अजंता एलोरा की गुफाएं हो, भारत के विशाल मंदिर या वेद ,उपनिषद, ब्राह्मण और आरण्यक जैसे अपौरुषेय ग्रंथ, सब के सब शिल्पियों/रचनाकारों/लेखकों के नाम से रहित हैं आखिर क्यों?
कारण यह कि हो सकता है कि भारतीय आर्ष परंपरा यह बताती है कि अपनी प्रशंसा करना आत्महत्या तुल्य है इसीलिए चाहे कैसे भी आविष्कार हो , कितनी बड़ी घोषणाएं हो, बड़े बड़े दार्शनिक तथ्य हों , बड़ी-बड़ी मूर्तियां हो , विज्ञान के सिद्धान्त हो , इतिहास के साक्ष्य हो या साहित्य और अलंकार की बातें हो , इन सब के स्रोत या सर्जक पुरुष या स्त्री के नाम कहीं नहीं मिलेंगे। अपना नाम अपनी कृति पर खुद लिखना एक पाप कर्म समझा जाता था और यही कारण है कि हमारे रामायण और महाभारत जैसे महान ग्रंथ की घटनाएं आधुनिक इतिहासकारों के द्वारा ईसा पूर्व ४ से ५ हजार सालों में समेट दी जाती है वो भी उनके द्वारा जिनकी संस्कृति में ना किसी को तब धोना आता था या पोंछना।
आधुनिक इतिहासकारों की हर अवधारणा को ध्वस्त करने के लिए तिब्बत से प्राप्त वह कल्प विग्रह की मूर्ति ही काफी है जिसकी कार्बन डेटिंग के अनुसार आयु २८०००० साल बताई जाती है । परंतु कहा यह जाता है कि यह मूर्ति जिसे एक लामा ने सीआईए को दिया था ताकि वह चीन के चंगुल से बच सकें । अभी वह अमेरिका के कब्जे से भी गायब हो गई या कर दी गई । अगर इस मूर्ति की प्रमाणिकता साबित हो जाती तो इतिहासकारों का पुरापाषाण काल , मध्य पाषाण काल ,नवपाषाण काल और धातु काल की सारी की सारी अवधारणाएं धरी की धरी रह जातीं। और जब इन सब के साथ अपने छद्म इतिहास बोध को भी बचाना था इसीलिए हो सकता है कि जानबूझकर वह प्रतिमा गायब कर दी गई हो।


अपने अतीत के प्रति हद से ज्यादा गौरवानुभूति ने भारतीयों को आत्ममुग्ध कर दिया है … ये आगे की पंक्तियों में और स्पष्ट हो जायेगा।
अगर हम ध्यान दें तो हमारे सारे आक्रांताओं अधिक से अधिक २०० से ३०० साल तक शासन किया परंतु सब ने कुछ ना कुछ इतिहास जैसा लिख दिया। जो बाबर अपने बीवी बच्चों के साथ एक हिंदू राजा के निजी दुश्मनी को निपटाने के नाम पर भारत आया था उसने भी सिर्फ 4 साल के शासन में बाबरनामा लिख दिया या लिखवा दिया।
इतिहासकार लिखते हैं कि हुमायूं भी एक लाइब्रेरी की सीढ़ियों से फिसल कर गिर मरा। कैसी लाइब्रेरी रही होगी। उस समय संस्कृत के ग्रंथ तो रखे नहीं गए होंगे तो जरा सोचिये अरबी फारसी के इतने किताब उसे जमा कैसे किए अपने 30 साल के संघर्षपूर्ण जीवन में जिसके लिए लाइब्रेरी बनानी पड़ी और यह भी कि १५५६ ई० में ४८ साल की उम्र में वह मरा उसके बाद उसकी बहन ने हुँमायू नामा लिख दिया था। १५२६ में १८ वर्ष की उम्र में बाप बाबर के साथ आया और ३० साल की उथल पुथल भरी ज़िन्दगी के लिए भी एक इतिहासनुमा किताब लिखी गयी।
क्या गज़ब नहीं लगता है कि १८ साल की कमसिनी में शाहज़ादा हुँमायू इतना पढ़ गया था कि दौड़ते भागते भी एक पुस्तकालय बना गया।


परंतु जब इतिहास में यही लिखा है तो पढ़ना पड़ेगा और मानना भी पड़ेगा।
अकबर का कहना ही क्या जिस के चरित्र के आधार पर एक इतिहासकार ने अशोक और युधिष्ठिर का भी चरित्र चित्रण मान लिया। अनपढ़ अकबर ने तो अपनी विरुदावली लेखन के लिये नवरत्नों की फ़ौज़ जमा कर रखी थी। तुजुके जहाँगीरी , आलमगीर नामा , आईन ए अकबरी, अकबरनामा, पादशाहनामा, शाहेजहाँनामा आदि कई किताबें हैं जो आज ही इतिहास बोध की सीढ़ियां बन चुकी हैं भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिए परंतु अगर कल्हण की राजतरंगिणी को छोड़ दिया जाए तो आजतक किसी भी सनातनी ने अपना इतिहास नहीं लिखा।

लगता है कि ज्ञान की अधिकता ने सनातनियों को कुछ ज्यादा ही आत्ममुग्ध कर दिया और इसलिए वे ऐसी गलती कर गए जिसका खामियाजा सनातन मतावलम्बी आज तक भुगतते रहे हैं और आगे भी सनातनियों की नस्लें भुगतती रहेंगी।

अतीत से सीख लेने के लिये पूर्व की घटनाओं पर प्रेरक कथा सरीखा इतिहास लिखा भी तो उसे भी समय आदि के अनुसार काल खंड में ना बाँट कर एक तरह का फ़ैंटम या चाचा चौधरी सिरीज हीं बनाई। हड़प्पा मोहन जो दाड़ों के काल खंड में या गुप्त , सातवाहन , मौर्य आदि के सत्ता काल में मूर्तियों या सिक्कों पर कुछ गोदा गया जो इतिहास के लिये साक्ष्य तो है पर पुस्तक नहीं और सिन्धुघाटी की लिपि को तो आज तक अबूझ हीं छोड़ा गया है जब्कि साफ़्टवेयर इंडस्ट्री के हम बेताज़ बादशाह हैं? आखिर क्यों? आखिर क्यों हम अपने अतीत की भाषा को डिकोड नहीं कर पा रहे हैं तो कारण अगली पंक्तियों में…

ध्यान दें की अंग्रेजों ने भी आने के साथ हीं हमारी शिक्षा व्यवस्था तहस-नहस की , सामाजिक संतुलन को पूरी तरह बिगाड़ डाला और एक नई शिक्षा पद्धति ले आए। उन्होंने भी कुछ ऐसे इतिहास लिखे जिससे यह साबित हो सके कि अगर अंग्रेज ना आते तो हम सब साँप के आगे बीन बजाते रहते।
क्योंकि उन सबको पता था कि जब भी इतिहास की बात आएगी तो इतिहास की तरह लिखी गई किताबें ही उद्धृत की जाएंगी। पुराणों में लिखी बातें ऐतिहासिक तथ्य नहीं माने जाएंगे। यकीन मानिए कि आज भी कद्दावर अधिकारी अपने सहायक को हिंदी में नहीं डाँटता है और अंग्रेजी में ही शट अप कहता है क्योंकि दूसरे के हाथों से लिखी हुई पर्चियाँ हमें शिलालेख जैसी दिखाई देती है। गेटे कहेगा कि कालिदस भारत के शेक्सपियर थे तो हम गर्वान्वित होते हैं जबकि होना ये चाहिये था कि हम कहते कि शेक्सपियर अपने देश के भिखारी ठाकुर थे, अंग्रेज़ गौरवान्वित होते।


अंग्रेजों ने मैक्स मूलर जैसे कई तथाकथित विद्वानों को काम पर लगा कर भारतीयों में अपनी संस्कृति के प्रति हीन भावना पैदा कर दिया जिसके कारण आज एक ईसाई अपने धर्म पर गर्व करता है, एक इस्लाम समर्थक पूरी तरह अकीदतमन्द होता है और हिंदू धर्म से निकले छोटे-छोटे बच्चे जैसे बौद्ध, जैन , सिख और यहां तक कि आज हमारी हीं सीमित आध्यात्मिक ग्रंथों के बदौलत खड़ा आर्यसमाजी भी अपने संक्षिप्त आर्यतत्व पर बड़ा गर्व करते हैं परंतु हम हिंदू अपने अतीत पर आज भी शर्मिंदा है। कारण है कि हमारा इतिहास बोध का मृत होना।
यही कारण है कि कई रामनवमियों पर घोषित सरकारी अवकाश में मौज़ मना कर न्यायालय के जजों ने राम के काल्पनिक होने की बहस सुनी।

जब २८००० ईसवी पूर्व की निर्मित कांसे की प्रतिमा मिल सकती है तो भारतीयों की कल्पना कुछ हजार सालों पहले की कैसे हो सकती है परंतु अगर इतिहास पढ़ना है तो किसी को लिखना पड़ेगा और जब तक लिखा नहीं गया तब तक जो भी लिखा हुआ है उसी को पढ़ना पड़ेगा। किसी भी शासक का चाहे वह मुस्लिम हो मंगोल हो अंग्रेज हो फ्रांसीसी हो या डच हो इनमें किसी एक व्यक्ति का शासन काल 20 साल से ज्यादा नहीं रहा लेकिन उसी कालखंड में उस शासक ने एक डायरी नुमा इतिहास लिखा या लिखवाया ।
और आप भी जानते हैं कि जब भी इतिहास पढ़ने की बात आएगी तो जो लिखा होगा वही तो पढ़ेंगे और आज हम सब वही पढ़ रहे हैं तो हमारा एक खंडित इतिहास बोध मन में उपज रहा है जो हिंदुत्व को कमतर मानता है। शायद यही कारण है कि आज नामचीन विद्यालयों में सरस्वती पूजा एक स्पेशल असेंबली बनकर रह गई है और क्रिसमस एक महापर्व बन गया है।
कुछ लोगों की आपत्ति हो सकती है कि इतिहास को किसी भी तरीके से लिखा जाए क्या फर्क पड़ता है इतिहास तो इतिहास है भूतकाल को बदला नहीं जा सकता परंतु सोचें कि अगर सिर्फ शेरों ने इतिहास लिखा तो बकरों का इतिहास बस फूल गोभी वाला इतिहास होगा और अगर बकरों ने इतिहास लिखा तो शेर मात्र आक्रांता माने जाएंगे पर आपको पता है पर्यावरण में शेर भी जरूरी है और बकरे भी और दोनों शास्वत रहेंगे भी। किसी एक के दृष्टिकोण से लिखा इतिहास तटस्थ नहीं हो सकता और तटस्थ होकर कोई लिख भी नहीं सकता लेकिन यदि दो अलग-अलग समूहों के द्वारा इतिहास लिखा जाए तो उसे पक्षपात की बू हटाई जा सकती है। कभी मौका मिले तो आप पाकिस्तान के इतिहास को पढ़ कर देखें जो पाकिस्तान में पढ़ाया जा रहा है। उसमें जरूर लिखा मिलेगा कि जिन्ना ने इस्लाम को बचाने के लिए जिहाद किया और गांधी ने उनका साथ दिया इसीलिए काफिरों ने गांधी को हलाक कर दिया और काफिरों ने अपने लिए एक बड़ा सा हिस्सा इस्लाम से छीन लिया। क्या यह बात सही है ?
और अगर यह ना लिखा जाए तो पाकिस्तान का इतिहास क्या होगा? वहाँ के इतिहास के शिक्षक आखिर क्या पढ़ाते? क्योंकि पाकिस्तान का तो कोई इतिहास हीं नहीं। वह इतिहास तो भारत के ज़ख्म पर से बहता मवाद है। परन्तु एक देश के रूप में उन्होंने अपना इतिहास लिखा। हर संस्कृति हर सभ्यता का अपना इतिहास होना चाहिए तथा इतिहास लिखा जाना चाहिए । पक्षपात या तटस्थता की बातें आने वाली पीढ़ियों पर छोड़ देनी चाहिए।

हालिया घटनाओं में राम जन्म भूमि पर बने मंदिर की नींव में टाइम कैप्सूल के अंदर विवरण डालने के प्रयास की बात चर्चा में आई ( ये प्रचारित है पर ट्रस्ट के एक माननीय सदस्य ने इस बात का खंडन किया है) या अभी हाल में भेजे गए अंतरिक्ष यान में प्रधानमंत्री का चित्र या एसडी कार्ड पर लिखी हुई भगवद्गीता डाली गई तो ये एहसास हुआ कि हां हिंदू ने अपना इतिहासबोध जगाया है और आगे से इतिहास लेखन में सनातन हिंदुत्व का स्पष्ट, तटस्थ और वास्तविक स्पर्श जरूर रहेगा, यह आशा है।

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