मेरे महाज्ञानी मित्रों! आधुनिक बुद्धों! अवतारी पुरुषों! नव उदारवादियों!
आप दूसरों को हर हाल में बदलना चाहते हैं, फिर भी आप उदार, सहिष्णु एवं लोकतांत्रिक हैं! हम अपनी ध्येयनिष्ठा, शाश्वत-सनातन-सांस्कृतिक धारा, आस्था और विश्वास के साथ जीना चाहते हैं, फिर भी हम अनुदार, असहिष्णु और अलोकतांत्रिक हैं! है न कमाल की लोकतांत्रिक सोच!!
संभव है, कुछेक कारणों से आपको केंद्र की भाजपा और मोदी सरकार पसंद न हो तो इतने मात्र से आप महान क्रांतिकारी, प्रगतिशील, आधुनिक, वैज्ञानिक, महाज्ञानी आदि..आदि हुए व कहलाए और संभव है, अनेकानेक कारणों से मुझे भाजपा और मोदी सरकार पसंद हो तो मैं अज्ञानी, पिछड़ा, प्रतिगामी, दकियानूसी, भक्त, चापलूस, आईटी सेल वाला, नैतिकता का स्वयंभू ठेकेदार, कोरा उपदेशक आदि..आदि हुआ और कहलाया!!!
एक बात बताएँगे मित्रवर, तर्क एवं न्याय की ऐसी महान तुला, दृष्टि का ऐसा अनूठा संतुलन, अनुभव की ऐसी सूक्ष्मतम गहनता आप कहाँ और किधर से लाते हैं!! मुझे डर है कि कहीं आप ये न कह दें कि यह दिव्य ज्ञान भी आपने बुद्ध की राह चलकर पाया है, कि स्वयं बुद्ध आपको न्याय की ऐसी दिव्य एवं महान तुला पकड़ा गए, कि आपने ध्यान एवं चिंतन की गहन-गंभीर मुद्रा एवं अवस्था में इस अलौकिक ज्ञान एवं सत्य का देवदुर्लभ साक्षात्कार किया है!!!
जब हम कोरोना की पहली लहर को भारतीय नेतृत्व द्वारा कुशलतापूर्वक थाम लेने की सफलता का उल्लेख करते हैं तो आप लॉकडाउन के कारण गिरती अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, प्रवासी मजदूरों की दशा, प्राइवेटाइजेशन की बातें करने लगते हैं, जब हम कहते हैं कि जान है तो जहान है, देखो इतने कम समय में देश के चिकित्सकों-वैज्ञानिकों ने तीन-तीन वैक्सीन ईजाद करने की गौरवपूर्ण उपलब्धि हासिल कर ली तो आप उसकी साख़ और विश्वसनीयता पर सवाल उठाने लगते हैं; जब हम दुनिया के शीर्ष देशों द्वारा भारतीय वैक्सीन को मान्यता प्रदान करने की बात करते हैं तो आप न जाने किस-किस लैबोरेट्री, किस-किस देश की रपट दिखाने लगते हैं कि देखो यह मात्र 80 प्रतिशत, यह मात्र 90 प्रतिशत ही कारगर है, कि देखो अमुक-अमुक ने दोनों डोज लिए थे, फिर भी संक्रमित हो गया! जब हम कहते हैं कि चलो कम-से-कम 80 प्रतिशत तो सुरक्षित हो लिया जाय, तब आप वैक्सीन की किल्लत, ऑक्सीजन की भारी कमी, स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली का रोना रोने लगते हैं, जब हम दिखाते हैं कि देखो विकसित-से-विकसित देशों की स्वास्थ्य-सेवा इस वैश्विक आपदा के सामने चरमरा गई, कि सात दशकों की कमी को कोई सरकार भला डेढ़-दो वर्षों में कैसे दूर कर दे, तब आप चुनावी रैलियों की बात करने लगते हैं, जब हम गिनाते हैं कि अमुक-अमुक देशों और राज्यों में बिना चुनाव और चुनावी रैलियों के भी कोरोना फैला और भयंकर फैला, तब आप फिर उछलकर नोटबंदी पर पहुँच जाते हैं!! आपका यह उछल-कूद ज़ारी ही रहता है।
और आपकी सबसे बड़ी क्यूटनेस और मासूमियत तो यह है कि आपके इन तमाम सवालों पर जब हम आपको सच्चाई का आईना दिखाते हैं, या जवाब देने लगते हैं तो आप हमें नसीहत देने लगते हैं कि भाई यह समय राजनीति करने का नहीं है! लोग मर रहे हैं और आपको राजनीति की पड़ी है! इतनी क्यूटनेस और मासूमियत लाते कहाँ से हैं भाई लोगों!!
मेरे महाज्ञानी मित्रों! यही तो हम कह रहे हैं कि आपदा में अवसर न तलाशें। लोकतंत्र है। अपने स्वतंत्र राजनीतिक दृष्टिकोण बनाए रखकर भी इस समय नागरिक-धर्म निभाएं। अपने-अपने स्तर पर अपने-अपने दायरे में जितना संभव हो औरों की मदद करें। महामारी से जूझते-लड़ते-टूटते लोगों को आस, विश्वास और हौसला दें! लाख कमियों के बावजूद इसी व्यवस्था, इसी मशीनरी में असाधारण सेवा, त्याग, कर्त्तव्य का परिचय दे रहे लोगों का मनोबल बढ़ाएं। जिन परिवारों ने अपने आत्मीयों-परिजनों को खोया है, उन्हें ढाँढ़स बंधाएँ, सांत्वना दें, संवेदना दें! 2024 में अपनी मर्ज़ी और अपने सपनों की सरकार चुनकर ले आएँ।
फिलहाल इस महामारी से अकेले सरकार के दम पर नहीं निपटा जा सकता। सामाजिक संगठनों, नागरिक-समाज को भी इससे निपटने में अपना-अपना योगदान देना होगा। और सबसे महत्त्वपूर्ण बिना भगदड़ मचाए, होड़ लगाए, वैक्सीनेशन अवश्य कराएँ। वैक्सीनेशन ही इस महामारी को रोकने का सर्वोत्तम उपाय-उपचार है। पूरा देश यदि साथ मिलकर लड़े तो हमें निश्चित सफलता मिलेगी। याद रखें, कठिन परिस्थिति में ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के रूप में हमारी वास्तविक पहचान और परीक्षा होती है। सनद रहे, ”जयचंदों”, ”मीरजाफ़रों” के पास भी अपना-अपना पक्ष चुनने के ठोस तर्क व कारण थे। मगर आप जानते हैं कि चंद महत्त्वाकांक्षाओं की कीमत संपूर्ण राष्ट्र को चुकानी पड़ी। लमहों ने खता की, सदियों ने सज़ा पाई। अवसर की ताक में घात लगाकर बैठी ताक़तों को खुलकर खेलने का मौका मत दीजिए। सहयोग कीजिए। यही आपद-धर्म है। यही राष्ट्र-धर्म है। यही मानव-धर्म है।
प्रणय कुमार
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