आज़ादी की लड़ाई में असली भूमिका निभाने वाले अनेक नायकों को वामपंथी इतिहासकारों ने गुमनाम कर दिया था।
ऐसे ही एक नायक ही नही, अपितु महानायक हुए थे जिन्होंने ब्रिटिश धरती पर रहकर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज़ उठाई थी और अनेक वीर क्रांतिकारियों को आज़ादी के लिए तैयार किया था।
Forgotten Indian Freedom Fighters लेख श्रृंखला की बीसवीं कड़ी में आज हम पढ़ेंगे उन्हीं वीर क्रांतिकारी महानायक श्री श्यामजी कृष्णवर्मा जी के बारे में।
श्यामजी का जन्म 04 अक्टूबर 1857 को प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गुजरात के कच्छ जिले में हुआ था। क्रांति की भावना मन में युवावस्था के दौरान ही बढ़ती जा रही थी, इसी बीच श्यामजी का सम्पर्क स्वामी दयानंद सरस्वती जी एवं बाल गंगाधर तिलक जी जैसे महान राष्ट्रवादी विचारकों से हुआ। स्वामी दयानंद जी के विचारों से श्यामजी बेहद प्रभावित हुए और उनके शिष्य बन गए।
पूरे देश में श्यामजी ने दयानंद जी की शिक्षाओं को प्रसारित करने के लिए दौरे किए, यहाँ तक कि काशी में उनका भाषण सुनकर काशी के पंडितों ने उन्हें पंडित की उपाधि दे दी, ऐसी उपाधि पाने वाले वो पहले गैर ब्राह्मण थे।
वर्ष 1878 में विल्सन कॉलेज मुंबई में संस्कृत भाषा के अध्ययन के दौरान श्यामजी को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी लंदन से संस्कृत पढ़ाने का ऑफर आया। श्यामजी ने इस ऑफर को स्वीकार कर लिया और वे लंदन चले गए, जहाँ संस्कृत के प्रोफेसर मोनियर विलियम्स ने उन्हें अपना असिस्टेंट बना लिया। इस दौरान श्यामजी एशियाटिक सोसायटी के सदस्य बन गए, बर्लिन कांग्रेस ऑफ ओरियंटलिस्ट में भारत का प्रतिनिधित्व किया और सात साल लंदन रहने के बाद वो वर्ष 1885 में भारत लौट आए।
वर्ष 1885, ये ही वो समय था जब कांग्रेस की स्थापना हुई थी लेकिन श्यामजी प्रारम्भ से ही कांग्रेस की दया याचना नीति के विरोधी रहे थे। भारत आकर उन्होंने बतौर वकील अपना कार्य शुरू किया और जल्द ही श्याम जी को रतलाम स्टेट का दीवान बना दिया गया लेकिन तबीयत खराब रहने के चलते उन्होंने वहाँ से नौकरी छोड़ दी और अपने गुरू स्वामी दयानंद के प्रिय शहर अजमेर में बस गए, जहाँ ब्रिटिश कोर्ट में वकालत की प्रैक्टिस करने लगे।
इसी दौरान श्यामजी दो वर्ष (1893 – 1895) तक उदयपुर स्टेट के काउंसिल मेम्बर भी रहे, फिर वो गुजरात में जूनागढ़ स्टेट के दीवान भी बने लेकिन एक ब्रिटिश एजेंट से श्यामजी का इस कदर झगड़ा हुआ कि ब्रिटिश सरकार के प्रति उनका मन नफरत से भर गया और वर्ष 1897 में उन्होंने नौकरी से भी इस्तीफा दे दिया।
स्वामी दयानंद सरस्वती जी की ‘सत्यार्थ प्रकाश’ एवं अन्य पुस्तकें पढ़ने के बाद श्यामजी के मन में राष्ट्रवाद की भावना और बढ़ने लगी। यही कारण था कि वर्ष 1890 में ‘एज ऑफ कंसेंट बिल’ वाले विवाद में तिलक का उन्होंने जमकर साथ दिया और पुणे के प्लेग कमिश्नर रैंड की हत्या के केस में भी वो चापेकर बंधुओं का समर्थन करने से पीछे नहीं हटे। श्यामजी कांग्रेस के गरम दल के नेताओं से भी प्रभावित थे।
लेकिन श्यामजी को महसूस हुआ कि देश में रहकर अंग्रेजों का विरोध करना आसान नही है, ये काम लंदन में रहकर थोड़ा आसानी से हो सकता है। इसलिए वर्ष 1900 में उन्होंने लंदन के पॉश इलाके हाईगेट में एक मंहगा घर खरीदा और उसका नाम ‘इंडिया हाउस’ रख दिया।
फिर तो ये ‘इंडिया हाउस’ विदेशी धरती पर भारतीय क्रांतिकारियों का प्रमुख केंद्र बन गया। जो भी क्रांतिकारी भारत से लंदन आते वो ‘इंडिया हाउस’ में ही रुकते थे।
भगतसिंह, लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले आदि अनेक स्वतंत्रता नायक यहाँ रुके थे। प्रारंभ में 25 भारतीयों को उस इंडिया हाउस में बतौर हॉस्टल रुकने का मौका दिया गया था जो लंदन में रहकर पढ़ रहे थे, बाद में दुनिया के कई शहरों में इंडिया हाउस शुरू किए गए। पेरिस, सैनफ्रांसिस्को और टोक्यो में भारतीय क्रांतिकारियों ने अपनी रणनीतियां बनाने के लिए इनका उपयोग किया।
वर्ष 1905 से श्यामजी ने अपना पूरा ध्यान भारत की स्वतंत्रता के लक्ष्य के बारे में लगाया और इसी कड़ी में उन्होंने एक अंग्रेजी मासिक समाचार पत्र “द इंडियन सोशियोलॉजिस्ट” का प्रकाशन शुरू किया।
यह पत्र ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक बहुत बड़े पैमाने पर विरोध को प्रेरित करने वाला एक मुखर वैचारिक पत्र था, जिसने कई भारतीयों को भारत की स्वतंत्रता हेतु लड़ने के लिए प्रेरित किया।
इसी तरह 18 फरवरी 1905 को श्यामजी ने “द इंडियन होमरूल सोसाइटी” नामक एक संगठन का निर्माण किया जिसके प्रमुख उद्देश्य थे :-
● भारत के लिए स्वशासन का लक्ष्य।
● सभी भारतीयों में स्वतंत्रता एवं राष्ट्रीय एकता के उद्देश्यों का प्रसार करना।
इंडिया हाउस ने कई क्रांतिकारियों को शरण दी थी, जिनमें भीखाजी कामा, वीर सावरकर, मदन लाल ढींगरा, वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय आदि प्रमुख थे। बाद में लाला हरदयाल भी इससे जुड़ गए और अमेरिका से भगत सिंह के गुरू करतार सिंह और विष्णु पिंगले जैसे क्रांतिकारियों की अगुवाई में अमेरिका से गदर आंदोलनकारियों का दल वर्ष 1915 में एक बड़ी क्रांति के लिए भारत भी आया लेकिन एक गद्दार की वजह से वो योजना असफल हो गई। उस गदर क्रांति को भी लाला हरदयाल और श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सहायता दी थी।
ब्रिटेन में श्यामजी की गतिविधियों से ब्रिटिश सरकार की चिंता बढ़ गई और द इंडियन सोशियोलॉजिस्ट में ब्रिटिश विरोधी लेख लिखने के कारण 30 अप्रैल 1909 को उन्हें इनर टेम्पल की सदस्यता सूची से हटा दिया गया। अधिकांश ब्रिटिश प्रेस श्यामजी के समाचार पत्र की विरोधी थी और उनके खिलाफ अपमानजनक आरोप भी लगाए। टाइम्स पत्रिका ने तो उन्हें “Notorious Krishnavarma” (कुख्यात कृष्णवर्मा) के रूप में संदर्भित किया। हालांकि कई अन्य अखबारों ने ब्रिटिश प्रगतिवादियों की आलोचना की और श्यामजी एवं उनके विचारों का समर्थन किया।
फिर भी श्यामजी अंग्रेजों के निशाने पर आ गए थे और साथ में उनका इंडिया हाउस भी। सीक्रेट सर्विस के एजेंट उन पर नजर रखने लगे और यहाँ तक कि श्यामजी पर कई तरह की पाबंदियां लगा दी गईं थी। इधर शिवाजी फ़ेलोशिप के तहत वीर सावरकर भी इंडिया हाउस में आकर रहने लगे थे तो श्यामजी ने इंडिया हाउस की जिम्मेदारी वीर सावरकर को सौंपी और खुद वर्ष 1907 में पेरिस निकल गए।
अंग्रेजी सरकार ने पेरिस भी श्यामजी को परेशान किया लेकिन श्यामजी ने कई फ्रांसीसी राजनेताओं से संपर्क बना लिया था और वो वहीं से पूरे यूरोप के भारतीय क्रांतिकारियों को एकजुट करने, उनकी मदद करने, कई भाषाओं में अखबार छपवाने आदि कार्य करने लगे थे। लेकिन ब्रिटेन और फ्रांस के बीच एक सीक्रेट समझौते के चलते उन्होंने पेरिस को भी छोड़ना उचित समझा और वो प्रथम विश्व युद्ध से ठीक पहले स्विटजरलैंड की राजधानी जेनेवा के लिए निकल गए, हालांकि वहाँ पर भी थोड़ी पाबंदियां थी फिर भी वो जितना कर सकते थे, पूरे यूरोप में सक्रिय भारतीय क्रांतिकारियों की मदद करते रहते थे।
इधर लंदन में 01 जुलाई 1909 को मदनलाल ढींगरा ने कर्जन वायली की हत्या कर दी, जिसके बाद इंडिया हाउस ब्रिटिश सरकार के निशाने पर आ गया और इसे वर्ष 1910 में बंद कर दिया गया।
जेनेवा में रहने के दौरान श्यामजी की सेहत दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही थी इसलिए उन्होंने लोकल प्रशासन और सेंट जॉर्ज सीमेट्री के साथ अपनी और पत्नी भानुमति की अस्थियां सौ वर्ष तक रखने का करार किया और इसके लिए उन्होंने फीस भी चुकाई।
इस करार में ये भी था कि इस दौरान देश आजाद होता है तो उनकी अस्थियां उनके देश वापस भेज दी जाएं, वो वतन की मिट्टी में ही मिलना चाहते थे।
तारीख थी 30 मार्च 1930, वक्त था रात के 11.30 बजे। जेनेवा के एक हॉस्पिटल में भारत मां के इस सच्चे वीर सपूत ने अपनी आखिरी सांस ली और उनकी मौत पर लाहौर की जेल में भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों ने शोक सभा रखी। बालगंगाधर तिलक द्वारा भी अपने अंग्रेजी समाचार पत्र ‘मराठा’ में उन्हें श्रद्धांजलि दी गयी।
श्यामजी कृष्ण वर्मा की अस्थियां जेनेवा की सेण्ट जॉर्ज सीमेट्री में सुरक्षित रख दी गई। बाद में जब उनकी पत्नी का निधन हो गया तो उनकी अस्थियां भी उसी सीमेट्री में रख दी गई।
वर्ष 1947 में देश आज़ाद हो गया था और इस घटना को 17 साल हो गए थे। किसी को भी याद नहीं था कि उनकी अस्थियों को भारत वापस लाना है। देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू को तो इसकी जानकारी भी थी और नेहरू ने तो बाकायदा अपनी आत्मकथा में श्यामजी और उनकी पत्नी का जिक्र भी किया है, लेकिन नेहरू ने ना उनकी मौत के बाद और ना ही 17 साल तक देश का पीएम बने रहने के बाद भी उनकी अस्थियों को लाने की कोई पहल की।
यूं ही पचपन साल (2003) और गुजर गए, पीढियां बदल गई लेकिन कोई नहीं आया।
आजादी के 55 साल बाद इस भारतीय गुजराती क्रांतिकारी की अस्थियों की सुध ली गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने। 22 अगस्त 2003 को गुजरात के सीएम श्री नरेन्द्र मोदी ने ये महान कार्य किया और जेनेवा की धरती से श्यामजी एवं उनकी पत्नी भानुमति की अस्थियों को लेकर भारत आए।
नरेंद्र मोदीजी मुंबई से श्यामजी कृष्ण वर्मा के जन्म स्थान मांडवी तक भव्य जुलूस एवं राजकीय सम्मान के साथ उनका अस्थि कलश लाए थे। इतना ही नहीं, वर्माजी के जन्म स्थान पर भव्य स्मारक “क्रांति-तीर्थ” भी बनवाया और इस तीर्थ से सम्बन्धित वेबसाइट भी लॉन्च की।
उसी क्रांति तीर्थ के परिसर के श्यामजी कृष्णवर्मा कक्ष में श्यामजी की अस्थियों को सुरक्षित रखा गया है। मोदीजी ने क्रांति तीर्थ को भी हूबहू बिलकुल वैसा ही बनाने की कोशिश की, जैसा कि श्यामजी कृष्णवर्मा का लंदन में ‘इंडिया हाउस’ होता था।
इसके अलावा वर्ष 2015 में प्रधानमंत्री रहते हुए मोदीजी ने श्यामजी कृष्णवर्मा जी की इनर टेम्पल से सदस्यता बहाली का प्रमाण पत्र भी प्राप्त कर लिया।
आज़ादी के महानायक, भारत माँ के वीर सपूत एवं महान क्रांतिकारी श्री श्यामजी कृष्णवर्मा को शत् शत् नमन, ये देश सदैव श्यामजी का ऋणी रहेगा।
जय हिंद
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