-बलबीर पुंज
फ्रांस पुन: सुर्खियों में है। इस बार कारण उसका वह प्रस्तावित अलगाववाद विरोधी विधेयक है, जो आगामी दिनों में कानून का रूप लेगा। इस विधेयक का प्रत्यक्ष-परोक्ष उद्देश्य इस्लामी कट्टरता से अपने सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को सुरक्षित रखना है। फ्रांस का मानना है कि जिहादियों ने मजहब के नाम पर जैसी हिंसा की है- उससे फ्रांसीसी एकता, अखंडता और उसके सदियों पुराने जीवनमूल्यों पर गंभीर खतरा हो गया है। फ्रांस के इन निर्णयों से तिलमिलाए कई इस्लामी देशों ने “फ्रांसीसी वस्तुओं के बहिष्कार” संबंधी आंदोलन को तेज कर दिया है।
प्रस्तावित कानून के माध्यम से मस्जिदों को केवल पूजास्थल के रूप में पंजीकृत किया जाएगा। इस समय फ्रांस में 2,600 छोटी-बड़ी मस्जिदें है, इनमें से अधिकांश में मदरसों का संचालन होता है। ऐसा माना जाता है कि बहुत से मदरसे ही फसाद की असल जड़ है, जहां नौनिहालों में बचपन से ही विषाक्त अलगाववादी बीज बो दिए जाते है। इमामों को सरकारी देखरेख में प्रशिक्षण दिया जाएगा। किसी भी न्यायाधीश को आतंकवाद, घृणा या हिंसा के दोषी को मस्जिद जाने से रोकने का भी अधिकार होगा। बहुपत्नी विवाह (लव-जिहाद सहित) को भी काबू किया जाएगा। पेरिस-नीस आतंकवादी घटना के बाद से फ्रांस 75 प्रतिबंध लगा जा चुका हैं, तो 76 मस्जिदों के खिलाफ अलगाववाद भड़काने की जांच कर रहा है।
इस कानून का सीधा प्रभाव फ्रांस की कुल आबादी, 6.5 करोड़, के 8-9 प्रतिशत, अर्थात्- 55-60 लाख मुसलमानों पर पड़ेगा। इस देश में बसे अधिकांश मुसलमान आप्रवासी मूल के है, जिनका संबंध गृहयुद्ध से जूझते या युद्धग्रस्त मध्यपूर्वी इस्लामी देशों से है। इस परंपरा की शुरूआत 1960-70 के दशक में अल्जीरिया आदि अफ्रीकी देशों से हुई थी।
हाल के वर्षों में “असुरक्षा” की भावना से त्रस्त होकर अधिकांश मुस्लिम “सुरक्षित” ठिकाने की तलाश में किसी घोषित इस्लामी राष्ट्रों के बजाय गैर-मुस्लिम/इस्लामी देशों का रूख करते है। म्यांमार, जहां का सत्ता-अधिष्ठान बौद्ध परंपराओं से प्रभावित है- उसे “असुरक्षित” बताकर बड़ी संख्या में रोहिंग्या अवैध रूप से भारत में न केवल प्रवेश कर चुके है, अपितु उन्हें बांग्लादेशी घुसपैठियों की भांति देश के विभिन्न स्थानों पर बसा भी दिया गया है। यह स्थिति तब है- जब “कफिर” भारत के पश्चिम में घोषित इस्लामी राष्ट्र- पाकिस्तान, अफगानिस्तान और मध्यपूर्व है।
विश्वभर (भारत सहित) के स्वघोषित उदारवादी, सेकुलरिस्ट और वामपंथी- लाखों रोहिंग्या मुसलमानों के विस्थापन के लिए म्यांमार सरकार की नीतियों को जिम्मेदार ठहराते है। नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित और म्यांमार की स्टेट काउंसलर आंग सांग सूकी संयुक्त राष्ट्र की शीर्ष अदालत में रोहिंग्याओं के खिलाफ हुए सैन्य अभियान का बचाव कर चुकी हैं। उनके अनुसार, 2017 में सैकड़ों आतंकवादी हमले के बाद म्यांमार सेना कार्रवाई को विवश हुई थी। भारत में रोहिंग्या पैरोकारों को सोचना चाहिए कि म्यांमार जैसा देश, जो भगवान गौतमबुद्ध के शांति संदेश और सिद्धांतों में विश्वास करता है- वह रोहिंग्याओं के खिलाफ सख्त कदम उठाने को आखिर क्यों मजबूर हुआ?
रोहिंग्या मुस्लिमों ने जिन मुस्लिम देशों में शरण ली है- वहां उनकी स्थिति कैसी है? इसका उत्तर बांग्लादेश में मिल जाता है। तीन वर्ष पहले यहां लगभग 10 लाख रोहिंग्या मुसलमान शरण लेने पहुंचे थे, जिन्हे पहले कॉक्स बाजार के शरणार्थी शिविरों में अमानवीय रूप से बसाया गया, फिर इस वर्ष उन्हें जबरन बंगाल की खाड़ी स्थित “भाषन चार द्वीप” पर बनाए गए अस्थायी आवासों में भेज दिया गया। यह निर्जन द्वीप काफी खतरनाक है, क्योंकि इसके कभी भी किसी बड़े समुद्री तूफान या बाढ़ में डूबने की संभावना है।
कई अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट्स के अनुसार, उस निर्जन द्वीप में रोहिंग्या दुर्गंध भरे बसावट में रहने को मजबूर है, जहां उन्हें न ही पर्याप्त भोजन मिल रहा है और ना ही स्वास्थ्य सेवा। कई रोहिंग्या महिलाएं स्थानीय मजदूरों के यौन-उत्पीड़न का शिकार हो चुकी है। अंतरराष्ट्रीय आलोचना के बाद रोहिंग्याओं के स्थानांतरण पर फिलहाल रोक लगा दी है। अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि यदि यह सब भारत में होता, तो मोदी सरकार को “मुस्लिम/इस्लाम विरोधी” बताकर उलटा पेड़ से लटका दिया जाता।
हाल की में खुलासा हुआ था कि हिंदू बहुल जम्मू का जनसांख्यिकी स्वरूप बदलने के उद्देश्य से कई कश्मीरी नेताओं (अलगाववादी सहित) और इस्लामी गैर-सरकारी संगठनों ने रोहिंग्या मुसलमानों को अवैध तरीके से बसा दिया। फरवरी 2018 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा में प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार- प्रदेश में 6,523 रोहिंग्या थे, जिनमें से पांच हजार केवल जम्मू में बसाए गए थे। वास्तव में, यह उसी “काफिर-कुफ्र” चिंतन के गर्भ से जनित षड़यंत्र है, जिससे प्रेरित होकर जिहादियों ने 1980-90 के दशक में कश्मीरी पंडितों की हत्या की, उनकी महिलाओं का बलात्कार किया- जिसके परिणामस्वरूप, पांच लाख हिंदू रातोंरात कश्मीर से पलायन को विवश हुए।
क्या वाकई “इस्लामोफोबिया” है या फिर यह सच पर पर्दा डालने का प्रयास है? क्या यह सत्य नहीं कि इस्लाम का अनुयायी जब भी किसी नए देश में अतिथि या फिर शरणार्थी बनकर जाता है, तब कालांतर में उन्हीं मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग संबंधित देश की मूल संस्कृति, परंपरा और जीवनमूल्यों को नष्ट कर वहां शरीयत लागू करने का प्रयास करता है? हाल ही में पेरिस में दो जिहादियों द्वारा चार निरपराध लोगों की निर्मम हत्या- इसका प्रमाण है। क्या ऐसे दर्शन से किसी भी देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता को खतरा नहीं?
इसी प्रकार की आशंका को फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों भी व्यक्त कर चुके हैं। उनके अनुसार- “इस्लामी कट्टरपंथी चाहते हैं कि एक समानांतर व्यवस्था बनाई जाए, अन्य मूल्यों का निर्माण करके समाज में एक और संगठन विकसित किया जाए- जो प्रारंभ में अलगाववादी लगे, जिसका अंतिम लक्ष्य पूर्ण नियंत्रण हो।”
वस्तुत: इस पीड़ा को भारतीय उपमहाद्वीप के लोग सहज समझेंगे। विश्व के इस भूखंड में बसे 99 प्रतिशत लोग या तो हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख है या फिर उनके पूर्वज इन पंथों के अनुयायी थे। यहां मुस्लिमों के अधिकांश पूर्वजों ने आठवीं शताब्दी के बाद भय या लालच में आकर इस्लाम अपनाया था। एक विदेशी मजहबी चिंतन को अंगीकार करते ही वे पहले अपनी मूल बहुलतावादी सनातन संस्कृति से कट गए। फिर कालांतर में अपने भीतर अपनी मूल पहचान के प्रति निंदा, घृणा और शत्रुता को इतना भर लिया कि 1947 में भारत का रक्तरंजित विभाजन के बाद पाकिस्तान का जन्म हो गया। आज वही 73 वर्ष पुराना इस्लामी देश- “खंडित” भारत, जो यहां की मूल बहुलतावादी सनातन संस्कृति का वाहक है- उसे “हजार घाव देकर” मौत के घाट उतारना चाहता है।
यह बात सही है कि इस्लाम के अधिकांश अनुयायी एक साधारण मानव के तरह ही शांति के साथ रहना चाहते है, जिनकी अपनी स्वाभाविक अपेक्षाएं और इच्छाएं है। परंतु यह भी एक सच है कि बहुत बड़ी संख्या में स्वयं को “इस्लाम का सच्चा अनुयायी” बताने वाले विश्व को “काफिर-कुफ्र” मुक्त देखना चाहते है- उसके लिए चाहे हिंसा और आतंकवाद का सहारा ही क्यों न लेना पड़े। वह केवल “इस्लाम के अनुकूल” दुनिया की कल्पना करते है।
ऐसी जिहादी मानसिकता से आखिर विश्व कैसे निपटे? इस मजहबी संकट का हल तभी संभव है, जब इस्लामी दुनिया मध्यकालीन मानसिकता से बाहर निकले और अपनी पहचान के साथ-साथ गैर-मुस्लिमों की भी पहचान, सभ्यता, संस्कृति और परंपरा को भी बराबर सम्मान दें। क्या वर्तमान परिदृश्य में ऐसा संभव है?
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।
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