जाने माने पत्रकार अभिषेक उपाध्याय हर रोज आर्मीनिया से युध्ह का आँखों देखा हाल लिख रहे है. अभिषेक देश के अकेले बड़े पत्रकार हैं जो इस वक्त दुनिया का भविष्य बताने वाले इस युद्ध को भारत की जनता तक पहुच्न्हा रहे है. प्रस्तुत है अभिषेक उपाध्याय की काराबाख डायरी का चौथा भाग

काराबाख डायरी- चौथा दिन

ये काराबाख की सिमेट्री थी। यहां नई खुदी हुई क़ब्रों की लाइन लगी थी। काराबाख का ये वॉर ज़ोन बेहद ही भयानक हो चला है। जीता जागता इंसान कब सोती हुई कब्र में तब्दील हो जा रहा है, पता ही नही लगता। इन क़ब्रों पर ताज़े फूल पड़े थे। सिसकती हुई आवाज़ो से पूरी सिमेट्री कांप रही थी। इस सिमेट्री में केवल उन्हीं सैनिकों की कब्रें थीं जो अजरबैजान से लड़ाई में मारे गए थे। ये सिमेट्री रोज़ ही बड़ी होती जा रही है। रोज़ ही सैनिकों के पार्थिव शरीर यहां पहुंच रहे हैं। मेरे जेहन में एक अजीब सा खौफ नाच उठा। ये सिमेट्री अभी और कितनी बड़ी होगी? कहीं किसी रोज़ पूरा शहर तो….!!

युद्ध के मैदान के ख्याल भी अजीब होते हैं। जो आप नही सोचना चाहते हैं, वही आपके ज़ेहन पर हावी होते जाते हैं। सिमेट्री के ऊपरी हिस्से में पिछली लड़ाई में मारे गए सैनिको की कब्रें थीं। ये लड़ाई साल 1989 से लेकर साल 1994 तक चली थी। 1994 में काराबाख को अजरबैजान के चंगुल से आज़ाद करा लिया गया। उस रोज़ पूरे काराबाख में जश्न था। बस ये कब्रें चुपचाप सोई हुईं थीं। इस लड़ाई में एक बार फिर से इस सिमेट्री में हलचल हुई है। इस सिमेट्री में होने वाली हलचल भी अजीब सी है। जब होती है तो पूरे काराबाख की हलचल थम जाती है।

आज हम फ्रंट लाइन तक पहुंचे हैं। फ्रंट लाइन यानि exact वो जगह जहां नागरनो काराबाख और अजरबैजान की सेनाएं आमने-सामने हैं। ये युद्ध सभ्यताओं के संघर्ष का दूसरा नाम बन चुका है। यहां सीधे तौर पर ईसाई बनाम इस्लाम है।

अमेरिकी राजनीति-विज्ञानी सैमुएल हंटिंगटन ने सभ्यताओं के संघर्ष की जो थ्योरी दी थी, वो यहां हूबहू लागू होती है। अजरबैजान पूरी तरह शिया मुल्क है जबकि आर्मेनिया पूरी तरह क्रिस्चियन मुल्क। बीच मे समाए इस नागरनो काराबाख में करीब 99 फीसदी आर्मेनियाई मूल के ईसाई हैं। अजरबैजान दशकों से इस पर कब्ज़े की लड़ाई लड़ रहा है। आर्मेनिया ये नही होने देने के लिए जी जान से जुटा है।

काराबाख में आप जिस भी आर्मेनियाई से बात कीजिये वो शुरुआत टर्की और अजरबैजान के भीषण नरसंहार के इतिहास से करता है। साल 1915 से 1918 के बीच टर्की ने करीब 15 लाख आर्मीनियाई क्रिस्चियनो का नरसंहार किया था। उस समय टर्की में करीब 25 लाख आर्मीनियाई क्रिस्चियन थे। इनकी करीब 70 फीसदी आबादी टर्की ने भयानक नरसंहार में साफ कर दी। ये इतिहास का काला दस्तावेज है। इसी तरह अजरबैजान ने भी साल 1988 में सुमगइट और बाकू शहरों में आर्मेनियाई क्रिस्चियन का नरसंहार किया। ये बातें यहां बच्चे-बच्चे को याद हैं। इस भयावह इतिहास की पृष्ठभूमि में ये लड़ाई दो अलग अलग धर्मों के बीच सदियों की भयानक दुश्मनी से सनी हुई है।

इस फ्रंट लाइन पर काराबाख का अंतिम शहर मार्तोनी है। हम जैसे ही यहां पहुंचे, हमारे कानो में भीषण धमाकों की आवाज़ गूंजने लगी। ये धमाके कुछ ही दूर सरहद पर हो रहे थे। ज़बरदस्त गोलाबारी जारी थी। पूरा शहर श्मशान सा नज़र आ रहा था। मलबे के ढेर के बीच हलचल तभी दिखती थी जब कोई पक्षी पंख फड़फड़ा कर उड़ता था। इन पंक्षियों को शायद इस जंग के बारे में कुछ भी नही पता था। इसीलिए वे इतने बेखौफ होकर उड़ रहे थे! हमें तुरन्त एक बंकर में ले जाया गया। यहां काराबाख की मिलेट्री की एक टुकड़ी थी जो शहर पर दुश्मनों के कब्ज़े को रोकने के लिए बतौर रिजर्व तैयार रखी गयी थी। रास्ते भर हमे अपने मोबाइल ऑफ रखने की कई बार हिदायत दी गयी। मोबाइल ऑन होने और सिग्नल कैच होने का सीधा सा मतलब था, बस की छत पर बम का धमाका होना।

यहां आकर एक ऐसी तस्वीर देखी जो अभी तक नही भूल पा रहा हूँ। एक दूसरे बंकर में दो बुजुर्ग औरतें रह रही थीं। एक औरत के दो बेटे कुछ ही दूरी पर अजरबैजान की सेनाओं से जंग लड़ रहे थे तो दूसरी के दो बेटे और साथ मे एक दामाद भी फौज का हिस्सा होकर फ्रंट लाइन पर डटा हुआ था। अपने ट्रांसलेटर की मदद से मैंने उनसे पूछा कि इस वीरान शहर में क्यों रुकी हैं और कब तक रुकेंगी? उनके जवाब ने भीतर तक हिला दिया। बोलीं कि जिस शहर को बचाने के लिए बेटे लड़ रहे हैं, वे उसे छोड़कर कैसे जा सकती हैं? जब बेटे जंग जीतकर लौंटेंगे तो वे उनका स्वागत करेंगी। सकारात्मक उम्मीद की ऐसी चरम सीमा, बस एक माँ के ही कलेजे में हो सकती है। माँ सबसे महान क्यों होती है, आज एक बार फिर से इस वॉर ज़ोन में आकर समझ आया!!

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