कभी एक कहानी सुनी थी कि एक सुनार और एक लुहार की दूकान अगल बगल अवस्थित थी। एक बार सुनार की हथौड़ी की मार खाकर सोने का एक कण और दूसरी ओर लुहार का हथौड़ा खाकर छिटका हुआ एक लोहे का कण उड़ कर एक दूसरे से मिले तो सोने का कण बोला कि हमारी तुम्हारी हालत एक सी है। हमें भी हथौड़े कॊ चोट खानी पड़ती है और तुन्हे भी। हम दोनो सच में बड़े बदकिस्मत हैं। इस पर लोहे का कण बोला कि नहीं । एक फ़र्क है। मेरा दर्द तुम से ज्यादा है क्योंकि तुम्हें ठोकने वाला लोहे का हथौड़ा पराया है पर हमें ठोकने वाला हथौड़ा तो हमारा भाई है खुद लोहा है। अपनों से मिली चोट बड़ी ज़हरीली होती है।
ये कहानी याद आई जब ये खबर सुनी कि भारत सरकार के अल्पसंख्यक मन्त्रालय ने ये सिफ़ारिश की है कि अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में सिपाही , डाक्टर , टीचर आदि उसी समुदाय से हों। लगा जैसे सत्ता के तीर मर्मस्थल तक लहूलुहान कर गये। कुछ वैसी हीं अनुभूति हुई जैसी लोहे के टुकड़े को लोहे के हथौड़े से ठुक कर हुई होगी।
अगर काँग्रेस या वामपन्थी सत्ता ने या किसी अल्पसंख्यक संगठन के सदर ने ये सिफ़ारिश की होती तो हम कसमसाते ज़रूर पर नेहरू के सत्तर वर्षीय तुष्टिकरण की नीति का सियापा कर के रह जाते और एक सबल दक्षिण पन्थी सत्ता की आने की उम्मीदों के सपनों में खो जाते पर ये तो कुछ ऐसा हुआ कि
” ये ख्वाब देखती हूँ मैं
कि जग गई हूँ ख्वाब से॥
फिर याद आई जनाब अकबर इलाहाबादी का वह शेर कि –
” हमने जब शिकवा किया बढ़ती हुई मँहगाई का
डाँट कर बोले अबे चुप अपनी हीं सरकार है॥”
कि अब किससे शिकायत हो … किसको कोसूँ?
सावन जब अगन लगाये उसे कौन बुझाये॥
दर असल आरक्षण हो या सिफ़ारिशी नियुक्तियाँ, हर ऐसा कदम समानता और स्वतन्त्रता के दो मौलिक अधिकारों का खात्मा कर देता है। धारा ३७० के शिथिली करण के बाद आम भारतीय को यही खुशी तो मिली कि अब जम्मू कश्मीर भारत के किसी आम राज्य जैसा हो गया । कुपवारा के बाशिन्दे को भी वही हक़ मिलेगा जो कानपुर के नागरिक को मिला हुआ था। अब गुरुग्राम के इफ़को चौक और श्रीनगर के लाल चौक में कोई फ़र्क नहीं रहा । लोग दोनों जगह बेखौफ़ जा सकते हैं॥
वैसे “अल्पसंख्यक बहुल इलाका ” यह सामासिक पद कपिलशर्मा के शो के किसी भी जोक से ज्यादा मजाकिया है कारण जब कोई इलाका अल्पसंख्यक बहुल हो गया तब वह समुदाय अल्पसंख्यक रहा क्या? क्या ये गलती से मिस्टेक नहीं हो गई या किसी का दुर्भाग्य हीं खराब हो गया हो जैसे।
अरे , मैं भी क्या बेफ़ालतू की बात लेकर बैठ गया ।
खाकसार का निजी तज़ुर्बा यही कहता है कि अल्पसंख्यक इलाकों में लगभग अघोषित ३७० लगा हीं रहता है। स्कूल बसों को भी बच्चों को लाने ले जाने के क्रम में विद्यालय प्रशासन द्वारा इस इलाके में जाने से पहले कुछ खास निर्देश दे दिये जाते हैं कि परिस्थिति कितनी भी विपरीत क्यों ना हो किसी से उलझना नहीं है बरना कुछ भी ऊँच नीच हो सकती है।
अब एक स्थिति पर विचार करें कि अगर इन इलाकों में पुलिस, टीचर, डाक्टर भी इसी समुदाय का होगा तो अन्य समुदाय के लोग उस गली जाने में कितना डरेंगे। क्या आप उस समय की शीर्ष सत्ता की इस प्रशासनिक सजगता को नहीं सराहेंगे कि धारा ३७० के उपरान्त भी जम्मू कश्मीर का राज्यपाल कभी भी अल्पसंख्यक नहीं रहा और ये कवायद आज भी जारी है तमाम अल्पसंख्यक तुष्टिकारी योजनाओं के कार्यान्वयन के उपरान्त भी।

ये कदम अगर लागू हुए तो मान लीजिये कि भारत के हर शहर में , गाँव में एक नयी धारा ३७० का आग़ाज़ हो गया।
एक बड़े प्रान्त के नव निर्वाचित मुख्यमन्त्री ने जब कहा था कि ” विकास सबका होगा पर तुष्टिकरण किसी का नहीं” तो लगा था कि भारतीय राजनीति ने नयी करवट ली है पर इस खबर ने तो सिर मुड़ाते ओले पड़ने जैसी बात कर दी है।
लगभग ७ दशक तक विपक्ष की बेंचों पर बैठ कर मनस्वी राजनेताओं ने जिस भारत प्रथम देश प्रथम जैसे एक बौद्धिक आधार पर राजनैतिक दल बनाकर आजकल की पीढ़ी को सत्ता सौंपी , उस महान परम्परा के उत्तराधिकारी राजनैतिक फ़ार्मूलों के डियोडेरेण्ट के आगे अपने कमल वन की खुशबू भुला बैठे हैं।
पर जाने दीजिये… मूर्खता किसी की बपौती नहीं। कोई भी कभी भी मूर्खता का प्रदर्शन कर सकता है चाहे सत्ता हो या विपक्ष। आखिर अभिव्यक्ति की आज़ादी भी कोई चीज़ है।

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