नक्सलवाद देश की अंतर्गत सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा संकट है । भारतीय सेना विकट भौगोलिक परिस्थिति में बंदूकधारी नक्सलवादियों के विरुद्ध सक्षम होकर लड ही रही है; परंतु यह लडाई लडते समय ‘ग्रामीण लोगों की हत्या की’, ‘महिलाओं पर अत्याचार किए’, ‘मानवाधिकार का उल्लंघन किया जाता है’, ऐसा दुष्प्रचार जब भारतीय सेना के विरोध में किया जाता है, तब उस वैचारिक संघर्ष में हम पराजित हो रहे हैं । बंदूकधारी नक्सलवादी केवल 25 प्रतिशत हैं तथा उनका शेष 75 प्रतिशत मनुष्यबल अलग अलग माध्यमों से यह नक्सलवाद प्रारंभ रखने का कार्य कर रहा है । नक्सलवाद का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष समर्थन करनेवाले लेखक, पत्रकार, राजनीतिक नेता, सामाजिक कार्यकर्ता आदि के विरुद्ध वैचारिक संघर्ष जीतना आवश्यक है, ऐसा प्रतिपादन दुर्ग, छत्तीसगढ की अधिवक्ता रचना नायडू ने किया । वे हिन्दू जनजागृति समिति द्वारा आयोजित ‘स्वतंत्रता के 75 वर्ष – अभी तक नक्सलवाद समाप्त क्यों नहीं हुआ ?’ इस विषय पर विशेष ऑनलाइन संवाद में बोल रही थीं ।
अधिवक्ता रचना नायडू ने आगे कहा कि, सामान्य मनुष्य से लेकर राजनीतिक नेता और विविध क्षेत्रों के लोगों में से जिस किसी ने नक्सलवादियों का विरोध किया, उन सबको नक्सलवादियों ने चुनचुनकर मार डाला है । नक्सलवादियों द्वारा जिन लोगों के लिए लडने का दावा किया जाता है, उन्हें ही मारा जाता है, यह कैसी क्रांति है ? आत्मसमर्पण किए हुए नक्सलवादियों में से कोई भी उनकी विचारधारा से जुडे नहीं होते, ऐसा उनसे संवाद करने पर ध्यान में आता है । नक्सलवादियों ने उनके प्रभावित क्षेत्र में स्थित हिन्दुओं के अनेक मंदिर तोडे हैं; परंतु चर्च अथवा अन्य प्रार्थनास्थलों को उन्होंने हानि पहुंचाई है, ऐसा सुनने में नहीं आया है ।
छत्तीसगढ के अत्यंत दुर्गम क्षेत्र में रहनेवाले नक्सलवादी जो राज्य की राजधानी तक भी नहीं पहुंच सकते । वे ‘जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट’ को सार्वजनिक समर्थन करना, नागरिकता सुधार कानून (सी.ए.ए.), तथा बंगलुरू में गौरी लंकेश की हत्या होने के उपरांत सडक पर उतरे हुए दिखाई दिए । छत्तीसगढ राज्य को पौराणिक, सांस्कृतिक इतिहास होते हुए भी ‘नक्सलवादियों का राज्य’ कहकर दुष्प्रचार किया जाता है, यह रुकना चाहिए, ऐसा भी अधिवक्ता नायडू ने अंत में कहा ।
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