लेखक -बलबीर पुंज

 

पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव में हिंसा और परिणाम के बारे में जो अपेक्षा थी, ठीक वैसा ही हुआ। आठ जुलाई को 73 हजार से अधिक सीटों (ग्राम पंचायत, जिला परिषद और पंचायत समिति) पर हुए चुनाव में सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस ने प्रचंड विजय प्राप्त की, तो मुख्य विपक्षी दल भाजपा, बहुत पीछे, दूसरे स्थान पर रही। परंतु इन नतीजों से अधिक चर्चा, निर्वाचन प्रक्रिया के दौरान हुई भीषण हिंसा की है। राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच ह‍िंसक झड़प, गोलीबारी, बमबाजी और आगजनी में आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार— 20 लोग मारे गए हैं। मृतकों की संख्या इससे अधिक हो सकती है। अराजकता और मतपेटियों को खुलेआम लूटने की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल है। यह विकराल स्थिति तब दिखी, जब चुनाव के लिए 25 राज्यों से केंद्रीय सशस्त्र पुलिसबल (सीएपीएफ) और राज्य सशस्त्र पुलिस के 59,000 जवान तैनात थे। यक्ष प्रश्न यही है कि भारी मात्रा में सुरक्षाबलों की उपस्थिति और पहले से हिंसा की आशंका होने के बाद भी, खूनखराबे पर लगाम क्यों नहीं लग पाई?

 

उपरोक्त प्रश्न का एक उत्तर— 9 जुलाई को सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के उपमहानिरीक्षक सुरजीत सिंह गुलेरिया के वक्तव्य में मिल जाता है। उनके अनुसार, “जिन स्थानों पर सुरक्षाबलों को तैनात किया गया था, वहां किसी के हताहत होने की सूचना नहीं मिली… और वहां चुनाव सुचारू रूप से संपन्न हुए…। हमें संवेदनशील, अति-संवेदनशील मतदान केंद्रों की सूची नहीं मिली, जो सुरक्षाबलों की तैनाती के लिए सहायक हो। हमने राज्य चुनाव आयोग (सीईसी) को इस बारे में लिखा था, लेकिन आवश्यक जानकारी नहीं मिली।” उन्होंने यह भी कहा, “बीएसएफ ने बार-बार सीईसी से उन बूथों की जानकारी मांगी थी, जो संवेदनशील हैं, परंतु राज्य चुनाव आयोग ने केवल संवेनशील बूथों की संख्या बताई। अब वे संवेनशील बूथ कहां थे, इसका कोई उल्लेख नहीं किया। बंगाल में इस प्रकार की चुनावी हिंसा कोई पहली बार नहीं है। इसका एक लंबा और दुखद इतिहास है।

 

स्वतंत्र भारत में चुनाव के समय थोड़ी-बहुत मात्रा में हिंसा की खबरें आती रही है। किंतु प.बंगाल के साथ केरल— चुनाव और सामान्य दिनों में ‘राजनीतिक रक्तपात’, ‘दूसरे विचार के प्रति असहिष्णुता’ और ‘विरोधियों को शत्रु मानने’ संबंधित चिंतन के मामले में सर्वाधिक दागदार है। यह स्थिति तब है, जब इन दोनों प्रदेशों का अपने प्रतिष्ठित इतिहास के साथ भारत का गौरव और संगीत, नृत्य, त्योहार, भोजन आदि के लिए प्रसिद्ध रहा हैं। केरल, जहां भारत के महान वैदिक दार्शनिकों में एक— आदि शंकराचार्य की जन्मस्थली है, तो प.बंगाल को रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद घोष और नेताजी सुभाषचंद्र बोस की जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है। प.बंगाल भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पुनर्जागरण का नेतृत्व कर चुका है। देश को पहला नोबल पुरस्कार बंगाल में जन्में रविंद्रनाथ टैगोर को वर्ष 1913 में मिला था, जिन्होंने भारत के राष्ट्रगान की रचना भी की थी। बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा रचित राष्ट्रगीत वंदे-मातरम् का प्रथम उद्घोष भी बंगाल की धरती पर 1896 में हुआ था। लगभग एक सदी पहले बंगाल के लिए तत्कालीन कांग्रेसी नेता गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा था— “बंगाल जो आज सोचता है, भारत वह कल सोचता है।”

 

इतना समृद्ध अतीत होने के बाद प.बंगाल की कुंडली में राहु का प्रवेश कब हुआ? यह क्षेत्र पहले प्लासी के युद्ध (1757) के बाद ब्रितानी दमन का शिकार हुआ। जब 1947 में देश का इस्लाम के नाम पर विभाजन हुआ, तब पंजाब के साथ बंगाल ने भी इसकी सर्वाधिक भयावह त्रासदी को झेला। 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग द्वारा घोषित ‘सीधी कार्रवाई’, जिसमें उन्मादी इस्लामी भीड़ ने हजारों हिंदुओं को मजहब के नाम पर मौत के घाट उतार दिया था, उनकी महिलाओं से बलात्कार और असंख्य गैर-मुस्लिमों का जबरन मतांतरण किया था— इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

 

साढ़े दशक पहले बंगाल के सार्वजनिक जीवन में मुस्लिम लीग ने खूनी हिंसा की जिस उर्वर जमीन को तैयार किया था, उसपर वामपंथियों ने कालांतर में फसल बोने का काम किया। हिंसा— मार्क्सवाद के केंद्र में है और इसी प्रेरणा लेकर वामपंथियों ने मई 1967 में प.बंगाल स्थित नक्सलबाड़ी में भारत-विरोधी माओवाद/नक्सलवाद का बीजारोपण किया था, जिसमें नक्सली दानवों ने देश के अलग-अलग हिस्सों में अकेले 1997-2017 के बीच 12 हजार निरपराधों की हत्या कर दी थी।

 

वर्ष 1977-2011 अर्थात्—34 वर्षों के वामपंथी शासन ने अपने विचारधारा के अनुरूप, प.बंगाल में ‘राजनीतिक संवाद’ के बजाय विरोधियों (वैचारिक-राजनीतिक) की हत्या को ‘पसंदीदा उपक्रम’ बना दिया। योजनाबद्ध तरीके से सत्तारुढ़ ने स्थानीय गुंडो, जिहादियों और अराजक तत्वों को संरक्षण दिया गया और फिर उन्हीं के माध्यम से राजनीतिक-वैचारिक विरोधियों (आरएसएस-भाजपा सहित) को नियंत्रित या प्रताड़ित करना प्रारंभ हुआ। वर्ष 1997 में प.बंगाल के तत्कालीन वाम सरकार में गृहमंत्री रहे बुद्धदेब भट्टाचार्य ने विधानसभा में जानकारी दी थी कि राज्य में 1977-96 के बीच राजनीतिक हिंसा में कुल 28 हजार लोग मारे गए थे। यह आंकड़ा, बकौल वामपंथी पत्रिका— 2009 में बढ़कर 55 हजार पर पहुंच गया था। इस हिंसक दुष्चक्र को वर्ष 2007-08 में रफ्तार तब और मिली, जब नंदीग्राम में एक औद्योगिक परियोजना के लिए तत्कालीन वामपंथी सरकार ने भूमि अधिग्रहण हेतु व्यापक अभियान चलाया था। इस घटना से प्रादेशिक राजनीति में तृणमूल कांग्रेस मुखिया ममता बनर्जी का कद बढ़ गया और उन्होंने वर्ष 2011 में बंगाल से साढ़े तीन दशक पुराने वामपंथी शासन को उखाड़ फेंका।

 

आशा थी कि वामपंथियों से मुक्ति के बाद प.बंगाल में गुंडों की सल्तनत ना होकर सुशासन और कानून-लोकतंत्र का शासन होगा। परंतु बीते 12 वर्षों में यह स्थिति पहले अधिक रक्तरंजित— विशेषकर हिंदू विरोधी हो गई है। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि वामपंथी शासन में जो आपराधिक मानसिकता से ग्रस्त समूह मार्क्सवादी केंचुली पहनकर घूमा करते थे, वे रातोंरात तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता और स्थानीय नेता बन गए और उन्होंने वैचारिक कारणों से विरोधियों को मौत के घाट उतारना जारी रखा। पंचायत चुनाव में हिंसा और मतपेटियों की लूटपाट उसका प्रमाण है। प्रदेश में हिंसा और रक्तपात का यह दुष्चक्र कब रुकेगा, इसका उत्तर भविष्य के गर्भ में है।

 

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।

संपर्क:- punjbalbir@gmail.com

DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.