झूठ पढ़ाया जाता हैं इतिहास की सरकारी किताबों में

मीनार पर अंकित कुरान की आयतें एक जबर्दस्ती और निर्जीव डाली हुई लिखावट है जो कि पूरी तरह से हिंदू डिजाइन के सुंदर चित्रवल्लरी वाली धारियों पर ऊपर से लिखी गई हैं। कुरान की आयतों के लिहाज से इसे मुस्लिम मूल की ठहराना ठीक इसी तरह होगा जैसा कि किसी गैर-मुस्लिम का खतना कर उसे मुसलमान बना दिया जाए।

कुतुब मीनार या लौह स्तम्भ एक ऐसा स्तम्भ है जिसे निजी और धार्मिक कार्यक्रम के तहत रूपांतरित किया गया, इसे अपवित्र किया गया और हेरफेर कर इसे दूसरा नाम दे दिया गया। इतिहास में ऐसे प्रमाण और लिखित दस्तावेज हैं जिनके आधार पर यह साबित किया जा सकता है कि कुतुब मीनार एक हिंदू इमारत, विष्णु स्तम्भ है।इसके बारे में एमएस भटनागर ने दो लेख लिखे हैं जिनमें इसकी उत्पत्ति, नामकरण और इसके इतिहास की समग्र जानकारी है। इनमें उस प्रचलित जानकारियों को भी आधारहीन सिद्ध किया गया है जो कि इसके बारे में इतिहास में दर्ज हैं या आमतौर पर बताई जाती हैं। 

कुतुब मीनार को लेकर ही इस बात के बहुत अधिक प्रमाण हैं कि यह एक हिंदू टॉवर था जो कि कुतुबुद्दीन से भी सैकड़ों वर्षों पहले मौजूद था। इसलिए इसका नाम कुतुबुद्दीन से जोड़ना गलत होगा। कुतुब मीनार के पास जो बस्ती है उसे महरौली कहा जाता है। यह एक संस्कृ‍त शब्द है जिसे मिहिर-अवेली कहा जाता है। इस कस्बे के बारे में कहा जा सकता है कि यहां पर विख्यात खगोलज्ञ मिहिर (जो कि विक्रमादित्य के दरबार में थे) रहा करते थे। उनके साथ उनके सहायक, गणितज्ञ और तकनीकविद भी रहते थे। वे लोग इस कथित कुतुब टॉवर का खगोलीय गणना, अध्ययन के लिए प्रयोग करते थे।

क्या आप जानते हैं कि  आजकल दिल्ली में हम जिसे  कुतुबमीनार कहते हैं और  उसे लूले कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा बनवाया गया समझते हैं  दरअसल वह  महाराजा विक्रमादित्य के राज्यकाल में राजा विक्रमादित्य द्वारा बनवाया गया “हिन्दू नक्षत्र निरीक्षण केंद्र”  है  जिसका असली नाम ”ध्रुव स्तम्भ” है परन्तु   प्राचीन इतिहासकारों द्वारा मूर्खतावश  और, आधुनिक काल में “मुस्लिम तुष्टिकरण हेतु”  कुतुबमीनार को  उस लूले कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा बनवाया गया . कहा जाता है.  प्राचीन इतिहासकारों द्वारा . बिना तथ्यों की जानकारी जुटाए ही   कतिपय नामों की समानता के कारण  ऐसा मान लिया गया कि  कुतुबमीनार  कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा बनवाया गया है | 

क्या आपको पता है कि अरबी में ‘कुतुब’ को एक ‘धुरी’, ‘अक्ष’, ‘केन्द्र बिंदु’ या ‘स्तम्भ या खम्भा’ कहा जाता है। कुतुब को आकाशीय, खगोलीय और दिव्य गतिविधियों के लिए प्रयोग किया जाता है। यह एक खगोलीय शब्द है या फिर इसे एक आध्यात्मिक प्रतीक के तौर पर समझा जाता है। इस प्रकार कुतुब मीनार का अर्थ खगोलीय स्तम्भ या टॉवर होता है।

प्रो. एमएस भटनागर, गाजियाबाद ने इस अद्वितीयी और अपूर्व इमारत के बारे में सच्चाई जाहिर की है और इससे जुड़ीं सभी भ्रामक जानकारियों, विरोधाभाषी स्पष्टीकरणों और दिल्ली के मुगल राजाओं और कुछ पुरातत्ववेताओं की गलत जानकारी को उजागर किया। वर्ष 1961 में कॉलेज के कुछ छात्रों का दल कुतुब मीनार देखने गया।

उन्होंने इतिहास में एक परास्नातक और सरकारी गाइड (मार्गदर्शक) से सवाल किए जिसके उत्तर कुछ इस तरह से दिए गए। जब गाइड से इस ‘मीनार’ को बनवाने का उद्देश्य पूछा गया तो उत्तर मिला कि यह एक विजय स्तम्भ है। किसने किस पर जीत हासिल की थी? मोहम्मद गोरी ने राय पिथौरा (पृथ्वीराज) पर जीत हासिल की थी। कहां जीत हासिल की थी? पानीपत के पास तराइन में।

तब इस विजय स्तम्भ को दिल्ली में क्यों बनाया गया? गाइड का उत्तर था- पता नहीं। इस अवसर पर दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के एक लेक्चरर (जो कि भ्रमण के लिए आए थे) ने जवाब दिया। विजय स्तम्भ को गोरी ने शुरू करवाया था क्योंकि दिल्ली उसकी राजधानी थी। लेकिन गोरी ने दिल्ली में कभी अपनी राजधानी नहीं बनाई क्योंकि उसकी राजधानी तो गजनी में थी। फिर दिल्ली में विजय स्तम्भ बनाने की क्या तुक थी? कोई जवाब नहीं।

विदित हो कि गोरी की मौत के बाद कुतुबुद्दीन को लाहौर में सुल्तान बनाया गया था। उसने लाहौर से शासन किया, दिल्ली से नहीं और अंतत: उसकी मौत भी लाहौर में हुई। जब उसकी राजधानी लाहौर थी तो उसने दिल्ली में विजय स्तम्भ क्यों बनाया? भीड़ में से किसी ने ज्ञान दर्शाया कि मीनार एक विजय स्तम्भ नहीं है, वरन एक ‘मजीना’ है।

इस शब्द को उन्नीसवीं सदी में सर सैय्यद अहमद खान ने गढ़ा था। इस बात को लेकर आश्चर्यचकित ना हों कि भारतीय इतिहास में ‘कुतुब मीनार’ जैसा कोई शब्द नहीं है। यह हाल के समय का एक काल्पनिक तर्क है कि यह मीनार मुअज्जिन का टॉवर है। अगर ऐसा है तो मस्जिद का प्राथमिक महत्व है और टॉवर का द्वितीयक महत्व है। दुर्भाग्य की बात है कि इसके पास एक ‍मस्जिद खंडहरों में बदल चुकी है। लेकिन तब इसका मुअज्जिन का टॉवर क्यों शान से खड़ा है? इस सवाल का कोई जवाब नहीं। हकीकत तो यह है कि मस्जिद और मजीना एक पूरी तरह बकवास कहानी है। तथाकथित कुतुब मीनार और खंडहर हो चुकी जामा मस्जिद के पास मीनार को बनाने वाले एक नहीं हो सकते हैं।

कुतुब मीनार को पहले विष्णु स्तंभ कहा जाता था।
इससे पहले इसे सूर्य स्तंभ कहा जाता था।
इसके केंद्र में ध्रुव स्तंभ था जिसे आज कुतुब मीनार कहा जाता है।
इसके आसपास 27 नक्षत्र के आधार पर 27 मंडल थे। इसे वराहमिहिर की देखरेख में बनाया गया था ।

इस टॉवर के चारों ओर हिंदू राशि चक्र को समर्पित 27 नक्षत्रों या तारामंडलों के लिए मंडप या गुंबजदार इमारतें थीं। कुतुबुद्‍दीन के एक विवरण छोड़ा है जिसमें उसने लिखा कि उसने इन सभी मंडपों या गुंबजदार इमारतों को नष्ट कर दिया था, लेकिन उसने यह नहीं लिखा कि उसने कोई मीनार बनवाई। जिस मंदिर को उसने नष्ट भ्रष्ट कर दिया था, उसे ही कुव्वत-अल-इस्लाम मस्जिद का नाम दिया। तथाकथित कुतुब मीनार से निकाले गए पत्थरों के एक ओर हिंदू मूर्तियां थीं जबकि इसके दूसरी ओर अरबी में अक्षर लिखे हुए हैं। इन पत्थरों को अब म्यूजियम में रख दिया गया है। 

चंद्रगुप्त द्वितिय के आदेश से यह बना था।
ज्योतिष स्तंभों के अलावा भारत में कीर्ति स्तम्भ बनाने की परंपरा भी रही है।
खासकर जैन धर्म में इस तरह के स्तंभ बनाए जाते रहे हैं। आज भी देश में ऐसे कई स्तंभ है, लेकिन तथाकथित कुतुब मीनार से बड़े नहीं।
राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में ऐसा ही एक स्तंभ स्थित है।
ऐसा भी कहते हैं कि समुद्रगुप्त ने दिल्ली में एक वेधशाला बनवाई थी, यह उसका सूर्य स्तंभ है।

अगर आप टॉवर के शीर्ष पर एक एयरोप्लेन से देखें तो आपको विभिन्न गैलरियां ऊपर से नीचे तक एक दूसरे में फिसलती नजर आती हैं और ये एक 24 पंखुड़ी वाले किसी पूरी तरह से खिले कमल की तरह दिखाई देती हैं।  विदित हो कि 24 का अंक वैदिक परम्परा में पवित्र माना जाता है क्योंकि यह 8 का गुणनफल होता है। टॉवर की इंटों का लाल रंग भी हिंदुओं में पवित्र समझा जाता है। इस टॉवर का नाम विष्णु ध्वज या विष्णु स्तम्भ या ध्रुव स्तम्भ के तौर पर जाना जाता था जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह खगोलीय प्रेक्षण टॉवर था। पास में ही जंग न लगने वाले लोहे के खम्भे पर ब्राह्मी लिपि में संस्कृत में लिखा है कि विष्णु का यह स्तम्भ विष्णुपाद गिरि नामक पहाड़ी पर बना था। इस विवरण से साफ होता है कि टॉवर के मध्य स्थित मंदिर में लेटे हुए विष्णु की मूर्ति को मोहम्मद गोरी और उसके गुलाम कुतुबुद्दीन ने नष्ट कर दिया था। खम्भे को एक हिंदू राजा की पूर्व और पश्चिम में जीतों के सम्मानस्वरूप बनाया गया था। टॉवर में सात तल थे जोकि एक सप्ताह को दर्शाते थे, लेकिन अब टॉवर में केवल पांच तल हैं। छठवें को गिरा दिया गया था और समीप के मैदान पर फिर से खड़ा कर दिया गया था। सातवें तल पर वास्तव में चार मुख वाले ब्रह्मा की मूर्ति है जो कि संसार का निर्माण करने से पहले अपने हाथों में वेदों को लिए थे।

जहाँ तक. . उस लूले गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक की बात है तो….. वो लुटेरा और जेहादी गोरी का गुलाम था…. और, वो गोरी के साथ ही भारत में जिहाद चलाने आया था  जिसे बाद में भारत का प्रभारी बना कर …स्थायी तौर पर भारत में जिहाद चलाने की अनुमति दे दी गयी थी  जिस दौरान उसने  भारत में सिर्फ लूट-पाट मचाई और.. मंदिरों को तोडा हुआ दरअसल ये था कि  जब वो लूला कुतुबुद्दीन  . जिहाद करते करते दिल्ली पहुंचा तो  वहां इतना बड़ा और खुबसूरत स्तम्भ देखकर  उस लूले का मुंह खुला का खुला रह गया.  और, उसने अपने साथियों से पूछा कि  . ये क्या है. ?

इस पर  उस लूले को अरबी में बताया गया ( क्योंकि, उस लूले को निपट मूर्ख होने के कारण हिंदी नहीं आती थी ) कि  हुजुर  ये  “क़ुतुब मीनार”  अर्थात , उत्तरी धुव का निरीक्षण केंद्र है  बस यहीं से  वो लूला और उसके उज्जड साथी इसे   क़ुतुबमीनार- कुतुबमीनार कहने लगे उस पर भी उस लूले कुतुबुद्दीन ऐबक ने ये बात खुद से कहीं भी नहीं कहा है कि  कुतुबमीनार उसने बनवाया है  लेकिन  उसने ये जरुर कबूल किया है कि  उसने इस स्तम्भ के चारों और बनी 27 मंदिरों को ध्वस्त कर दिया है !

लेकिन  बाद के इतिहासकारों ने नामों में समानता देख कर   बिना कुछ सोचे समझे ही ये नतीजा निकल लिया कि  इस कुतुबमीनार को कुतुबुद्दीन ऐबक ने ही बनवाया होगा

अब अगर  इतिहासकारों की बातों को छीलना शुरू किया जाए तो . सबसे पहला प्रश्न यही है कि

अगर उस लूले कुतुबुद्दीन ने क़ुतुब मीनार बनाई तो कब क्योंकि कुतुबुद्दीन तो मात्र 4 साल ही भारत में जिहाद कर पाया था और क्या कुतुबुद्दीन ने अपने निहायत ही छोटे राज्यकाल (1206 से 1210 ) मेंइतने बड़े मीनार का निर्माण करा सकता था जबकि पहले के दो वर्ष उसने लाहौर में विरोधियों को समाप्त करने में बिताये.और, 1210 में भी मरने के पहले भी वह लाहौर में था ?
फिर भी कुछ लोग अपनी थेथारोलोजी का इस्तेमाल करते हुए बोलते हैं कि लूले ने इसे 1193 AD में बनाना शुरू किया और कुतुबुद्दीन ने सिर्फ एक ही मंजिल बनायीं .. जबकि, उसके ऊपर के तीन मंजिलें उसके परवर्ती बादशाह इल्तुतमिश ने बनाई और  उसके ऊपर की शेष मंजिलें बाद में बनी यदि उनकी ही बातों को माना जाए तो.अगर 1193 में कुतुबुद्दीन ने मीनार बनवाना शुरू किया होता तो उसका नाम “बादशाह गोरी ” के नाम पर “गोरी मीनार”, या “गजनी मीनार ” ऐसा ही कुछ होता  या कि  एक “लूले गुलाम कुतुबुद्दीन” के नाम पर .क़ुतुब मीनार….????

कालान्तर में अनंगपाल तोमर और पृथ्वीराज चौहान के शासन के समय में उसके आसपास कई मंदिर और भवन बने, जिन्हें मुस्लिम हमलावरों ने दिल्ली में घुसते ही तोड़ दिया था।
कुतुबुद्दीन ने वहां ‘कुबत−उल−इस्लाम’ नाम की मस्जिद का निर्माण कराया और इल्तुतमिश ने उस सूर्य स्तंभ में तोड़-फोड़कर उसे मीनार का रूप दे दिया था।

झूठ पढाया जाता है कि गुलाम वंश के पहले शासक कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1199 में कुतुब मीनार का निर्माण शुरू करवाया था और उसके दामाद एवं उत्तराधिकारी शमशुद्दीन इल्तुतमिश ने 1368 में इसे पूरा किया था ।

लेकिन क्या यह सच है?

मीनार में देवनागरी भाषा के शिलालेख के अनुसार यह मीनार 1326 में क्षतिग्रस्त हो गई थी और इसे मुहम्मद बिन तुगलक ने ठीक करवाया था ।
इसके बाद में 1368 में फिरोजशाह तुगलक ने इसकी ऊपरी मंजिल को हटाकर इसमें दो मंजिलें और जुड़वा दीं ।

इसके पास सुल्तान इल्तुतमिश, अलाउद्दीन खिलजी, बलबन व अकबर की धाय मां के पुत्र अधम खां के मकबरे स्थित हैं। उसी कुतुब मीनार की चारदीवारी में खड़ा हुआ है एक लौह स्तंभ ।

दिल्ली के कुतुब मीनार के परिसर में स्थित यह स्तंभ 7 मीटर ऊंचा है। इसका वजन लगभग 6 टन है।

इसे गुप्त साम्राज्य के चन्द्रगुप्त द्वितीय (जिन्हें चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य भी कहा जाता है) ने लगभग 1,600 वर्ष पूर्व बनवाया।
यह लौह स्तंभ प्रारंभ से यहां नहीं था। सवाल उठता है कि क्या यह लौह स्तंभ भी कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनवाया था?

इ‍तनी बड़ी मीनार जब बनी होगी तो यदि यह स्तंभ पहले से यहां रहा होगा तो उसी समय में हट जाना चाहिए था।

गुप्त साम्राज्य के सोने के सिक्कों से यह प्रमाणित होता है कि यह स्तंभ विदिशा (विष्णुपदगिरि/उदयगिरि- मध्यप्रदेश) में स्थापित किया गया था।

कुतुबुद्दीन ऐबक ने जैन मंदिर परिसर के 27 मंदिर तोड़े तब यह स्तंभ भी उनमें से एक था।
दरअसल, मंदिर से तोड़े गए लोहे व अन्य पदार्थ से उसने मीनार में रिकंस्ट्रक्शन कार्य करवाया था।
उनके काल में यह स्तंभ समय बताने का भी कार्य करता था।

सम्राट अशोक ने भी कई स्तंभ बनवाए थे, उसी तरह चंद्रगुप्त द्वितीय ने भी कई स्तंभ बनवाए थे।
ऐसा माना जाता है कि तोमर साम्राज्य के राजा विग्रह ने यह स्तंभ कुतुब परिसर में लगवाया।

लौह स्तंभ पर लिखी हुई एक पंक्ति में सन् 1052 के तोमर राजा अनंगपाल (द्वितीय) का जिक्र है।

जाट इतिहास के अनुसार ऐबक को मीनार तो क्या, अपने लिए महल व किला बनाने तक का समय जाटों ने नहीं दिया।
उसने तो मात्र 4 वर्ष तक ही शासन किया।

इस मीनार को जाट सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य (विक्रमादित्य) के कुशल इंजीनियर वराहमिहिर के हाथों चौथी सदी के चौथे दशक में बनवाया गया था।

यह मीनार दिलेराज जाट दिल्ली के राज्यपाल की देखरेख में बनी थी। हरिदत्त शर्मा ने अपनी किताब ज्योतिष विश्‍व कोष में लिखा है कि कुतुब मीनार के दोनों ओर दो पहाड़ियों के मध्य में से ही उदय और अस्त होता है।

आचार्य प्रभाकर के अनुसार 27 नक्षत्रों का वेध लेने के लिए ही इसमें 27 भवन बनाए गए थे। 21 मार्च और 21 सितंबर को सूर्योदय तुगलकाबाद के स्थान पर और सूर्यास्त मलकपुर के स्थान पर होता देखा जा सकता है।

मीनार का प्रवेश द्वार उत्तर की ओर है न कि इस्लामिक मान्यता के अनुसार पश्‍चिम की ओर।

अंदर की ओर उत्कीर्ण अरबी के शब्द स्पष्ट ही बाद में अंकित किए हुए नजर आते हैं।
मुस्लिम विश्‍वविद्यालय, अलीगढ़ के संस्थापक ने यह स्वीकार किया है कि यह हिन्दू भवन है।

स्तंभ का घेरा 27 मोड़ों और ‍त्रिकोणों का है। बाद के लोगों ने कुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ऐबक से जोड़ दिया जबकि ‘कुतुब ‍मीनार’ का अर्थ अरबी में नक्षत्रीय और वेधशाला होता है। इसका पुराना नाम ‘ध्रुव स्तंभ’ और ‘विष्णु स्तंभ’था।

मुस्लिम शासकों ने इसका नाम बदला और इस पर से कुछ हिन्दू चिह्न मिटा दिए जिसके निशान आज भी देखे जा सकते हैं। राजा विक्रमादित्य के समय में उज्जैन और दिल्ली की कालजयी बस्ती के बीच का 252 फुट ऊंचा स्तंभ है।

वराह मिहिर के अनुसार 21 जून को सूर्य ठीक इसके ऊपर से गुजरता है। पड़ोस में जो बस्ती है उसे आजकल महरौली कहते हैं जबकि वह वास्तव में वह मिहिरावली थी।

इस म‍ीनार के आसपास 27 नक्षत्र मंडप थे जिसे ध्वस्त कर दिया गया। यह माना जाता है कि कुववत-उल-इस्लाम मस्जिद और कुतुब मीनार के परिसर में सत्ताइस हिन्दू मंदिरों के अवशेष आज भी मौजूद हैं।

अब कुछ लोगों ने ये भी कहना शुरू कर दिया है कि  ऐबक ने नमाज़ समय अजान देने केलिए यह मीनार बनवाई थी  तो क्या उतनी ऊंचाई से किसी की आवाज़ नीचे तक आ भी सकती है ?

असल में सच तो यह है कि  जिस स्थान में क़ुतुब परिसर है .  उसे मेहरौली कहा जाता है  और यह मेहरौली  .वराहमिहिर के नाम पर बसाया गया था .जो सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में एक और  एक बहुत बड़े खगोलशास्त्री एवं भवन निर्माण विशेषज्ञ थे  उन्होंने इस परिसर में मीनार यानि स्तम्भ के चारों ओर नक्षत्रों के अध्ययन के लिए 27 कलापूर्ण परिपथों का निर्माण करवाया था . और .इन परिपथों के स्तंभों पर सूक्ष्मकारीगरी के साथ देवी देवताओं की प्रतिमाएं भी उकेरी गयीं थीं जो नष्ट किये जाने के बाद भी कहीं कहीं दिख ही जाती हैं…

इसका दूसरा सबसे बड़ा प्रमाण  उसी परिसर में खड़ा लौह स्तम्भ है .जिस पर खुदा हुआ ब्राम्ही भाषा का लेख .जिसमे लिखा है कि  यह स्तम्भ जिसे गरुड़ ध्वज कहा गया है  सम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य (राज्य काल 380-414 ईसवीं ) द्वारा स्थापित किया गया था  और, यह लौहस्तम्भ आज भी विज्ञान के लिए आश्चर्य की बात है   क्योंकि.  आज तक इसमें जंग नहीं लगा उसी महान सम्राट के दरबार में महान गणितज्ञ आर्य भट्ट .खगोल शास्त्री एवं भवन निर्माण विशेषज्ञ वराह मिहिर .वैद्य राजब्रम्हगुप्त आदि हुए
तो ये बहुत ही सामान्य ज्ञान कि बात है कि ऐसे प्रतापी राजा के राज्य काल  जिसमे लौह स्तम्भ स्थापित हुआ   तो क्या जंगल में बिना कारण के सिर्फ अकेला स्तम्भ बना दिया गया होगा.

महरौली स्थित लौह स्तम्भ जंग लगे बिना विभिन्न संघर्षों का मूक गवाह रहा है और हमारे गौरव और समृद्धि की कहानी को बयां करता है ।

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