छान्दोग्य उपनिषद् के ४वें प्रपाठक में उल्लेखित एक अद्भुत प्रकरण है सत्यकाम व् उनकी माता जबाला से सम्बंधित, जिसमे सत्यकाम नमक बालक की असीम सत्यनिष्ठता का वर्णन है. उक्त प्रसंग को मेरे द्वारा कविता के रूप में प्रस्तुत किया गया है.

जबाला का पुत्र, नाम था सत्यकाम,

अद्भुत थी ज्ञान की अभिलाषा,

प्राप्त करना था ब्रह्म ज्ञान!

सत्य का सच जानने का था दृढनिश्चय,

जिसे अर्जित करना था अवश्य,

परन्तु मार्ग में थी एक बाधा,

नहीं था ज्ञात कौन था उसका पिता!

इसके अभाव में स्वीकार नहीं किया जावेगा वह शिक्षा हेतु,

इस दुविधा से ग्रसित, था सशंकित वह ज्ञान पिपासु,

जा पहुंचा अपनी जननी के समक्ष,

किया प्रशन कौन है मेरा जनक!

माता थी विस्मित, किन्तु आत्मविश्वास था अपरिमित,

शांत किया सुत की शंका को,

ज्ञात नहीं कौन है पितृ, परन्तु यह तथ्य नहीं है विचित्र,

निश्चिंत हो तुम मेरे लाल,

आज से नाम है तुम्हारा सत्यकाम जाबाल!

पहुंचा वह गुरु गौतम के स्थान,

गुरु ने जब किया प्रश्न, किसकी हो तुम संतान,

सत्यकाम ने दिया तत्परता से गुरु को प्रमाण,

पिता का वंश नहीं है ज्ञात,

जबाला हैं माता, मैं हूँ सत्यकाम,

धात्री ने दिया है अपना नाम, सत्यकाम जाबाल!

गुरु थे अचंभित किन्तु द्रवित,

प्रभावित थे बालक की निश्चलता से अत्यधिक,

धन्य है तेरी अकाट्य सत्य में आस्था,

स्वीकारता हूँ तुझे शिष्य, नमन करता हूँ तेरी विद्वता!!

-निधि मिश्रा

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