीड़न हो रहा है। चीन में मुस्लिमों की स्थिति कितनी दयनीय है, इसका खुलासा अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठन बीबीसी ने किया है। उसने ऐसे लोगों से संवाद करके एक रिपोर्ट तैयार बनाई है, जो हाल के वर्षों में चीनी उत्पीड़न के साक्षी बने थे।

बीबीसी ने 18 महीने तक ‘री-एजुकेशन’ शिविर में रही गुलरिजा औलखान नामक वृद्ध महिला से बात की है, जिससे चीनी सुरक्षाकर्मी अन्य महिलाओं को नग्न अवस्था में हथकड़ियां लगाकर पुरुषों के सामने खड़ा करवाते थे। उसने बताया कि “मैं महिलाओं को कमरे में छोड़कर बाहर निकल आती थी, इसके बाद चीनी पुलिसकर्मी भीतर चले जाते थे। मैं चुपचाप दरवाजे पर बैठी उनकी प्रतीक्षा करती। जब कमरे में घुसे लोग चले जाते थे, तो मैं महिलाओं को नहलाने ले जाती।” भारतीय वामपंथी, उदारवादी और मुस्लिम समाज का एक वर्ग अक्सर कश्मीर में जिहादियों (आतंकवादी और पत्थरबाज) से निपटने हेतु वांछित सैन्य कार्रवाई को मानवाधिकार विरोधी बताते थकते नहीं है, किंतु चीन में मुस्लिमों पर किए जा रहे अत्याचारों पर वे मौन रहते है।

बात यदि म्यांमार की करें, जहां का सत्ता-अधिष्ठान बौद्ध परंपराओं से प्रभावित है- वहां सरकार रोहिंग्या मुस्लिमों द्वारा 2017 में सैकड़ों आतंकवादी हमले और गैर-मुस्लिमों (हिंदू सहित) के नरसंहार के बाद सैन्य कार्रवाई को बाध्य हुई थी, जिसमें कई लोग मारे गए थे। इसके बाद लाखों की संख्या रोहिंग्या मुसलमान सुरक्षित ठिकाने की खोज में म्यांमार से पलायन कर गए, जिसमें से कई भारत के विभिन्न स्थानों पर अवैध रूप से आकर बस गए। यह दिलचस्प है कि देश का एक वर्ग (पूर्व उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी सहित) जहां 2014 के बाद से भारत को मुसलमानों के लिए “असुरक्षित” बता रहा है, वही लोग रोहिंग्या मुस्लिमों को भारत में बसाने के सबसे बड़े पैरोकार भी है।

निसंदेह, भारत सहित किसी भी पंथनिरपेक्षी और बहुलतावादी देश के लिए इस्लामी आतंकवाद-अलगाववाद से निपटने हेतु चीन या म्यांमार की नीतियों पर चलना कठिन होगा। अभी फ्रांसीसी विधेयक के परिणाम आना शेष है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि भारत क्या करें, जब यहां जय श्रीराम बोलने पर लोगों को मौत के घाट उतारा जा रहा है? दिल्ली स्थित मंगोलपुरी निवासी रिंकू शर्मा की 10 फरवरी को पांच मुस्लिम युवकों ने चाकू गोदकर हत्या इसलिए कर दी, क्योंकि- बकौल मृतक परिजन, वह राम मंदिर निर्माण अभियान से जुड़ा था और जय श्रीराम का नारा लगा रहा था।

इसपर देश का वह वर्ग (मीडिया सहित) सुविधाजनक चुप्पी साधे हुए है, जो 2015 में दिल्ली के निकट दादरी में आक्रोशित भीड़ द्वारा गोकशी के आरोपी मो.अखलाक और 2018 में बल्लभगढ़ जा रही एक ट्रेन में सीट लेकर हुए विवाद में जुनैद की हत्याओं से भारत की सहिष्णु छवि शेष विश्व में कलंकित कर चुका है। यह विडंबना है कि इस जमात के लिए देशविरोधी साजिश रचने की आरोपी 21 वर्षीय दिशा रवि की कानूनी गिरफ्तारी, 25 वर्षीय रिंकू की मजहबी हत्या से कहीं अधिक भारत के लिए “खतरनाक” है।

यह विकृति केवल रामभक्त रिंकू शर्मा की हत्या तक सीमित नहीं है। इस कुनबे को संसद द्वारा पारित कानूनों (नागरिकता संशोधन अधिनियम सहित) के खिलाफ विदेशी वित्तपोषित मजहबी हिंसा, 2018 में उत्तरप्रदेश के कासगंज स्थित मुस्लिम बहुल क्षेत्र में तिरंगा यात्रा निकालने व “पाकिस्तान-जिंदाबाद” नारे का विरोध करने पर चंदन गुप्ता की गोली मारकर हत्या, 2020 में महाराष्ट्र के पालघर में दो हिंदू साधुओं को पुलिस के सामने भीड़ द्वारा मौत के घाट उतारना, दक्षिण भारत के हजारों मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण और मस्जिदों-चर्चों के इससे मुक्त होने से भारत कहीं अधिक सेकुलर नजर आता है।

इस पृष्ठभूमि में क्या खंडित भारत केवल “सेकुलर” संविधान के सहारे अपनी बहुलतावादी वैदिक पहचान को इस्लामी कट्टरवाद-अलगाववाद से बचाने में सफल होगा? इसका उत्तर लगभग 32 वर्ष पुराने उस घटनाक्रम में मिलता है, जहां कश्मीर के विषाक्त “इको-सिस्टम” में जिहादियों ने दर्जनों काफिर हिंदुओं की हत्या की, उनकी महिलाओं का बलात्कार किया और 30 से अधिक मंदिर तोड़े- जिसके बाद पांच लाख कश्मीरी पंडित घाटी से पलायन हेतु विवश हो गए। तब हमारा संविधान ना तो उनकी रक्षा कर पाया और ना ही उन्हें पुन: बसा पाया। यह स्वागतयोग्य कदम है कि देश में तीन तलाक विरोधी कानून बन चुका है और धारा 370-35ए का संवैधानिक क्षरण हो चुका है। किंतु क्या यह भारत को आगामी मजहबी चुनौतियों से बचाने हेतु पर्याप्त है?

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।

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