प्रत्येक वर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन, दत्त जयंती उत्सव न केवल महाराष्ट्र में अपितु महाराष्ट्र के बाहर भी मनाई जाती है। आनंद के वातावरण में मनाए जाने वाले इस त्योहार में कुछ जगहों पर जन्मोत्सव मनाने की परंपरा है। इस अवसर पर कहीं-कहीं दत्त यज्ञ का आयोजन किया जाता है। दत्त जयंती के अवसर पर बड़ी संख्या में भक्त गुरुचरित्र का पाठ करते हैं। यह दत्त जयंती के महत्व को रेखांकित करता है । इस वर्ष दत्त जयंती 18 दिसंबर को है। पिछले दो वर्षों से कोरोना महामारी के कारण हिंदू त्योहारों को मनाने पर रोक लगी हुई है। अभी यह त्योहार कुछ नियमों के साथ भावपूर्ण वातावरण में मनाते हुए, आइए इस अवधि के दौरान ‘श्री गुरुदेव दत्त’ का अधिक से अधिक जप करके दत्तगुरु की कृपा का लाभ उठाएं। संतों के कहे अनुसार नाम संकीर्तन साधना आसान है, इस से जन्मों जन्मों के पाप जल जाते हैं । नाम स्मरण के महत्व को ध्यान में रखते हुए ऐसा करने का प्रयास हो, ऐसे श्री दत्त गुरु के चरणों में प्रार्थना है। वर्तमान लेख में दत्त देवता का इतिहास और दत्त जयंती मनाने की पद्धति के बारे में  जानकारी देने का प्रयास किया है।

मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन शाम को मृग नक्षत्र में दत्त का जन्म हुआ था, इसलिए उस दिन सभी दत्त क्षेत्रों में दत्त जयंती मनाई जाती है।

दत्त जयंती का महत्व – दत्त जयंती के दिन दत्त तत्व सामान्य से 1000 गुना अधिक पृथ्वी पर कार्यरत रहता है। इस दिन दत्त का नाम जप आदि उपासना करने से दत्त तत्व का अधिकतम लाभ मिलता है।

कैसे मनाएं जन्मोत्सव – दत्त जयंती मनाने की कोई शास्त्रोक्त विशिष्ट विधि नहीं है। इस त्योहार से पहले सात दिनों तक गुरुचरित्र का पाठ करने की प्रथा है। इसे गुरुचरित्र सप्ताह कहा जाता है। भक्ति के प्रकार जैसे भजन, पूजन और विशेष रूप से कीर्तन आदि प्रचलन में हैं। महाराष्ट्र में जैसे औदुंबर, नरसोबा की वाडी, गाणगापुर आदि आदि स्थानों पर इस पर्व का विशेष महत्व है। दत्त जयंती तमिलनाडु में भी मनाई जाती है। कुछ स्थानों पर इस दिन दत्त यज्ञ किया जाता है।

दत्त यज्ञ के बारे में जानकारी – दत्त यज्ञ में, पवमान पंचसूक्त संस्करण (जप) और उसके दशमांश या एक तिहाई घी और तिल से हवन करते हैं। दत्त यज्ञ के लिए किए जाने वाले जपों की संख्या निश्चित नहीं है। स्थानीय पुजारियों के आदेश के अनुसार जप और हवन किया जाता है।

पुराणों के अनुसार जन्म का इतिहास – अत्रि ऋषि की पत्नी अनुसूया एक पतिव्रता स्त्री थी। पतिव्रता होने कारण उनके पास बहुत ही सामर्थ्य था जिसके कारण इन्द्रादि देव घबरा गए थे और ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास जाकर उन्होंने कहा की सती अनसूया के वरदान के कारण किसी को भी देवता का स्थान प्राप्त हो सकता है इसलिए आप कुछ उपाय करें अन्यथा हम उनकी सेवा करेंगे, यह सुनकर त्रिमूर्ति बोले कि वह कितनी बड़ी पतिव्रता और सती है वह हम देखेंगे। 

  एक बार अत्रि ऋषि अनुष्ठान के लिए बाहर गए, तो त्रिमूर्ति एक अतिथि के रूप में आए और अनुसूया से भीख माँगने लगे। अनुसूया ने उत्तर दिया, “ऋषि अनुष्ठान के लिए बाहर गए हैं। उनके आने तक रुको।” तब त्रिदेव ने अनुसूया से कहा, “ऋषि  को लौटने में समय लगेगा। हम बहुत भूखे हैं। हमें तुरंत भोजन दो, नहीं तो हम कहीं और चले जाएंगे। हमने सुना है कि ‘आश्रम में आने वाले अतिथियों को आप इच्छानुसार भोजन देते हैं’; इसलिए हम यहां इच्छित भोजन करने आए हैं।” और वे भोजन करने बैठ गए। जैसे ही भोजन आया, उन्होंने कहा, “आपकी सुंदरता को देखते हुए, हम चाहते हैं कि आप हमें विवस्त्र होकर भोजन कराएं ।” मेरा मन शुद्ध है, तो कामदेव की क्या बात है? ऐसा विचार कर के उसने अतिथियों से कहा, “मैं विवस्त्र हो कर आप को भोजन कराऊंगी ।” आप आनंद से खाना। ”फिर वह रसोई में गई और अपने पति का चिंतन कर के प्रार्थना कर के सोचा,” मेहमान मेरे बच्चे हैं ”और नग्न होकर भोजन परोसने आई । उन्होंने मेहमानों के स्थान पर तीन बच्चों को रोता हुआ देखा। वह उन्हें एक ओर ले गई और स्तनपान कराया तथा बच्चों ने रोना बंद कर दिया। अत्रि ऋषि आए। उसने उन्हें सारी कहानी सुनाई। उन्होंने कहा, “स्वामी देवेन दत्त।” इसका अर्थ है – “हे स्वामी, ईश्वर द्वारा दिए हुए बच्चे (बच्चे)।” इसलिए अत्री जी ने बच्चों का दत्त ऐसे नामकरण किया । बच्चे पालने में रहे और ब्रह्मा, विष्णु और महेश उनके सामने खड़े हो गए और प्रसन्न होकर वर मांगने के लिए कहा । अत्री और अनुसूया ने, “बच्चे हमारे घर में रहने चाहिए।” यह वर मांगा । बाद में ब्रह्मा से चन्द्रमा, विष्णु से दत्त और शंकर से दुर्वासा हुए । तीनों में से, चंद्र और दुर्वासा तपस्या के लिए जाने की अनुमति लेकर क्रमशः चंद्रलोक की ओर तीर्थक्षेत्र गए। तीसरे, दत्त विष्णुकार्य के लिए पृथ्वी पर ही रहे ।

दत्त अवतार – दत्त के परिवार का अर्थ – दत्त के पीछे गाय अर्थात पृथ्वी और चार कुत्ते चार वेद हैं। औदुंबर वृक्ष दत्त का एक श्रद्धेय रूप है; क्योंकि इसमें दत्त तत्व अधिक प्रमाण में है।
दत्तगुरु ने पृथ्वी को अपना गुरु बनाया और पृथ्वी से सहिष्णु और सहनशील होना सीखा। साथ ही अग्नि को गुरु बनाकर यह शरीर क्षणभंगुर है, यह सीखा । इस प्रकार, दत्तगुरु ने चराचर में प्रत्येक वस्तु में ईश्वर के अस्तित्व को देखने के लिए चौबीस गुरु बनाए।

‘श्रीपाद श्रीवल्लभ’ दत्त के प्रथम अवतार ‘श्री नृसिंह सरस्वती’ दूसरे अवतार, माणिकप्रभु तीसरे अवतार और श्री स्वामी समर्थ महाराज चौथे अवतार थे। चार पूर्ण अवतार और कई आंशिक अवतार हैं। जैन दत्तगुरु को ‘नेमिनाथ’ और मुसलमान ‘फकीर’ के रूप में देखते हैं।

दत्त भगवान प्रतिदिन बहुत भ्रमण करते थे। वे स्नान करने हेतु वाराणसी जाते थे, चंदन लगाने के लिए हेतु प्रयाग जाते थे प्रतिदिन भिक्षा कोल्हापुर, महाराष्ट्र में मांगते थे दोपहर के भोजन  पंचालेश्वर, महाराष्ट्र के  बीड जिले के गोदावरी के पात्र में लेते थे । पान ग्रहण करने के लिए महाराष्ट्र के मराठवाड़ा जिले के राक्षसभुवन जाते हैं, तथा जबकि  प्रवचन और कीर्तन बिहार के नैमिषारण्य में सुनने जाते हैं। निद्रा करने के लिए माहुरगड़ और योग गिरनार में करने जाते थे ।

दत्तपूजा के लिए, सगुण मूर्ति की अपेक्षा पादुका और औदुंबर वृक्ष की पूजा करते हैं। पूर्व काल में, मूर्ति अधिकतर एकमुखी होती थीं परन्तु आजकल त्रिमुखी मूर्ति अधिक प्रचलित हैं। दत्त गुरुदेव हैं। दत्तात्रेय को सर्वोच्च गुरु माना जाता है। उन्हें गुरु के रूप में पूजा जाता है । ‘श्री गुरुदेव दत्त’, ‘श्री गुरुदत्त’ इस प्रकार उनका जयघोष किया जाता है। ‘दिगंबर दिगंबर श्रीपाद वल्लभ दिगंबर’ यह नाम धुन है ।

दत्तात्रेय के कंधे पर एक झोली है। इसका अर्थ इस प्रकार है- झोली मधुमक्खी का प्रतीक है। जैसे मधुमक्खियां एक जगह से दूसरी जगह जाकर शहद इकट्ठा करती हैं , वैसे ही दत्त घर-घर जाकर भिक्षा मांगकर झोली में इकट्ठा करते हैं। घर-घर जाकर भिक्षा माँगने से अहंकार शीघ्र कम हो जाता है; तथा झोली भी अहंकार के विनाश का प्रतीक है।

दत्त जयंती उत्सव को भावपूर्ण करने के लिए करने के प्रयास –  महिलाएं साड़ी पहन सकती हैं और पुरुष सात्विक वस्त्र जैसे धोती, कुर्ता पहन सकते हैं। सात्विक वेशभूषा से भक्तों को अधिक लाभ हो सकता है । ‘श्रीदत्तात्रेय कवच’ का पठन करने के साथ-साथ दत्त नाम का जप विद्यार्थियों के लिए लाभकारी हो सकता है। उत्सव स्थल पर ऊंची आवाज में संगीत नहीं बजना चाहिए, रज तम निर्माण करने वाली बिजली की रोशनी ना करें। दत्त जयंती के जुलूस में ताल, मृदंग जैसे सात्विक वाद्य यंत्रों का प्रयोग करना चाहिए।

चेतन राजहंस,राष्ट्रीय प्रवक्ता, सनातन संस्था

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