हरिशंकर परसाई जी प्रेमचंद के जूते को देखकर रो पड़े थे , मन में व्यग्रता और वेदना को दबा ना सके तो “जूते” के माध्यम से उस समाज को जूता मारा – जिस समाज ने अनमोल साहित्यकार को सिर्फ राजनीति के लिए फटे जूतों में मरने को छोड़ दिया !

आज प्रेमचंद जी का पुण्यतिथि है ! उस महान समाज सुधारक का जिन्होंने लगभग सभी अपने कृत में एक दबे – कुचले समुदाय को नायक बनाकर समाज में फैली कुरीतियों पर प्रहार किया ! “रंगभूमि” का सूरदास , “गोदान” का होरी, “ईदगाह” का हामिद , “पूस की रात” का  हल्कू या “ठाकुर का कुआँ” की गंगी , ये सभी पात्र कौन  लोग  थे ? ये लोग किस समाज के लोग थे, जिनको प्रेमचंद ने अपनी कलम से दुनिया को दिखाया ?

लेकिन विडम्बना देखिये ! आज उसी प्रेमचंद को राजनीति करने वाले गिद्ध , अपने आप को दलितों का मसीहा  कहने वाले भेड़ियों ने प्रेमचंद से “धनपत राय ” बना दिया है ! सरेआम सवर्ण – सवर्ण बोलकर गाली दे रहे हैं,अब कोई मोल नहीं रहा सवर्णों का जिन्होंने फटे जूते तो पहना स्वीकार किया लेकिन सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध  लिखना कभी बंद नही कीया !

प्रेमचंद अब धनपत राय हो गये , निराला अब सूर्यकान्त त्रिपाठी , दिनकर अब रामधारी सिंह , महादेवी अब  वर्मा , सुभद्रा अब चौहान एवं रविंद्रनाथ अब ठाकुर ? सभी जाति सरनेम के साथ सवर्ण हैं अब ?

यदि ऐसा नही है तो भीम आर्मी वाले , कन्हैया कुमार या उदित राज जैसे कीड़े मकोड़े लोग हमारे समाज के बीच  क्या कर रहें हैं ? क्या ये समझने में तनिक भी फेर है की ये लोग बाबा साहेब , बाबा साहेब – संविधान – संविधान  बोल बोल कर आजतक आरक्षण होने के वावजूद , दलितों को विकास का  टिकट तो दूर विकास के प्लेटफोर्म  पर भी चढ़ने नहीं दिया है !

हाथरस की घटना को जातिवाद से रंग कर ये रंगे हुए सियारों ने कभी सोचा कि वे कुरित विरोधी थे या सवर्ण विरोधी ?

आज मैंने भी प्रेमचंद के फटे जूते को देखा तो अचानक से मन में ख्याल आया – प्रेमचंद जी , अब आप प्रेमचंद नहीं रहे , कुछ गिद्धों ने मिलकर अब आपको धनपत राय श्रीवास्तव बना  दिया है l अब आप जाति के कायस्थ  हैं , एक सवर्ण जिसने दलितों का शोषण किया !

मेरी बात सुनकर फटे जूते ने आक्रोशित होकर कहा – मैं प्रेमचंद का जूता हूँ या धनपत राय का ?

मैं बस इतना ही कह पाया – ये प्रश्न सवाल मैं वर्तमान दलित मसीहों तक पहुंचा दूंगा ?

और फटे जूते ने हताश होते हुए  कहा – फिर तो उनलोगों तक मेरा प्रश्न नही पहुँच पायेगा , जिनके घर घर जाकर मैं उनके जीवन को  देखता था और फिर मुझे पहननेवाला उसे लिखता था !

मैं फिर कुछ बोल ना सका ! बस मन ही मन में सोचता रहा  – काश यदि इस फटे जूते को वह समाज बस एकबार अपने अन्तःद्रिष्ट से देख  पाये तो  शायद गिद्धों के चंगुल से सुरक्षित बच निकले  !!

-दिशव

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