हिंसा और अराजकता के लिए किसी भी सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं होता। कोई भी पंथ या मज़हब आपसी भाईचारे, प्रेम और विश्वास पर टिका होता है। उसकी उत्पत्ति, उद्भव, विकास के मूल में भी सात्विक भावना-प्रेरणा ही काम करती है। पर आज बहुत-से पंथ-मज़हब के अनुयायी अपने प्रवर्त्तकों द्वारा बताए संदेशों और जीवन-मूल्यों का अनुसरण नहीं करते। पांथिक एवं मज़हबी कट्टरता में वे इतने अंधे हो गए हैं कि मानवता का लहू बहाने में भी संकोच नहीं करते। दुनिया पहले ही इस्लामिक आतंक एवं मज़हबी कट्टरता से जूझ रही थी। अब भारत में सिख समाज को भी भड़काने की कुचेष्टा की जा रही है। नांदेड़ से जो तस्वीरें पूरी दुनिया में वायरल हुईं, वे दिल दहलाने, चिंतित करने वाली हैं। गुरुद्वारे-मंदिर- मस्जिद पवित्र जगह हैं, वहाँ लोग सुकून और शांति के लिए जाते हैं, पूजा-प्रार्थना, आत्मिक-आध्यात्मिक उन्नति के लिए जाते हैं। न कि हिंसा-हल्ला-हंगामा करने के लिए। चाहे वे जुमे की नमाज़ हो या होला-मुहल्ला कार्यक्रम- ऐसी पवित्र जगहों से जब हिंसक तस्वीरें सामने आती हैं तो विश्वास दरकता है, सामाज में सौहार्द्र और सद्भाव घटता है तथा घृणा और वैमनस्यता बढ़ती है। चाहे वे किसी पंथ-मज़हब के अनुयायी हों, क़ानून-व्यवस्था से खिलवाड़ करने का अधिकार किसी को नहीं दिया जा सकता। लाल किले की हिंसा एवं अराजकता के बाद अब नांदेड़ में भी पुलिस-प्रशासन को हिंसा का शिकार बनाना संदेह पैदा करता है। इसे स्वाभाविक या त्वरित प्रतिक्रिया कहकर हल्के में लेना हमलावरों के मनोबल को बढ़ाना होगा।और उससे भी दुःखद एवं दुर्भाग्यपूर्ण है इसका-उसका आधार लेकर ऐसी हिंसा या अराजकता की पैरवी करना।
भारत की मिट्टी-हवा-पानी में उत्सव का रंग घुला-मिला है। उत्सवधर्मिता हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है। पर हमारी उत्सवधर्मिता हमें औरों के साथ घुलने-मिलने, सबको साथ लेने, सबके साथ चलने की प्रेरणा देती है। उत्सव शब्द में ही सामूहिकता की भावना समाहित है। यथार्थ के थपेड़े और बढ़ती आयु के साथ जीवन पर हावी होती जाती जड़ता-उदासीनता को दूर कर आनंद एवं उल्लास का संचार करने के लिए ही कदाचित हमारे ऋषियों-मनीषियों-धर्मगुरुओं ने त्योहार-उत्सव की रचना की होगी। औरों से कंटे-छँटे, परिवेश से पृथक, एकाकी-उदास लोगों को भी ये त्योहार-उत्सव जीवन की गौरव-गरिमा का बोध कराते हैं। उन्हें उन थपेड़ों से उबार आनंद से सराबोर कर जाते हैं।
पर यह कैसी उत्सवधर्मिता है, जिसमें अपने पंथ-मज़हब के लिए तो प्यार हो, पर औरों के लिए बैर एवं घृणा? हमारे गाँव-घर-मुहल्ले या अड़ोस-पड़ोस में कोई असमय काल-कवलित हो जाय तो उस वर्ष स्वेच्छा से ही वहाँ रहने वाले लोग अपने तीज-त्योहार नहीं मनाते। हमारी सहज संवेदना के पात्र तो मूक पशु-पक्षी तक होते हैं, फिर अपने ही जैसे हाड़-मांस से बने इंसानों के प्रति कोई इतना हिंसक और क्रूर कैसे हो सकता है? कोई उन पर तलवारों-भालों-डंडों से कैसे हमला कर सकता है? हमारे धर्मग्रंथ, हमारे शास्त्र, हमारे महापुरुष सब मिल-जुलकर प्रेम से रहना सिखाते हैं। वे संयम-विवेक, नियम-अनुशासन का पाठ पढ़ाते हैं। हमारी परंपराएँ हमें त्याग और बलिदान की सीख देती हैं। क्या बहुसंख्यक हिंदू समाज ने गणोशोत्सव, विजयादशमी, दीपावली, होली पर अभूतपूर्व त्याग एवं संयम का परिचय नहीं दिया? जिन सिख नौजवानों ने ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मियों पर तलवार-भाले-डंडे से नांदेड़ के हुजूर साहब गुरुद्वारे के बाहर हमला किया, उन्होंने न केवल निर्दोष-निहत्थे पुलिसकर्मियों को चोट पहुँचाई है, बल्कि उन्होंने अपनी बलिदानी गुरु-परंपरा का भी अपमान किया है। उन्होंने श्रद्धा-सेवा-समर्पण के पुण्य-प्रतीक गुरुद्वारे और उसकी सबद-भजन-कीर्त्तन-लंगर वाली महान सेवाभावी-श्रद्धामयी परंपरा को भी ठेस पहुँचाई है। बल्कि उन्होंने श्रद्धालु शब्द को कलंकित किया है। कोई भी परंपरा जीवन से बढ़कर नहीं हो सकती।
धर्म, परंपरा और संस्कृति हमें कर्त्तव्य का बोध कराते हैं। समृद्ध-गौरवशाली-मानवीय विरासत से जोड़ते हैं। कोरोना-काल में सभी पंथों-मज़हबों के मतानुयायियों का यह कर्त्तव्य बनता है कि वे पांथिक-मज़हबी रीति-रिवाज़ों से अधिक महत्त्व अपने सामाजिक एवं नागरिक जिम्मेदारी को दें। जीवन बचाने से बढ़कर क्या कोई और पवित्र एवं धार्मिक कार्य हो सकता है? और फिर भारत और भारत में पले-पढ़े धर्मों-पंथों की तो नींव ही सत्य, प्रेम, करुणा , त्याग व परोपकार पर अवलंबित है। वे पुलिसकर्मी उन्हें केवल गुरुद्वारे के बाहर होला-मोहल्ला का आयोजन करने और इस अवसर पर होने वाले करतब-प्रदर्शन से ही तो रोक रहे थे। यह नांदेड़ में कोरोना के बढ़ते आँकड़ों को देखकर उठाया गया उचित एवं आवश्यक क़दम था। धर्म के अलावा लोक एवं शास्त्रों में आपद-धर्म का भी उल्लेख आता है। जान-माल की रक्षा, महामारी की रोक-थाम ही आपद-धर्म है। कहते हैं कि विपत्ति-काल में हिंस्र जीव-जंतु भी हिंसा छोड़ अहिंसा का पथ गहने लगते हैं। बाढ़-सूखा-आँधी-तूफ़ान एवं अकाल आदि में ऐसे तमाम दृष्टांत प्रायः देखने को मिल जाते हैं। आज कोविड-महामारी भी काल बन जनसाधारण को अपना ग्रास बना रहा है। बात बहुतों के अस्तित्व-रक्षा पर बन आई है। यदि हम इस कालखंड में भी विवेकी-संवेदनशील जत्थों-समुदायों के रूप में अपना योगदान नहीं दे सके तो कदाचित आने वाली पीढ़ी हमारे नाम पर धिक्कारेगी। इतिहास के पृष्ठों में हमारी गणना सबसे लापरवाह पीढ़ी-समूह-कौम के रूप में होगी।
उल्लेखनीय है कि सिक्खों के पवित्रस्थान आनंदपुर साहिब में होली के अगले दिन से लगने वाले मेले को होला मुहल्ला कहते हैं, जिसकी शुरुआत पौरुष के प्रतीक-पर्व के रूप में स्वयं गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज ने की थी। वे इसके माध्यम से समाज के दुर्बल एवं शोषित जनों को साथ लाना चाहते थे। समाज में वीरता एवं पौरुष का संचार करना चाहते थे। इस अवसर पर घोड़ों पर सवार निहंग आनंद एवं उल्लास का प्रदर्शन करते हैं। पंज पियारे जुलूस का नेतृत्व करते हुए रंगों की बरसात करते हैं।नांदेड़ के हुजूर साहब गुरुद्वारे में भी हर वर्ष इस अवसर पर भव्य आयोजन किया जाता रहा है। पर कोरोना महामारी के बढ़ते प्रकोप के कारण इस वर्ष पुलिस-प्रशासन ने इसकी अनुमति नहीं दी थी, जिसका परिणाम हिंसा एवं रक्तपात के रूप में समाने आया। पर परंपरा एवं रीति-रिवाज़ों के नाम पर हल्ला-हंगामा, उपद्रव-उत्पात मचाने वालों को आज नहीं तो कल यह निश्चित सोचना पड़ेगा कि कोई भी पंथ या संप्रदाय देश-काल-परिस्थिति से निरपेक्ष रहकर नहीं चल सकता, समग्र मानवीय हितों से परे किसी धर्म की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं। देशकाल एवं मनुष्यता की कसौटी पर खरे उतरना धर्म की भी कसौटी है। उदारता-उदात्तता-सहिष्णुता को त्यागकर हिंसा, आतंक एवं कट्टरता का वरण करने वाले क़दमताल करते रह जाएँगें, सभ्य समाज और समय उन्हें पीछे छोड़कर आगे निकल जाएगा।
प्रणय कुमार
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