चाटुकार बाम पंथी इतिहासकारों का झूठ।
यहां पकड़ा गया इतिहासलेखन में वामपंथियों का झूठ
सवाल ये है कि कोई इतिहासकार किसी प्राचीन यात्री के नाम का हवाला देकर इतना बड़ा झूठ कैसे बोल सकता है.ये बामी इतिहासकार के पास कोई तथ्य नहीं है बस एक विदेशी यात्री के नाम पर झूठ बोलते आए हैं इसका जवाब यही है कि मार्क्स, माओ, लेनिन स्टालिन के मानस पुत्रों के लिए कुछ भी वर्जित नहीं है. अब जरा ये देखते हैं कि फाहियान का हवाला देकर एनसीईआरटी के विचारधाराई इतिहासकारों ने जो विष परोसा है उसकी हकीकत क्या है. दुनिया के रिनाउंड पब्लिशर माने जाने वाले कॉलोनियल प्रेस की ओर से साल 1900 में चीनी यात्री फाहियान पर एक किताब प्रकाशित हुई थी जिसके राइटर हैं एपिफेनियस विल्सन. इस किताब में फाहियान के हवाले से हिन्दुस्तान के तब के हालात के बारे में क्या लिखा गया है उसे देखिए-
‘यहां बहुतायत में लोग रहते हैं और प्रसन्न रहते हैं. पूरे देश में लोग जीवों की हत्या नहीं करते हैं और ना ही शराब पीते हैं, यहां तक कि प्याज लहसन भी नहीं खाते. एक मात्र अपवाद जो हैं वो चांडाल हैं. चांडाल नाम जीव हत्या करने वालों को दिया गया है जो दूसरों से अलग रहते हैं.
फाहियान का नाम लेकर बोला गया झूठ
एनसीईआरटी और एपिफेनियस विल्सन की किताब के बुनियादी फर्क को आप समझ गए होंगे. फाहियान ने कहीं नहीं लिखा कि छुआ-छूत की भावना थी और शूद्रों को नगर से बाहर रखा जाता था. उसने चांडाल शब्द का इस्तेमाल किया और उसे व्याख्यायित भी किया. अब असली खेल समझिए, फाहियान जब हिन्दुस्तान आया उस समय यहां चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन था और लोग खुश थे और जीवों के प्रति भी दया और करुणा का भाव रखते थे. लिहाजा जो गिने-चुने लोग जीव हत्या करते थे उनसे वे दूरी बनाकर रखते थे. इसमें कहीं भी जाति या वर्ण व्यवस्था की बात नहीं है. पर एनसीईआरटी की छठी क्लास की किताब के स्वनामधन्य लेखकों ने इतनी बड़ी बात छुपा ली. एपिफेनियस विल्सन अपनी किताब में फाहियान के हवाले से आगे क्या लिखते हैं उसपर भी गौर फरमाना बेहद जरूरी है, क्योंकि इससे एनसीईआरटी के इतिहास लेखकों का वो झूठ पूरी तरह बेनकाब हो जाएगा जिसके जरिए उन्होंने बच्चों के मन में सबसे ज्यादा विष भरा है. एपिफेनियस विल्सन फाहियान को कोट करते हुए लिखते हैं-
‘चांडाल जब नगर के प्रवेश द्वार या बाजार-हाट का रुख करते थे तो लकड़ी का बना ढोल बजाते थे ताकि नगरवासियों को पता लग जाए और वे उनसे परहेज कर सकें और उनके संपर्क में आने से बच सकें. इस देश में लोग सूअर या मुर्गा नहीं पालते थे ना ही मांसाहार के मकसद से पशुओं की खरीद-बिक्री करते थे. बाजार में कसाईखाना नहीं होता था, ना ही शराब की कोई दुकान होती थी.’
तुलसीदास की रामचरित मानस से समझिए भारतीय समरसता :
उस जमाने में हिन्दुस्तान के लोगों में इंसान तो इंसान जीवों के प्रति भी जो दया और करुणा का भाव था वही हमारे वामपंथी इतिहासकारों को खल रहा है और इसी वजह से वो इतिहास को विकृत कर रहे हैं. जीव मात्र के प्रति ऐसी संवेदनशीलता भी वेद पुराण, उपनिषद के संदेशों की वजह से थी. लेकिन हमारे लेफ्टिस्ट हिस्टोरियन ने तो अपनी सुविधा के मुताबिक इन महान ग्रंथों पर भी कालिख पोतने का काम किया. रही बात वेदों के हवाले से समाज को चार वर्णों में बांटने की बात तो इन वामपंथी इतिहासकारों ने उन ऋचाओं को बगैर जाने समझे ही सिर्फ समाज को भड़काने के लिए उसका अर्थ निकाल दिया. क्योंकि वैदिक ग्रंथों में शुरू से आखिर तक इंसान तो इंसान जीव-जंतु को भी ईश्वर का अंश बताया गया है.
गोस्वामी तुलसीदास ने 17वीं शताब्दी की शुरुआत में ही में रामचरित मानस की रचना की. इस ग्रंथ की रचना के स्रोतों का हवाला देते हुए उन्होंने मंगलाचरण के 7वें श्लोक में क्या लिखा है उसे देखिए-
नानापुराणनिगमागम सम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमति मंजुलमातनोति॥7॥
रामचरित मानस के मंगलाचरण के इस 7वें श्लोक का अर्थ अद्भुत है…. इसमें गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं- ‘चारों वेद, अनेक पुराण और शास्त्रों से सम्मत, मूल कथा रामायण से लेते हुए और कुछ दूसरे स्रोतों में भी उपलब्ध रघुनाथ जी की कथा को मैं तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख के लिए अत्यन्त मनोहर भाषा में लिख रहा हूं।’ मतलब ये कि तुलसीदास ने राम चरित मानस की रचना वेद, पुराण, रामायण और कुछ और स्रोतों में वर्णित जानकारी के आधार पर की है. यानी इसमें लिखी बातों को वेद, पुराण सम्मत माना जाना चाहिए. राम चरित मानस की कथा के महानायक भगवान राम हैं, लिहाजा कथा प्रसंग में भगवान राम के मुख से जो कहलाया गया है उसे वेद सम्मत माना जाना चाहिए. राम चरित मानस में ईश्वर के अवतार भगवान राम कहते हैं-
सब मम प्रिय सब मम उपजाए।
सब ते अधिक मनुज मोहि भाए।।
राम चरित मानस में लिखी इस चौपाई का अर्थ जानकर आपको ये लग जाएगा कि भारतीय ग्रंथों में कैसे हर जीवधारी को भगवान का ही अंश माना गया है. इस चौपाई का अर्थ भी जान लेते हैं- ‘इस संसार में जितने भी जीव-जंतु हैं वो सब मुझे प्रिय हैं क्योंकि इन सब को मैंने ही बनाया है, हालांकि इन सब में मुझे मनुष्य सबसे अधिक भाता है.’ इसमें भगवान राम कहां किसी जाति, पंथ या संप्रदाय की बात कर रहे हैं. इसी प्रसंग में भगवान राम जात-पात के मायाजाल को पूरी तरह से निरस्त भी कर देते हैं, वो कहते हैं-
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी।
मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी।।
इसका अर्थ जानकर आप ये सोचने को मजबूर हो जाएंगे कि इन ग्रंथों के हवाले से आखिर जाति और ऊंच नीच का अर्थ कैसे कर दिया गया है. इस चौपाई में भगवान राम कहते हैं-अति नीच जीव भी अगर भक्ति का वरण कर लेता है तो वो मुझे प्राण की तरह प्रिय लगने लगता है और ये मेरा बयान है.
हर प्राणी में ईश्वर को देखने की भारतीय परंपरा
भगवान राम सृष्टि के हर एक प्राणी की बात कहते हैं, यानी हर जीवधारी की बात करते हैं और साफ कहते हैं कि ये मेरा खुद का बयान है. अब सनातन धर्म के आराध्य राम ये संदेश देते हैं तो फिर ब्राह्मण और शूद्र का बंटवारा आखिर किसने किया. साफ है कि इस देश के सनातन ग्रंथों की व्याख्या विचारधाराई इतिहासकारों ने अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर काफी गलत तरीके से की है.
ये थी वामपंथियों की असली साजिश :
आम इंसान जो सीधा इन ग्रंथों को नहीं पढ़ पाता वो इन व्याख्याओं को ही सही मानकर जात-पात और ऊंच नीच की हीन भावना का शिकार हो जाता है और यहीं से पैदा होने लगती है एक दूसरे के प्रति नफरत की भावना. ऐसे में ये मानना होगा कि इन वामपंथी इतिहासकारों ने देश का, समाज का काफी बेड़ा गर्क किया है. जरूरत अब इस बात की है कि इन ग्रंथों का सही अर्थ समझा जाए ताकि सांस्कृतिक एकता की बुनियाद दोबारा से मजबूत हो.
ऐसे बामपंथी लोगों में ब्राह्मण कहीं ना कहीं आगे रहे हैं जो आज भी बॉलीवुड का अधिकांश हिस्सा,सरकारी विभाग के कुछ कर्मचारी,इतिहासकार, कुछ अर्थशास्त्री,कुछ पूर्व नौकशाह, कुछ मीडिया कुछ राजनीतिक दल और बुद्धिजीवी हैं जो खुद तो अच्छा कमा रहे हैं पर सहानुभूति के नाम पर नफरत का जहर परोस रहे हैं।
ये लोग बीच बीच में स्वीट पॉयजन की तरह समाज में अपनी बात को रखते रहे हैं जो कई विवादों को जन्म देता है ।
समाज को ऐसे लोगों से बचने की ज़रूरत।
जन जन की बात।
अमित कुमार के साथ।
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