सर्वसाधारण ही नहीं, अपितु पढ़ा-लिखा वर्ग भी बहुधा मत, संप्रदाय, मज़हब, रिलीज़न आदि को ‘धर्म’ का पर्याय मानने की भूल कर बैठता है। वस्तुतः ‘धर्म’ और ‘मज़हब-रिलीज़न’ में ज़मीन-आसमान का अंतर है। एक में विस्तार है तो दूसरे में सीमाबद्धता, एक व्यष्टि से लेकर समष्टि व परमेष्ठी तक फैला हुआ है तो दूसरा अपने समुदाय विशेष तक सीमित-संकुचित। मज़हब या रिलीज़न एक ग्रंथ, एक पंथ, एक प्रतीक, एक पैग़ंबर को मानने के लिए बाध्य करता है। वह इनके अलावा अन्य किसी मत या सत्य को स्वीकार नहीं करता। जो-जो उससे असहमत या भिन्न मत रखते हैं, उनके प्रति उसमें निषेध-अस्वीकार से आगे कई बार घृणा या वैमनस्यता पाई जाती है। भिन्न प्रतीकों-चिह्नों या पार्थक्य-बोध को ही वे अपनी अंतिम व एकमात्र पहचान बना लेते हैं। जबकि धर्म पार्थक्य में एकत्व तलाशने, चेतना-संवेदना को विस्तार देने तथा आंतरिक उन्नयन का लक्ष्य लेकर चलता है। वह समरूपता का पोषक नहीं, विविधता, वैशिष्ट्य एवं चैतन्यता का संरक्षक है। वह किसी विशेष मत या सत्ता को येन-केन-प्रकारेण प्रतिष्ठापित करने का बाह्य-आक्रामक अभियान नहीं, अपितु सत्य का अनुसंधान है। वह करणीय-अकरणीय, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के सम्यक बोध या उत्तरदायित्व का दूसरा नाम है। मसलन राजा का धर्म, प्रजा का धर्म, पिता का धर्म, संतान का धर्म, गुरु का धर्म आदि। धर्म मूल प्रकृति या गुण के रूप में भी प्रयुक्त होता रहा है। जैसे अग्नि का धर्म उष्णता, जल का धर्म शीतलता, मनुष्य का धर्म परोपकारिता-परदुःखकातरता आदि। सनातन संस्कृति में धर्म एक व्यापक अवधारणा है, जो मानव मात्र के लिए है, किसी समूह या जाति विशेष के लिए नहीं। इसीलिए हर यज्ञ-अनुष्ठान के बाद सनातन संस्कृति में – धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो- जैसी मंगलकामनाएँ व्यक्त की जाती हैं। वहाँ किसी विशेष मत-पंथ-संप्रदाय-समुदाय की जय-जयकार नहीं की जाती। गीता में भगवान कृष्ण भी यही कहते हैं कि ”जब-जब धर्म का नाश होता है, अधर्म बढ़ता है, मैं अवतरित होता हूँ।” ध्यान रहे कि उन्होंने यह नहीं कहा कि जब-जब किसी मत या पंथ का नाश होता है। कुल मिलाकर धर्म धारण किया जाता है और मज़हब एवं रिलीज़न क़बूल या एक्सेप्ट किया जाता है।
धर्म में समावेश, समन्वय, सह-अस्तित्ववादिता पर ज़ोर रहता है। वह सार्वजनिक समरसता के सिद्धांत पर अवलंबित होता है। धर्म व्यक्ति, समाज, प्रकृति, परमात्मा व अखिल ब्रह्मांड के मध्य सेतु-समन्वय स्थापित करता है। वह सबके कल्याण एवं सत्य के सभी रूपों-मतों को स्वीकारने की बात करता है। धर्म कहता है- ”एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति”, ”सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।” मनु ने धर्म की व्यख्या करते हुए जो दस लक्षण बताए- ”धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्”- उसमें किसी के प्रति अस्वीकार या असहिष्णुता तो दूर, कहीं रंच मात्र संकीर्णता-संकुचितता-अनुदारता के संकेत तक नहीं। जबकि सभी अब्राहमिक मतों में उनके पैग़ंबरों की वाणी को ही अंतिम, अलौकिक और एकमात्र सत्य माना गया है, शेष को लौकिक व मिथ्या। इस श्रेष्ठता-ग्रंथि, भेद-बुद्धि और आरोप-आक्रमण-विस्तार की नीति के कारण ही वह हरेक से संघर्षरत है। न केवल औरों के साथ बल्कि उनके अपने मत के भीतर भी अधिक शुद्ध, अधिक सच्चा व अधिक धार्मिक को लेकर लगातार एक संघर्ष देखने को मिलता है। इस्लाम की दारुल हरब, दारुल इस्लाम, जेहाद-जन्नत-दोज़ख-माले गनीमत जैसी संकीर्ण एवं विभाजनकारी धारणाओं तो ईसाइयत की यीशु के शरण में आने पर ही दुनिया के कल्याण की एकांगी-मनमानी मान्यताओं-व्याख्याओं ने स्थिति-परिस्थिति को और विकट, भयावह एवं संघर्षपूर्ण बना दिया है।
ऐसी ज़िद-जुनून, सोच-सनक का ही परिणाम मतांतरण है। उत्तरप्रदेश में हाल ही में उज़ागर हुआ मुफ़्ती जहांगीर कासमी, मोहम्मद उमर गौतम और उसकी संस्था इस्लामिक दावाह सेंटर द्वारा कराया जा रहा मतांतरण- मात्र एक मामूली-अकेली घटना न होकर सदियों से पोषित-संरक्षित-सुनियोजित-विश्वव्यापी समस्या, षड्यंत्र और सिलसिला का हिस्सा है। मतांतरण का यह धंधा वर्षों या दशकों नहीं, अपितु सदियों से चलाया जा रहा है। सनातन धर्म और दर्शन अपने उदार, सहिष्णु, सर्वसमावेशी सोच के कारण उनके निशाने पर हमेशा से रहता आया है। आज भारत का कोई ऐसा प्रांत, कोई ऐसा जिला नहीं जहाँ ईसाई और इस्लामिक संस्थाएँ मतांतरण के इस धंधे और रैकेट को संचालित नहीं कर रहीं। निर्धन-वंचित समाज एवं भोले-भाले जनजातियों को वे अपना आसान शिकार बनाते हैं। ताक़त-तलवार, पैसा-प्रलोभन से बात नहीं बनती तो वे इसे छल-बल से अंजाम देते हैं। उनकी कट्टर-मज़हबी सोच का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मूक-बधिर-बीमार-बेसहारा-दिव्यांग जनों को भी वे नहीं छोड़ते। कोई सेवा-चिकित्सा के नाम पर यह धंधा चला रहा है तो कोई दीन-ईमान, जन्नत-दोज़ख और जन्नत के बाद नसीब होने वाली तमाम काल्पनिक ऐशो-आराम और सुखों के नाम पर। किसी इलाके की तेज़ी से बदलती हुई जनसांख्यकीय स्थिति और घुसपैठ भी अब इसमें सहायक भूमिका निभाने लगी है। इसलिए घुसपैठ एवं घुसपैठ के बाद फ़र्जी कागज़ात एवं पहचान-पत्र आदि बनवाने का खेल भी बड़े पैमाने पर ज़ारी है।
सनद रहे कि मतांतरण केवल आस्था-विश्वास-उपासना पद्धत्ति का ही रूपांतरण नहीं, वह राष्ट्रांतरण भी है। मतांतरित होते ही व्यक्ति की राष्ट्र, समाज और संस्कृति के प्रति धारणा और भावना बदल जाती है। वह अपने पुरखों, परंपरा और विरासत से कट जाता है। न केवल कट जाता, बल्कि उनके प्रति हीनता या घृणा की गाँठें पाल लेता है। विरासत बदलने के कारण उसकी कल्पना का मुक़म्मल और आदर्श समाज, भविष्य के सपने और आकांक्षाएँ भी बदल जाती हैं। भूमि, नदी, पर्वत, सागर व तीर्थ से लेकर प्रकृति-परिवेश के प्रति उसकी सोच और श्रद्धा के केंद्र बदल जाते हैं। जीवन के आदर्श, मूल्य, मान-बिंदु, गौरवबोध तथा अतीत व वर्तमान के जय-पराजय, मान-अपमान, शत्रु-मित्र के प्रति उसका संपूर्ण बोध और विचार बदल जाता है। फिर देश पर आक्रमण करने वाले आक्रांता उन्हें मुक्तिदाता नज़र आने लगते हैं। देश को गुलाम बनाने वाली सत्ताएँ उन्हें परकीय नहीं आत्मीय लगने लगती हैं। देश का पराजय तब उनके लिए पीड़ा-टीस-कलंक के नहीं, गौरव के विषयवस्तु बन जाते हैं। क्या यह सत्य नहीं कि अखंड भारत से विलग होकर अफगानिस्तान, पाकिस्तान के बनने तथा देश के भिन्न-भिन्न प्रांतों-हिस्सों में पलते-पनपते आतंकी-अलगाववादी गतिविधियों के मूल में यह मतांतरण ही है? यह अकारण नहीं कि स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद सरस्वती, महात्मा गाँधी, बाबा साहब भीमराव आंबेडकर जैसे महापुरुषों ने मतांतरण का पुरज़ोर विरोध किया था। सनातन घटा, देश बंटा- यह केवल धारणा या कल्पना नहीं, यथार्थ है।
प्रणय कुमार
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