एक कहानी याद आती है कि एक दंपत्ति के घर में एक बच्चा था और उस दंपति ने एक कुत्ता पाल रखा था जिसका नाम था पैडी। उस बच्चे को पैडी से बड़ा प्यार था । एक दिन वह कुत्ता मर गया तो वह बच्चा जब स्कूल से पढ़ कर घर लौटा तो मां ने डरते डरते बच्चे को बताया कि बेटा पैडी मर गया । ये सुनकर भी बच्चा सामान्य सामान्य रूप से खाना खाता रहा । यह देखकर मां बहुत प्रसन्न हुई कि बेटा अब अपनी भावनात्मक आवेग पर काबू करना सीख चुका है तो उत्साहित होकर माँ ने पैडी के मरने का पूरा वृतांत सुना दिया। पूरा वाकया सुनते हीं अब बच्चा रोने लगा । माँ ने समझाते हुए कहा कि पहले तो तुम नहीं रोये थे तो अब क्यों रो रहे हो ।बच्चा बोला कि पहले मैंने गलती से यह सुन लिया कि डैडी मर गया इसलिए नहीं रोया।
और
जब भी इतिहास में जिक्र होता है कि सोमनाथ के मंदिर को कई बार लूटा गया, अयोध्या में राम मंदिर ,मथुरा में कृष्ण जन्म भूमि को या वाराणसी की ज्ञानवापी का ध्वंस कर उन जगहों पर मस्जिद बना दी गई तो आश्चर्य होता है कि इन आक्रांताओं के खिलाफ सामान्य सनातनियों का असंतोष क्यों नहीं जागा।
आपकी शंका निवारण हेतु यह ज्ञात हो कि काशी विश्वनाथ के नंदी का मुंह शिव की तरफ ना होकर ज्ञानवापी मस्जिद की तरफ है ।

Krishna Janmabhoomi Plea Admitted by Mathura Court


तो इस कहानी पर थोड़ा ध्यान दीजिये और सोचिये तो आपपायेंगे कि वास्तव में हर मनुष्य और खासकर सनातनी, इसी बच्चे वाली स्थिति में हीं रहता है । जिससे प्रत्यक्ष लाभ ना हो उससे लगभग उदासीन रहता है। सनातन धर्म वास्तव में मनुष्य की श्रेष्ठता को इतना महत्व देता है कि कभी भी किसी को अनिवार्य रूप से मंदिरों में जाने, उपवास करने , तीर्थाटन करने, दान देने या प्रसाद चढ़ाने के लिए विवश नहीं करता है। कई कथाओं के माध्यम से माता पिता के चरणों में सारे तीर्थों का वास बताकर व्यक्ति को हज़ या जियारत जैसे अनिवार्य तीर्थाटन से मुक्त कर देता है। ‌ मंगलवार और शनिवार का व्रत मॉडर्न लोगों की आस्तिकता है। ‌ यह एक ट्रेंड है धार्मिक प्रतिबद्धता नहीं। अगर आप मदरसे को देखें , गुरुद्वारे को देखें या जैनों के सार्वजनिक उपक्रमों को देखें तो पाएंगे कि मदरसे, गुरुद्वारे, जैन और बौद्ध मंदिर यहां तक कि आर्य समाज मंदिर भी सदैव जनोपयोगी काम करने में लगे रहते हैं । इस के उलट मंदिर या मठ चढ़ावे के रूप में धन आपसे लेता तो है, परंतु कोई भी जनोपयोगी काम नहीं करता है आमतौर पर ( ये जानकारी लेखक की अज्ञानता की वज़ह से भी हो सकती है)। भले वह पद्मनाभस्वामी मंदिर हो या तिरुपति ,साईं बाबा मंदिर हो या वैष्णो देवी। कोई भी मंदिर या सनातनी धार्मिक संगठन एक भी लोक उपकारी कार्य अपनी संचित निधि से नहीं करता है। वहीं यदि आप मदरसों, मज़ारों , जैन मंदिरों, बौद्ध मठों और गुरुद्वारों पर ध्यान दें तो यह संस्थाएं चंदा या धन तो लेती हैं परंतु उसके बदले अपने सामान धर्मी समाज में उपकार के कार्य करती है। ( वैसे बौद्धों का पोप आज भी भीख की ज़मीन से हीं अपने धर्म की महानता निहार रहा है।

सनातन धर्म के प्रतिष्ठान मंदिर मठ और आश्रम आमतौर पर जनता से या कहें कि भक्तों से चढ़ावा स्वीकार तो करते हैं परंतु उनका प्रयोग अपने संस्थान के खजाने को भरने के लिए करते हैं या अपनी दैनिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए करते हैं इनमें से किसी भी मंदिर की संस्था ने इस दाता समाज या श्रद्धालु वर्ग केलिएअं समाज के लिए कोई भी काम नहीं किया है शायद यही कारण है कि जब सोमनाथ के मंदिर को लूटा गया राम जन्मभूमि के मंदिर को तोड़ा गया कटरा केशव के कृष्ण जन्म भूमि को ध्वस्त किया गया और ज्ञानवापी को समाप्त कर मस्जिद बनाया गया तब सनातनी समाज चुपचाप बैठा हुआ सिर्फ तमाशा देख रहा था क्योंकि यह संस्थान जनता के लिए कुछ करते तो थे नहीं सिर्फ ले रहे थे। इसी लिये जनता भी बस देखती रही।
यही कारण है शायद कि जब राम को बनवास हुआ तो पूरी अयोध्या की जनता राम को रोकने के लिए निकल आई, राजा दशरथ से भी विद्रोह करने के लिए तैयार हो गई और श्रृंगवेरपुर तक राम लक्ष्मण और सीता का पीछा करती रही … उन्हें रोकने के लिए उन्हें लौटाने के लिए क्योंकि इस सूर्यवंश ने आमजन के लिए बहुत सारे कल्याणकारी कार्य किए और इस वंश के उत्तराधिकारियों से भी जनता को यही अपेक्षा रही ।
इसलिए इस कुल के युवराज के वन गमन पर पूरा पूरी अयोध्या शोकाकुल दिखी ।


शायद यही कारण था कि सीता का वनवास भी राम के द्वारा गुपचुप हुआ क्योंकि उन्हें भी जन विद्रोह की आशंका थी । इस पूरी प्रक्रिया में सूर्यवंशी सत्ता की जन कल्याणकारी प्र्वृत्ति सामने आती है परंतु वही जब हम द्वापर युग को देखते हैं तो चाहे भीम को जहर दिया गया या लाक्षागृह की चिता बनाई गई , जुए में हार कर द्रौपदी का चीर हरण हुआ या 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास पांडवों को झेलना पड़ा परंतु जनता में कोई हलचल नहीं हुई क्योंकि जनता ने इसे निजी झगड़ा माना और इनके जनकल्याणकारी योजनाओं से विमुख होने के कारण जनता ने राजवंश की सत्ता तो मानी परंतु उनसे अपना जुड़ाव नहीं पाया । इसीलिए भले ही हम कौरवों को असत्य का या अधर्म का पक्षधर माने परंतु उसकी तरफ बहुमत था ।
शायद यही कारण है कि अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष का प्रयागराज में हत्या या आत्महत्या प्रकरण को जनता निजी मुद्दा बनाकर बस तमाशा देख रही है और लेखक को विश्वास है कि आने वाले दिनों में यह घटना अखबारों के पहले पन्ने से लेकर हटकर आखरी पढ़ने में जाकर सिमट जाएगी । कारण बस एक है कि इन मठों आश्रमों और मंदिरों ने जनकल्याण के कार्यक्रम किए हीं नहीं तो सनातनी जनता ने भी मान लिया कि
कोऊ नृप होए हमे का हानी।
इन महन्थ महोदय के निधन से उतने लोग भी भी आहत नहीं हुए जितने राम रहीम , आशाराम या अन्य छ्द्म धर्म गुरु के लिये इकठ्ठा हो गये थे।
इस प्रकरण में शंकराचार्य के मठ भी आरोपमुक्त नहीं हो सकते।
सरकार की मन्शा भी धर्मनिरपेक्ष नहीं कही जा सकती क्योंकि एक भी चर्च, मस्ज़िद, बौद्ध मठ , जैन तीर्थ , सिनेगाग या आर्यसमाज मन्दिर सरकार के नियन्त्रण में नहीं है और ना हीं इन धार्मिक स्थानों पर माहवारी के दिनों में सैनिटरी नैपकिन लगाये महिलाओं ने प्रवेश के लिये कोई जुझारू प्रदर्शन किया है। ना कोई महिला मौलवी या भंगी समाज से ताज़ा ताज़ा मुसलमान बना कोई नमाज़ी जो नमाज़ पढ़वाये या कम से कम जुम्मे की नमाज़ में जमात में महिलाओं को भी बुलाये , ना कोई महिला लामा … माफ़ कीजिये लामी, ना कोई महिला पादरी ( बस NUN या NONE) , ना महिला रव्वी परन्तु सिंगणापुर में महिलाओं के प्रवेश के लिये जुझारूपने को , सबरीमला में माहवारी के दिनों में रक्तरंजित सैनिटरी नैपकिनों के साथ महिलाओं के दर्शन के अधिकार को , ब्राह्मणों के वर्चश्व को धराशायी करने के लिये दलित पुजारी की नियुक्ति को इस या कहें तो भारत की हर धर्मनिरपेक्ष सरकार का पूरा समर्थन है। आखिर क्यों?

लेकिन इस प्रजातान्त्रिक सरकारों को पता है कि इन निष्क्रिय मन्दिरों , मठों , आश्रमों पर कब्ज़ा भी कर लिया जाये तो सनातन समाज मूक तमाशा हीं देखता रहेगा कारण ये सिर्फ़ लेते हैं देते नहीं।

और आम सनातनी भाई भी पैडी की मौत का शोक मनाते हैं डैडी की मौत का नहीं।

पहली बार सनातन की बयार बही है… सत्ता शीर्ष मन्दिरों के भूमि पूजन में साष्टांग दण्डवत कर रहा है, महामहिम मन्दिर निर्माण के लिये सहयोग राशि खुले आम दे रहे हैं, सनातन अपने अस्तित्व की धमक सत्ता केन्द्रों तक पहुँचा रहा है। शायद सनातनी संस्थायें भी अपना दायित्व समझना शुरू कर रही हैं।

हे सनातनियों, मुफ़्त बिजली , सस्ते पेट्रोल और गैस सिलेण्डर रूपी पैडी तक हीं अपनी भावनायें सीमित ना रखें, डैडी ( सनातन ) की अवनति पर भी ध्यान दें और उत्थान के लिये वही प्रयास करें।
क्योंकि डैडी तो नया पैडी ला सकता है पर डैडी गया तो पैडी डैडी को नहीं ला सकता है।

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