-पहले धूर्त्तता, फिर माफी का नाटक

आप ही बताइए न कि प्रधानमंत्री के साथ हुई मुख्यमंत्रियों की बैठक को लाइव करके श्री श्री 108 युगपुरुष जी, सदी के महानतम प्राइम टाइम नेता, कोरोना से बचाव पर क्या कोई दिव्य ज्ञान दे रहे थे या ठोस एवं निर्णायक सुझाव दे रहे थे? या फिर अपनी चिर-परिचित शैली में सस्ती राजनीति कर रहे थे? उस मीटिंग में भी उनका एप्रोच अपनी टोपी दूसरे के सिर पहनाना था। वहाँ भी वह व्यक्ति कह रहा है कि कोरोना के विरुद्ध कोई राष्ट्रीय नीति बननी चाहिए।

अरे धूर्त्त! वह मीटिंग नीति बनाने के लिए ही तो बुलाई गई थी। उसके बाद उसने कहना शुरु किया कि पॉल साहब ने बड़ी अच्छी मीटिंग ली, फिर कहा दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए प्रार्थना करता हूँ। क्या प्रधानमंत्री के साथ कोरोना से बचाव के लिए बुलाई गई आपातकालीन मीटिंग में इन बातों के लिए कोई जगह होनी चाहिए थी? इसका कोई तुक-तर्क आपको समझ आता है?और यदि आप सोचते हैं कि पब्लिक इंट्रेस्ट में यह मीटिंग लाइव ही होनी चाहिए थी तो फिर आपको स्टैंड लेना चाहिए था कि यदि आप लाइव करने की अनुमति नहीं देंगें तो हम मीटिंग में हिस्सा नहीं लेंगें, कि हम दिल्ली की जनता की अपने दम पर मदद करेंगें। फिर आपको क्षमा नहीं माँगनी चाहिए थी। यह क्या बात हुई कि एक तरफ जिम्मेदारी से बचना भी है और दूसरी तरफ श्रेय भी लूटना है। मीठा-मीठा गप-गप, कड़वा-कड़वा थू-थू!!

क्या यह सच नहीं कि जब-जब दिल्ली की जनता पस्त और त्रस्त हुई, केंद्र ने निर्णायक हस्तक्षेप कर उन्हें राहत पहुँचाया! पर युगपुरुष जी का एप्रोच, हमेशा केंद्र को कोसना, फिर संकट में उन्हीं के चरण गहना…!मैंने अभी कुछ दिनों पूर्व ही कहा कि कोरोना के विरुद्ध लड़ाई के हर मोर्चे पर केवल प्रधानमंत्री ही दृढ़ता से खड़े और लड़ते नज़र आते हैं। याद कीजिए विपक्षी दलों का एप्रोच। 2020 में उन्होंने कहा कि लॉकडाउन क्यों लगाया? फिर कहा कि ये मज़दूरों की रोजी-रोटी छीनने और अंबानी-अडानी को फ़ायदा पहुँचाने की साज़िश है! फिर उन्होंने प्रवासी मज़दूरों को इतना डराया-बहकाया-भरमाया कि वे पैदल घर की ओर निकल पड़े।

उल्लेखनीय है कि उस समय भी उन्होंने उनकी कोई मदद नहीं की, उलटे उनमें डर और घबराहट का माहौल तैयार किया। उन्हें बस में बिठा-बिठाकर अपने राज्य के बॉर्डर पर मरने के लिए छोड़ दिया। भला हो योगी जी जैसे ‘नेताओं’ का (जी हाँ वही नेता, जिन्हें हम-आप अपने-अपने वातानुकूलित कक्ष में बर्फ-सोडे-सुरा की शीतल घूँटों से गला तर करते हुए जम कर गरियाते हैं) जिन्होंने लोगों को बस में बिठा-बिठाकर सुरक्षित घर पहुँचाया। फिर कहा कि ये वैक्सीन प्रामाणिक एवं विश्वसनीय नहीं हैं, ये वैश्विक मानकों पर खरे नहीं उतरते। वैक्सीन के प्रति जनमानस के मन में अविश्वास पैदा करने में उन्होंने कोई कोर-कसर छोड़ी हो तो बताएँ? फिर वैक्सीन के कथित दुष्प्रभाव (साइड इफेक्ट्स) का रोना रोया। फिर अब कहना शुरु किया कि वैक्सीन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है। और उनके अनुयायी कौआ कान लेकर उड़ा जा रहा है कि तर्ज़ पर कान देखने की बजाय कौए के पीछे दौड़ लगाने की मानसिकता में जी रहे हैं। आप पता तो कीजिए कि कितने राज्यों को कितनी वैक्सीन मिली है, कितने का उपयोग हुआ, कितना बचा है और कितना बर्बाद हुआ?

कोई प्रधानमंत्री देश के बाहरी शत्रु से लड़ सकता है। पर जब घर के भीतर ही तमाम लोग घात लगाकर अवसर की ताक में बैठे हों तो किन-किन मोर्चों पर लड़ा जा सकता है! याद कीजिए कि इसी देश की 20 करोड़ आबादी का कोरोना-काल में कैसा व्यवहार रहा? तब्लीगी जमात की बात छोड़ भी दीजिए तो याद कीजिए उन ‘मासूम-शांतिप्रिय’ नौजवानों को जो वीडियो बना-बनाकर वायरल करते रहे कि कोरोना कुछ नहीं मोदी की राजनीति है, कि यह मोदी की सीएए के विरुद्ध चल रहे आंदोलन और पूरी कौम के विरुद्ध एक साज़िश है। उनके मुहल्ले में ट्रेसिंग-टेस्टिंग-लॉकडाउन के लिए नियमों का पालन कराने गई पुलिस पर उन्होंने पथराव किया, डॉक्टर्स एवं मेडिकल-टीम पर जानलेवा हमले किए। अब उसमें दो और समूह सरदारों और तथाकथित किसानों का जुड़ गया। नासिक में होला-मोहल्ला कार्यक्रम में सरदारों ने जो उपद्रव मचाया, उसकी वायरल तस्वीरें महान त्यागी-बलिदानी गुरु-परंपरा को शर्मसार करती हैं। टिकैत अभी भी धरने पर बैठने की जिद्द किए बैठा है। अगले दो दिनों में वह 50000 से अधिक की भीड़ जुटाने के दावे व अपील कर रहा है। लोग मर रहे हैं और वह तथाकथित किसान एकता के नाम पर इफ़्तार पार्टियों का आयोजन कर रहा है।

आप ही बताइए न कि जब विपक्ष के लिए जानलेवा विपदा भी सत्ता हथियाने का एक मौका मात्र हो तो सरकार किन-किन मोर्चों पर लड़े और काम करे! और क्या नागरिक-समाज की कोई जिम्मेदारी नहीं होती? जिम्मेदारी केवल सरकार की होती है! मैं मार्च में पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश की यात्रा पर था। कोई मास्क नहीं लगा रहा था, कहीं सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं किया जा रहा था, लोग तफ़री के लिए चौक-चौराहे-बाजार-मॉल में आ-जा रहे थे। जो मास्क लगते थे, उनका दूसरे लोग जमकर मज़ाक उड़ाते थे। सच कह रहा हूँ, हम लोग आज भी या तो गुलामी की मानसिकता में जी रहे हैं या यह मानकर बैठे हैं कि हम आज भी किसी उपनिवेशकालीन सत्ता-व्यवस्था के नागरिक हैं। स्वतंत्र, विवेकशील, अनुशासित नागरिक-समाज की तरह हमारा व्यवहार कब और कितने दिन रहा? और चुनावी रैलियों पर आपका गुस्सा जायज़ है। पर लोकतंत्र में केवल शासकों की ही नहीं जनता की यादाश्त भी बहुत कमज़ोर होती है। क्या आपको याद नहीं कि बिहार-चुनाव के वक्त प्रधानमंत्री मोदी ने वर्चुअल चुनावी रैली का सुझाव दिया था, जिसे सभी राजनीतिक पार्टियों ने सिरे से नकार दिया था। तब तमाम ‘लाड़लों’ और युगपुरुष जी टाइप दिमाग़दारों ने चुनाव-आयोग से कहा था कि हमारे पास वर्चुअल चुनाव-प्रचार के लिए पर्याप्त पैसा और संसाधन नहीं हैं।

यहॉं यह भी याद रखिए, कि दिन-रात टेलीविजन पर कोरोना-बचाव के नाम पर किए जा रहे विज्ञापन पर युगपुरुष जी ने 500 करोड़ से अधिक रुपए खर्च किए हैं।जो लोग इस #कोरोना_काल में भी #धरने_प्रदर्शन_आंदोलन_अफवाहों को हवा एवं तूल दे रहे हैं, इनकी राजनीति कर रहे हैं, वे इंसान की शक़्ल में #गिद्ध या #भेड़िये हैं। उनके समर्थन में तर्क एवं दलीलें दे रहे लोग या तो भ्रमित हैं या #सत्ता की #रेवड़ियाँ खाने को #व्यग्र_आतुर राजनीतिक कार्यकर्त्ता। उन्हें मैं निष्पक्ष एवं तटस्थ आम नागरिक मानने को बिलकुल तैयार नहीं। और अंत में मैं फिर कहूँगा, 2024 में सत्ता बदल लीजिएगा। पर तब तक तो अपने-अपने स्तर पर अपने-अपने दायरे में कोई रचनात्मक भूमिका निभाइए। अच्छा हो सकता है कि मेरी स्मरणशक्ति कमज़ोर हो, पर आपकी तो मज़बूत है न? बताइए सरकार को पानी पी-पीकर कोसने के अलावा इस कोरोना-काल में विपक्ष की कोई अन्य भूमिका आपको याद है? सरकार को 2024 तक काम करने दीजिए। इस कठिन परिस्थिति में हमारे पास यही एक विकल्प है कि हम समझदार एवं अनुशासित नागरिक-समाज के रूप में अपनी सरकार और व्यवस्था के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर मनुष्यता को लीलने के लिए तैयार खड़ी इस कोरोना रूपी महामारी से लड़ें, जूझें और अंततः पार पाएँ। विपत्ति काल में ही एक समाज एवं राष्ट्र के रूप में हमारी वास्तविक परीक्षा व पहचान होती है।

प्रणय कुमार

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