साठ के दशक का चालीस करोड़ तो इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में एक अरब बीस करोड़ से ज्यादा आबादी वाला देश भारत में आखिर जनसंख्या नियंत्रण नीति में क्या कमी रही कि जनसंख्या रुकने या घटने के बजाय बढ़ती चली गई। सामान्य गणित यह कहता है कि अगर हर नव दंपति एक संतान वाला हो तो जनसंख्या ह्रास होगा, दो संतान हो तो संख्या लगभग अक्षुण्ण रहेगी पर तीन या चार संतान होने के बाद थोड़ी वृद्धि संभव है।
लगभग हर हिंदू परिवार में दो दशक पहले के नव विवाहित जोड़े के घर दो से ज्यादा संतान नहीं दिखाई देती है , ईसाइयों और सिखों में भी अधिक संतानें कम हीं दीखती हैं , यहूदी और पारसी समुदाय तो घटते हीं जा रहे हैं , फिर ऐसी वृद्धि. …. चीन को टेक्नोलॉजी में पीछे भले न कर सकें पर आबादी में उसे दोयम दर्जे पर लाने को तत्पर हैं । आखिर क्यों?
जब आबादी बढ़ने के लक्षण हिंदू, सिख, पारसी , यहूदी , ईसाई आदि कुनबों में प्रत्यक्ष नहीं दिख रहा है तो क्या सिर्फ मुसलमान इस बढ़ती हुई आबादी के एक मात्र असंतुलन केंद्र हैं? यदि हाँ तो क्यों और नहीं तो क्यों नहीं?
चलिए इस पर एक अनुशीलन करें । ईसाई, पारसी और यहूदी तो शिक्षित या कर्मण्य या व्यवसायी विचार वाले होते हैं और छोटे परिवार को उन्नति का मूल मानकर कम संतति वाले बनते हैं तो हिंदू समाज में आमतौर पर आम युवा प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी में अपनी युवावस्था गुजार देता है और सामान्यतः 30 के आसपास विवाह कर अधिकतम दो संतानों की उत्पत्ति लायक हीं रह जाता है। वाणिज्य या व्यवसाय से जुड़े युवा विवाह थोड़ा पहले अवश्य कर पाते हैं पर आम नौकरी पेशा की तरह वह वर्ग भी एक दो संतानों के बाद उनका भविष्य सँवारने और पैतृक व्यवसाय को कुछ और ऊँचाई देने में इतना मशगूल हो जाता है कि वहाँ भी दो से अधिक बच्चे नहीं मिलते।
हाँ हिन्दू समाज के मजदूर कामगार वर्ग में अधिक बच्चे दिख जाते हैं जिसके पीछे अधिक सदस्य अधिक मजदूरी, अधिक राहतकार्य का हिस्सा एवं अधिक अनुदान की राशि का लोभ या कहें उम्मीद का फार्मूला काम करता है ।
अब मुसलमानों की आबादी बढ़ने का कारण आपको पता है। इसमें पहला है आधुनिक शिक्षा का अभाव , दूसरा है शरीअत का परिवार नियोजन को कोई समर्थन न मिलना , तीन चार शादियों की सहमति, मरदों को मिले ताकतवर सामाजिक शक्तियाँ , तलाक द्वारा पत्नी का सहज त्याग और बच्चों के बारे में ढुलमुल नीतियाँ ।
तीसरा कारण है मुसलमानों की हुनरमंदी जो बेरोजगारी के डर से संतानें पैदा न करने के वजह से निजात दिलाती हैं । मांस की बिक्री, फल फूलों की दूकान, मेबे बेचना , दर्जी का काम, रिपेयरिंग वर्क आदि कुछ ऐसः काम हैं जिसके ग्राहक सहज उपलब्ध हैं और लागत कम से कम । इनका कुनबा बढ़ाने का एक कारण है धर्म के नाम पर इनका किसी को भी सामाजिक तौर पर सामूहिक सपोर्ट। ये कारक हैं मुस्लिम आबादी के अबाध गति से बढ़ने का।

खैर अब आते हैं अपने मुद्दे पर कि मुसलमानों को एक परसनल लाॅ के बाबत अनगिनत संतानों का हक और हिंदुओं को देश हित में एक या दो बच्चों की सलाह क्या मुस्लिम आबादी बढ़ाने का एक प्रच्छन्न एजेंडा नहीं है? कई देशों की मूल निवासी अल्पसंख्यक हो गये हैं और वहाँ का राजकीय धर्म इस्लाम हो चुका है पर क्या एक भी ऐसा देश है जहाँ मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक से अल्पसंख्यक हुई हो।

हाँ एक है इजरायल जो आप सबको पता है। वजह भी आप जानते हैं । जनसंख्या वृद्धि को देश के हित में न बताना पर हर मंच पर भारत को सबसे बड़ी युवा आबादी का देश बताना क्या मजाक नहीं है। अगर आबादी न बढ़ती तो क्या युवा परखनलियों से पैदा होते। जनसंख्या को अभिशाप मानकर परिवार नियोजन को देशहित में मानना कदापि उचित नहीं । हाँ आर्थिक आधार पर परिवार पल्लवन बढ़े या घटे ये आपकी निजी राय होनी चाहिए परिवार कल्याण मंत्रालय की सलाह की अनुपालना नहीं । और अगर सरकार इस पर मुँह खोले तो एक समान कानून की बात बोले बरना …!

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