कितना अच्छा होता अगर हम किसी ऐसे शख्स के जन्मदिन पर ये दिवस मनाते जो राष्ट्रपति का पद त्याग कर एक बार फिर से शिक्षक का पद धारण कर लेता । शायद कलाम को छोड़ कर किसी ने ये कामयाब कोशिश नहीं की। पर हम ने उस शख्सियत को तरजीह दी जिसने अपननी ज़िन्दगी के अनुभवी १५ साल सत्ता के गलियारों में टहल कर बिता दी और पाँच साल मुगल गार्डन के गुलाब सूँघने में। डॉ जाकिर हुसैन, मायावती , ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेज़ाद, बराक ओबामा, मनमोहन सिंह मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह वगैरह वगैरह … फ़ेहरिस्त लम्बी है जो रौशनी की एक लहर बन कर आये और राजनीति के अन्धेरे में गुम हो गये। ।आलोचना जरूरी है कारण ये शख्स शानदार था … स्वामी विवेकानन्द के बाद प्राच्य संस्कृति के बारे में दुनियाँ जो कुछ भी आज जानती है इन्हीं का योगदान है। सही पहचाना डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन को। पर हमने भी शिक्षक राधाकृष्ण्न को इतना हीं सम्मान दिया है कि जहाँ तक लेखक की समझ है भारत के किसी वि०वि० में इनकी लिखी कोई किताब पाठ्यक्रम में शामिल नहीं… जब कि ये शख्स अपने दार्शनिक समझ के लिये ऋषि तुल्य था। विश्व के बड़े बड़े शासनाध्यक्षों के गाल थपथपाने वाला ये महापुरुष भारतीय जगत क्या वैश्विक शैक्षिकआकाश का सूर्य था पर हम पूजा करके हर बड़े किरदार को आडम्बर का हिस्सा बना देते हैं और उसके विराट मानवीय अस्तित्व को ईश्वरीय बता कर उसकी मानवीय उपलब्धि से देश और विश्व को महरूम कर देते हैं।
आज दिन है शिक्षकों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने का और अपनी शिक्षक की भूमिका को समझने का , मूल्यांकन करने का। आज शिक्षक अपना गुरुत्व बिसराकर सर्विस प्रोवाइडर हो गया है जो अभिभावकों के कस्टमर सटिस्फ़ैक्शन के अनुरूप मानकों का पालन करता है। भारतीय परम्परा साक्षी है कि “श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्” से आगे बढ़कर ” गुरु सुश्रूषया विद्या ” तक पहुँचते थे पर आज ” पुष्कलेन धनेन वा ” के पास जाकर ठहर गये हैं फिर ” अथवा विद्यया विद्या ” को प्रॉफ़ेशनल एथिक्स के नाम पर छिपा लेते हैं जैसे कभी कहावत थी कि प्रमोद और पेप्सी अपना फ़ॉर्मूला किसी को नहीं बताते। और आखिर में समाज के हाथ आता है ” चतुर्थी नोऽपपद्यते “
धन से विद्या खरीदने की चाहत छात्रों को अविनीत बना देती है और शिक्षक को सर्विस प्रोवाइडर। छात्र कब नॉलेज पोर्टेबिलीटी का इस्तेमाल करके एक प्रोफ़ेशनल मूव चल जाये कोई नहीं जानता । इसी लिप्साको भाँपकर आज इण्टरनेट पर हजारों वर्चुअल गुरु कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं और शिक्षक की अनुपस्थिति के कारण उपजे अनुशासनपूर्ण वातावररण से मुक्त होकर छात्र इन आनलाइन क्लासों का आनन्द पूर्ण अनुभव प्राप्त कर रहे हैं पर जब ये इस बात से अनजान हैं कि बाहर से फोड़े गये अण्डे से सिर्फ़ आमलेट बनता है … उससे चूजे नहीं निकलते। एक अनुशासनपूर्ण वातावरण में आन्तरिक चेष्टा से अण्डे का खोल जब समयानुसार टूटता है तभी एक प्राणी का सर्जन होता है।
ये दिन इस बात के मन्थन के लिये भी ज़रूरी है कि गुरु की आज्ञा के वगैर स्वयं को उसका शिष्य कहना जीवन निष्फ़ल कर देता है साथ हीं गुरु और शिष्य को अक्षुण्ण निन्दा या अपयश का भागी बनाता है। यदि गुरु सहर्ष विद्या दान का अनुग्रह करे तो शिष्य मर्यादा पुरुषोत्तम राम जैसी कीर्ति अर्जित करता है पर वही विद्या अगर गुरु को खरीदकर प्राप्त की जाये तो महाभारत जैसा युद्ध भी हो सकता है जिसमें शिष्य को दिया गया विद्यादान स्वयं उसी गुरु का प्राण हरण कर ले और शिष्य को भी लांछित कर दे।
यह दिन इस बात की मीमांसा के लिये भी है जिसमें अनुपयोगी ज्ञान अर्जित करने के लिये आचार्य चाणक्य मना करते हैं ” अनभ्यासे विषम् विद्या “। कर्ण और एकलव्य द्वारा युद्ध कौशल सीखने की उत्कट आकांक्षा ने जहाँ एक गुरु को अपकीर्ति का भागी बनाया जबकि कर्ण की क्षत्रियोचित विवेकहीनता ने महाभारत के यु्द्ध की आधार शिला रखी।
आज का दिन बस इस बात को जानने और मानने के लिये भी है कि उपयोग में आने योग्य ज्ञान प्राप्त किया जाये। गुरु की आज्ञा सदैव अमोघ हो और उसका पालन एकाग्र होकर किय जाये। अप्रयुक्त ज्ञान फ़्रस्ट्रेशन पैदा करता है। गुरु की आज्ञा से अपने लिये उपयुक्त ज्ञान उनकी सहमति से प्राप्त काना चाहिये क्योंकि उसे शिष्य की आवश्यकता का ज्ञान होता है। कभी भी ज़िद, क्रोध ,लोभ , तनाव , हीन भावना और गुरु वंचना का कुटिल भाव मन में रखकर गुरु के पास सीखने के लिये ना जायें।
और अपनी सीखने की प्रवृत्ति को इतनी निष्कलंक रखें कि समय स्वतः आपको गुरुपद प्रदान कर दे क्योंकि जरूरत के आधार पर सीखा हुआ ज्ञान आपको सिर्फ़ और सिर्फ़ गुलाम बनाता है ।
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