25 जून 1975 का दिन इस देश के लिए अत्यंत त्रासद भरा था। इसी दिन तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 का गलत इस्तेमाल किया और आपातकाल की घोषणा कर दी, 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक देश में आपातकाल रहा, इस दौरान देश ने जाने कितनी दर्जे की पीड़ा झेली।
यह 21 माह इंदिरा गांधी के विरोधियों के लिए न जाने कितने दुखपूर्ण थे क्योंकि इनका यह समय जेल की काल कोठरियों में बीता या अज्ञातवास में, गुमनाम जीवन की विवशता कांग्रेस विरोधी दलों से बेहतर कौन जान सकता है। इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक विरोधियों को मानो कैद करा लिया था , स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादस्पद काल था ,आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए थे और प्रेस पर अनेक तरह के प्रतिबंध थोपे गए थे। जब भी कोई भारत में लगे आपातकाल को याद करता है तो उसकी रूह कांप उठती है. कुछ ही मिनटों में तत्कालीन केंद्र सरकार ने लगभग भारतीय संविधान का अपहरण ही कर लिया ,आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे। अभिव्यक्ति का अधिकार ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया था। 25 जून की रात से ही देश में विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया था ,जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नाडीस आदि बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया था। उस समय कांग्रेस पार्टी के पास आपातकाल घोषित करने के कोई भी कारण नही थे, लेकिन ये न तो जरुरी था और न ही इसके लिए कोई वैध कारण थे. सिर्फ इस बात की आशंका पर कि विपक्ष देश में अशांति पैदा कर सकता है, आपातकाल लागू करने का कोई आधार नहीं बनता था , फिर भी देश ने काला अध्याय देखा। यह सब हुआ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फ़ैसले से जिसमें इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया गया और उन पर छह वर्षों तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था , लेकिन इंदिरा गांधी ने इस फ़ैसले को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और 26 जून से देश में आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी । इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक भविष्य को बचाने, विपक्षी दलों की बढती एकजुटता को रोकने और सत्ता में बने रहने एवं जनता में अपनी साफ सुथरी छवि बनाए रखने के लिए एक गैर लोकतांत्रिक निर्णय देश की जनता पर थोप दिया जिसे भारतीय राजनीतिक इतिहास में सबसे बड़ी त्रासदी के रूप में जाना जाता है। यह एक गैर लोकतांत्रिक निर्णय था ,भारतीय संविधान के अनुच्छेद – 352 का दुरूपयोग किया गया था । आपातकाल के दौरान संसद को पूरी तरह निष्प्रभावी बना दिया गया , इस दौरान कानून और संविधान को ख़ूब तोड़ा-मरोड़ा गया, मीडिया पर पाबंदी लगाई गई, देश में डर का ऐसा माहौल फैल गया था जिसकी कहानियां हम आज तक पढ़ते हैं. निस्संदेह, वह भारत का सबसे काला अध्याय था जिसकी क़लम ख़ुद इंदिरा गांधी थामे हुई थी. अभिव्यक्ति की आजादी पर सेंसरशिप का ताला जड़ दिया गया था. पत्र-पत्रिकाओं में वही सब छपता और आकाशवाणी पर वही प्रसारित होता था जो उस समय की सरकार चाहती थी. प्रकाशन-प्रसारण से पहले सामग्री को सरकारी अधिकारी के पास भेज कर उसे सेंसर करवाना पड़ता था. लोकतंत्र से ‘लोक’ हटा कर ‘तानाशाही’ लिख दिया गया था । जिस आज़ादी के लिए असंख्य देशभक्तों ने अपना बलिदान दिया, अमानवीय यातनाएं झेली, उस आज़ादी को इंदिरा गांधी ने पिंजरे में कैद कर लिया ,जिस संविधान की शपथ ली थी उसी संविधान पर ताला लगा दिया गया था ,भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में इस से बड़ा काला अध्याय हो ही नही सकता था , सरकार के विरुद्ध कुछ भी लिखने वाले निष्पक्ष पत्रकारों को भी जेल भेज दिया गया था, यह कहना गलत नही है कि हिंदुस्तान का लोकतंत्र ही जेल की सलाखों के पीछे बंद कर दिया गया था। देश के आम व्यक्ति की तो हैसियत ही क्या थी जब नामी-गिरामी राजनेताओं को रातों रात गिरफ्तार कर जेलों में ठूस कर अमानवीय यातनायें दी गई।
आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने नसबंदी अभियान चलाया गया जिसके अंतर्गत शहर से लेकर गांव-गांव तक लोगों के ऑपरेशन कर दिए गए। टारगेट पूरा करने के चक्कर में अनेक ज्यादतियां हुई। पुलिस की दबिश के डर से घर के घर खाली हो गए और अनेक स्थानों पर परिवार के पुरुष सदस्यों को भूमिगत होना पड़ा।
जिसने भी विरोध किया उसकी भी गिरफ्तारी हुई ,सरकार के प्रति तीखी आलोचना करने वाले पत्रकारों, समाजसेवियों, विभिन्न संगठनों के लोग और छात्रों को आपातकाल के वक्त सलाखों में भेज दिया गया, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित कर दिया गया ,माना गया कि यह संगठन विपक्षी नेताओं का करीबी है। इसका बड़ा संगठनात्मक आधार सरकार के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन करने की सम्भावना रखता था। पुलिस इस संगठन पर टूट पड़ी और उसके हजारों कार्यकर्ताओं को कैद कर दिया गया ,हजारों स्वयंसेवको को यातनाएं दी गयी, किन्तु संघ ने उस समय आपातकाल का डटकर मुकाबला किया ।
आपातकाल के काले दिनों को याद करते हुए, इसे सिर्फ दुःस्वप्न या फिर बुरा सपना भर कहकर इसकी आलोचना करना ही पर्याप्त नहीं है. हमें एक संकल्प लेना होगा कि हम भारत को फिर से ऐसा कोई काला दिन नहीं देखना पड़े हमें अपने वैधानिक अधिकारों से अवगत होना चाहिए ऐसे राजनीतिक स्वार्थों वाली पार्टी के कार्यो का प्रतिकार करना चाहिए।

  • पवन सारस्वत मुकलावा
    कृषि स्वंतत्र लेखक

DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.