इतिहास में वर्णित है कि औरंगजेब जैसे क्रूर धर्मांध शासक नें हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया था, पर उसनें आर्थिक तेजी के लिए अनेकों टैक्स खत्म भी कर दिये अथवा कम भी कर दिये थे …

जिनमें प्रमुख रूप से उस समय लगने वाला तटकर, चुंगी कर और राहकर शामिल थे ….

औरंगजेब नें अनेकों हिन्दू मंदिर तोड़े, पर पुराने मंदिरों की मरम्मत करा सकते थे, ऐसा हुकमनामा भी जारी किया …

औरंगजेब नें हिन्दुओं के हाथी एवं श्रेष्ट उन्नत नस्ल के सुंदर हष्ट पुष्ट घोड़ों की सवारी पर पाबंदियां लगाई …
पर कुलिन क्षत्रिय ब्राह्मण और नगर श्रेष्ठ इस पाबंदी में नहीं आते थे …

कुलिन वर्गों पर इन पाबंदियों में छूट या तो इसलिए दी … कि या तो वो *सामंतवादी अथवा दलित विरोधी था ….

या उन हिन्दु रियासतों से फटती थी, क्योंकि मेवाड़ मारवाड़ और जयपुर सहित अनेकों रियासतों नें उसको जजिया देने से मना कर दिया, उनकों हाथी घोड़े पर बैठने को कैसे रोके ….

पर आजके समय क्षत्रिय हो चाहे ब्राह्मण या नगर सेठ हो अपनी गाड़ी तक पर अपनी पहचान चिन्ह नहीं लिख सकता, जबकि जाति लिखे प्रमाणपत्रों के आधार पर बढिया से बढिया नौकरी और सांसदी तक मिल जाती है, खैरात रूप में पेंशन, धान-चून मिलता वो अलग ….

इसी दोगली बात पर तो साला गुस्सा आता है, कि ब्राह्मण को तुम आटा चुन मांगने वाला कहते हो और उसपर खुद के छुए का ना खाने का आरोप भी लगाते …
जब तुमसे कुछ लिया ही नहीं, तो यह मांगकर खाने वाला आरोप क्यों भाई ??

आरोप ही लगाना तो उनपर ?? लगाओ .…

जो खैरात में बांटा आटा चून आज भी पा रहे हैं, वोटबैंक वाली उन ब्राह्मण क्षत्रिय और वैदिक सनातन विरोधी सत्तालोलुप सरकारों से ……….

साथ ही आजके लोकतंत्र में उपरोक्त वर्णित सामंतवाद, सामंत और भोमिया के बारे में भी अनेकों कुधारणाएं प्रचलित है अथवा सुनियोजित रूप से प्रचलित की गई … पर राजपुताना काल में सामंती अथवा जागीरी उसी को मिलती थी, जो कम से कम सौ उद्दट योद्धाओं के समान बली हो, इसके पीछे राज दरबारों की यह मान्यता अथवा मंशा रहती थी कि, वही ऐसे बलशाली यौद्धा अपनी प्रजा की रक्षा कर सकते हैं, और वही अपने राज्य की रक्षा करने में सक्षम होता है, अनेकों जागीरें उन भोमियाओं योद्धाओं के कुटुंब समुह को सौंपी जाती थी, जो राज्य हित में अपना बलिदान कर चुके ….

सामंतवादी विरचना
(The Feudal Formation)

सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्पादन साधनों (means of production), मुख्यतः भूमि (land) पर पूर्ण निजी स्वामित्व (full private ownership) और उत्पादक पर, यानी किसान पर अपूर्ण स्वामित्व, सामंतवादी उत्पादन संबंधों (feudal relations of production) का आधार था।

इस प्रकार का स्वामित्व रोम के तथा पूर्व के कुछ दास-प्रथागत राज्यों के समाज में धीरे-धीरे उत्पन्न होने भी लगा था। दास केवल भौडे औज़ारों (rough tools) से ही काम कर सकते थे और नीची उत्पादकता (low productivity) के आदिम काम ही पूरे कर सकते थे। वे ग़ुलामी के जबरिया श्रम (forced labour) से नफ़रत करते थे और उन्हें अपने काम के परिणामों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उत्पादन के साधनों में सुधार के बाद ग़ुलामों के बजाय, आश्रित उत्पादकों (dependent producers) के श्रम का उपयोग लाभदायी हो गया। उत्पादन के ऐसे नये संबंध बनने शुरू हो गये, जिनमें भूमि तथा उपकरणों के स्वामी ने उन्हें उत्पादक के उपयोग के लिए दे दिया और इस तरह, उत्पादक को अपने पर आश्रित बना दिया। इस प्रकार का क़ानूनन आश्रित कामगार पूर्णतः अपने मालिक की संपत्ति नहीं था और उत्पाद के कुछ अंश को स्वयं विनियोजित कर सकता था, अतः उसे अपने काम में दासों के बजाय अधिक दिलचस्पी थी।

यूरोप में तीसरी से पांचवीं सदियों के दौरान नये उत्पादन संबंधों के विकास को एशिया से आने वाले बर्बर क़बीलों के हमलों से बढ़ावा मिला। इन लोगों ने रोम के दास साम्राज्य को भंग करके उसके ध्वंसावशेषों पर कई नये राज्यों की स्थापना की, जिनके अध्यक्ष सैन्याधिकारी ( राजा, ड्यूक, बैरन ) होते थे। वे एक दूसरे पर निर्भर थे, वरिष्ठ अवस्थिति (senior position) के लोगों ने भूमि की जोतों को अपने योद्धाओं और सैनिकों के बीच बांट दिया। जोतदार (holders of fiefs) असामी, जागीरदार (vassals) बन गये और उन पर सैनिक सेवा की अनिवार्यता थोप दी गयी। निर्भरता की यह प्रणाली बड़ी जटिल और सोपानक्रमिक (hierarchical) थी। सबसे ऊपर थे सम्राट और राजा, उनके असामी थे ड्यूक और उनके नीचे के असामियों के रूप में थे काउंट, बैरन, आदि। सबसे नीचे के स्तर पर मेहनतकश, भूदास थे। कृषि सामंतवाद का आधार था, किंतु नगरों में भी सामंती संबंधों को सुदृढ़ बनाया गया, जिसके फलस्वरूप मध्ययुगीन दस्तकारी (craft) संगठनों ( गिल्डों, guilds ) का गठन हुआ। उनके भी अपने ही जटिल सोपानक्रमिक संबंध थे।

सारी श्रेणियों के सामंतों ने एक नये शासकीय प्रभावी वर्ग का गठन कर लिया, जबकि भूदास किसान तथा बहुत निर्धन दस्तकार शोषित वर्ग बन गये। भूदासों तथा दस्तकारों ने सामंती प्रभुओं के ख़िलाफ़ ज़ोरदार संघर्ष चलाया और अक्सर सशस्त्र विद्रोह भी किये। ये विद्रोह मेहनतकशों की पराजय में समाप्त हुए, क्योंकि उनकी जीत के लिए आवश्यक समुचित दशाओं का अस्तित्व नहीं था।

राज्य में घोर फूट और एकता के अभाव का होना सामंती समाज की लाक्षणिकता थी। प्रत्येक सामंत राजनीतिक स्वाधीनता पाने का प्रयास करता था। सामंतों के बीच अंतहीन युद्ध होते थे, जिनके कारण उत्पादक शक्तियों के विकास और उत्पादन संबंधों में सुधार में रुकावटें पैदा हो जाती थीं। सामंती समाज घोर रूढ़ीवादी (conservative), गतिरुद्ध (stagnant) था और उसके विकास की रफ़्तार बहुत धीमी थी। किंतु पूर्ण गतिरोध तथा सामाजिक विकास का पूर्ण-रोधन कभी नहीं हुआ।

यह बात मुख्यतः औज़ारों, उपकरणों तथा हस्तकला के मंद, किंतु अनवरत परिष्करण में प्रकट होती थी, इसका एक परिणाम था राज्यों के अंदर तथा राज्यों के बीच व्यापार का विस्तार। सामंती फूट, एक एकल मुद्रा प्रणाली (single monetary system) तथा संचार व्यवस्था का अभाव, क़ानूनों की विभिन्नता, आदि धीरे-धीरे उद्योग तथा व्यापार के विकास की बाधाएं बन गये। उत्पादक शक्तियों के और अधिक विकास तथा नयी उत्पादन पद्धति की रचना का तक़ाज़ा था कि समाज के आधार (basis) तथा अधिरचना (superstructure) का आमूल पुनर्संगठन तथा पुनर्निर्माण किया जाये।

१५वीं-१७वीं सदियों में पश्चिमी यूरोप के राज्यों में एक नयी पूंजीवादी उत्पादन पद्धति (capitalist mode of production) ने रूप ग्रहण करना शुरू कर दिया। विविध यांत्रिक विधियों और मशीनों के आविष्कार, औज़ारों व उपकरणों के परिष्करण, आदि के कारण भूदासों तथा गिल्ड दस्तकारों का श्रम अलाभकर हो गया। सामंती सामाजिक संबंध, समाज के विकास में बाधक बन गये। एक नया शोषक वर्ग, बुर्जुआ वर्ग (bourgeoisie, पूंजीपति वर्ग) सामंतवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष का नेता बन गया ; इस वर्ग को किराये के श्रम (hired labour) तथा उजरती मज़दूरों (wage workers) के शोषण तथा नयी पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के विकास में दिलचस्पी थी।

१७वीं-१८वीं सदियों में कई बुर्जुआ क्रांतियों के, जिनमें सर्वसाधारण ने सक्रिय रूप से भाग लिया, फलस्वरूप यूरोप और अमरीका के अनेक देशों में सामंती प्रणाली ध्वस्त हो गयी और सामंती राज्य ने बुर्जुआ राज्य के लिए रास्ता छोड़ दिया। उत्पादन की प्रणाली में, निजी स्वामित्व के पूंजीवादी रूप पर आधारित उत्पादन संबंध प्रभावी बन गये।

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