लोकतंत्र का हत्यारा कौन? यह एक ऐसा सवाल है जो आज हर किसी को विवश कर रहा है सोचने पर।
आखिर वही हुआ जिसका डर था । मौजूदा तथाकथित किसान आंदोलन में सरकार और आंदोलनकारी के बीच आज भी वार्तालाप का कोई हल नहीं निकला क्योंकि लोकतंत्र से चुनी हुई सरकार ने लोकतांत्रिक तरीके से जो सदन में कानून बनाया था उसके खिलाफ में कुछ लोग खड़े हो गए और दिल्ली को घेर दिया। आंदोलनकारियों की मांग थी इस कानून में बदलाव हो एमएसपी को रहने दिया जाए जो की पहले से ही इस कानून में एमएसपी को बंद करने की कोई बात नही थी या फिर मंडियों के खत्म होने की बात हो। फिर आंदोलनकारियों ने कहा हमें कई बिंदुओं पर संदेश है इसलिए लिखित में दिया जाए और सरकार ने उनकी यह मांग भी पूरी कर दी।
अब आंदोलनकारियों का कहना है यह कानून ही वापस लिया जाए ।
सबसे बड़ी हैरानी की बात है कि इनकी मांग में गौतम नवलखा जैसे नक्सली और कुछ देश विरोधी गतिविधियों में जेल में बंदी कैदियों को छुड़ाने की भी मांग थी।
गौर करने वाली बात है अगर कानून सड़कों पर ही तय होंगे फिर कानून, संविधान, सदन, लोकतंत्र और चुनाव का क्या महत्व रह जाता है।
इस कृषि कानून के बनने के बाद बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश , हैदराबाद और राजस्थान में हुए चुनावों में भाजपा की बड़ी जीत का मतलब जनता का केंद्र सरकार को समर्थन देना है और इनपर भरोसा करना है।
इस तथाकथित किसान आंदोलन में पिछले कई दिनों में हुए प्रदर्शन में बहुत ऐसी चीजे निकल के आई जहां देश की जनता भी सोचने पर मजबूर हो गई कि यह किसान आंदोलन है या कुछ और है चाहे वो योगराज सिंह के बयान हो , योगेंद्र यादव की बात हो , शाहीन बाग को समर्थन देने वाले लोगों का उस आंदोलन में समर्थन करना और अचानक से 14 दिसंबर को देश भर में प्रदर्शन करने की बात हो। 8 दिसंबर का भारत बंद भी असफल रहा जो आंदोलनकारियों के अहंकार को देश की जनता ने तोड़ दिया।
अब यह 14 दिसंबर का मामला क्या है इसको समझने के लिए ठीक एक वर्ष पूर्व 14 दिसंबर 2019 को याद करते हैं जब जामिया , अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से प्रदर्शन हुए थे और वह प्रदर्शन उग्र हो गया था जगह जगह सरकारी संपत्ति को नुकसान किया गया था और वही तख्ती गैंग ने इसे पूरे देश के छात्रों से जोड़ दिया था और छात्र बनाम दिल्ली पुलिस का नेरेटिव सेट किया था। उस छात्र आंदोलन में हिन्दुत्व की कब्र खुदेगी एएमयू की धरती पर के नारे लगे और देखते ही देखते कब शाहीन बाग बना किसी को पता नहीं चला।
उस वक्त गृह मंत्रालय ने बहुत ही संयम का परिचय दिया था और 3 महीनों तक चला आंदोलन हिंसा में बदलने के वावजूद भी शाहीन बाग खाली नहीं हो पाया था। ठीक ऐसा ही भ्रम फैलाया गया था कि नागरिकता चली जायेगी जैसे किसान आंदोलन के नाम पर किसानों की जमीन चली जाएगी, एमएसपी खत्म हो जाएगी, मंडी खत्म हो जाएगी जैसे अफवाह फैलाए गए हैं। वो तो इस कोरोना महामारी को धन्यवाद देना पड़ेगा जिसके कारण अथक प्रयासों से आंदोलन समाप्त हो पाया था।
आज जब बिल में लिखित रूप से आश्वाशन देने पर सरकार ने मुहर लगा दी तो अब कोई विकल्प नहीं बचने के बाद आंदोलनकारियों ने स्पष्ट कहा है कि कानून को खत्म करने पर ही आंदोलन वापस लेंगे नहीं तो आंदोलन और व्यापक स्तर पर होगा।
क्या यह किसी भी रूप से लोकतंत्र के लिए सही है। क्या यह भाषा एक किसान की हो सकती है? बिलकुल नहीं हो सकती।
सही मायने में लोकतंत्र की हत्या यही है।
जब भी कोई चुनाव होता है और राजनीतिक दल घोषणा पत्र लेकर चुनाव मैदान में जनता से समर्थन मांगते हैं। विपक्षी दलों को अगर कानून पसंद नहीं तो कानूनी तौर पर ही इसको चुनौती दी जा सकती है अन्यथा आप चुनाव में जनता से उस मुद्दे पर वोट मांगे। जीत और हार तय कर देगा कि कानून जनता को पसंद आया या नहीं पर लोकतंत्र से हारे सड़क पर कानून बनाने और खत्म करने की बात का समर्थन करें वह लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन है।
लोकतंत्र में धरना प्रदर्शन,देशव्यापी आंदोलन , हड़ताल यह तरीके देश के हर नागरिक को उपलब्ध है पर आप आम जनता के भावना को ठेस नहीं पहुंचा सकते और ना ही सड़क जाम कर सकते हैं।
आशा है इस बात को आंदोलनकारी खुद ही समझ लें। वैसे भी ठंड के कारण मीडिया के माध्यम से सुनने में आया है वहां एमएसपी तो नही गई पर कई जान चली गई। उनके मौत के जिम्मेदार वो तमाम लोग हैं जो इस आंदोलन को हवा दे रहे हैं।
अंग्रेज भारत से जा रहे थे उन्होंने वो बीज बोए जिसके बाद बंटवारा हुआ और उसका दुष्परिणाम कई वर्षों तक देश को झेलना पड़ा था। इसी तरह कुछ राजनीतिक दलों को भी यह समझ आ गया है अब सत्ता कभी मिलेगी नहीं इसलिए नफरत और झूठ की राजनीति करो और देश को कमजोर करो।
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