आज बाल दिवस के दिन अचानक नेहरू जी याद आ गये। कभी आप भी सोचकर देखें तो आज तक किसी भी अकांग्रेसी प्रधान मन्त्री ने नेहरू से आगे सोचने की बात भी न सोची। उसी पंचशील के मुरब्बे में कभी एक दो मसाला और डाल दिया या कुछ मसाले कभी कम डाले। उन्होंने ने च्यांग काइ शेक और माओत्से तुंग पर भरोसा किया , किसी ने नवाज़ पर तो किसी ने शी जिन पिंग पर। किसी ने १९६२ का युद्ध हारकर सदमे में अपनी जान दे दी तो किसी ने खीझ कर अपनी १९७७ की चीन यात्रा बीच में हीं स्थगित कर दी… किसी काल खंड में चायनीज बिजली के झालरों का बहिष्कार करने की ब्राडकास्टिंग की कोशिश चायनीज़ मोबाइल से ह्वाट्सएप मैसेज भेज कर की गई।
ये सच है कि नेहरू के प्रयासों से हीं चीन की स्वीकार्यता यू०एन०ओ० में बढ़ी थी और उसी ने इनकी ऐसी तैसी की पर आज की तारीख में प्रोफ़ेशनलिज़्म शायद इसी को कहते हैं।
एक बार कोई पी०एम० चीन के पूर्ण बहिष्कार की हिम्मत तो जुटायें पर जब हम आतंकी भेजने वाले पाकिस्तान को खुद आतंकी देश घोषित करने में असमर्थ हैं और इसकी भी चाहत अमेरिका से रखते हैं तो चीन के बारे में क्या बात करना । एक शेर है कि –
न खंजर उठेगा न शमशीर तुमसे
ये बाज़ू मेरे आजमाये हुए हैं॥
सारे अ-कांग्रेसी पी०एम० को पहनने के लिए जवाहर का जैकेट और कोसने के लिये नेहरू का निर्णय चाहिये… आज तक विपक्ष आरोप लगाने के लिये भी आत्मनिर्भर ना बन सका ।
अफ़सोस।
पर आज मेरे इस लेख में बस नेहरू के सन्तुलित आस्तिक चरित्र और सोच को सामने लाना है।
अभी बात मोहम्मद अली जौहर की हो रही है।

मोहम्‍मद अली जौहर भारत की आजादी के सच्‍चे सपूत होने के साथ ही पक्‍के मजहबी आदमी थे. अपने धर्म को मानते थे. धर्म को लेकर नेहरू के विचार काफी खुले थे, इसलिए उनकी कोशिश होती थी कि मौलाना से धर्म पर उनकी चर्चा न्यूनतम हो।

नेहरू अपनी आत्‍मकथा ‘मेरी कहानी’ में जो लिखते हैं उसका हिस्‍सा देखिए:

”एक और विषय था जिस पर अक्सर हमारी बहस हुआ करती थी और वह था ईश्वर। मोहम्मद अली एक अजीब तरीके से अल्लाह का जिक्र कांग्रेस के प्रस्तावों में भी ले आया करते थे. या तो शुक्रिया अदा करने की शक्ल में या किसी किस्म की दुआ की शक्ल में। मैं इसका विरोध किया करता था। वह जोर से बिगड़ते और कहते तुम बड़े नास्तिक हो. मगर फिर भी आश्चर्य है कि थोड़ी देर बाद मुझसे कहते कि एक मजहबी आदमी के सारे जरूरी गुण तुम में हैं, हालांकि तुम्हारा जाहिरा बर्ताव और दावा इसके खिलाफ है। मैंने कई बार मन में सोचा है कि उनका कहना कितना सच था शायद यह इस बात पर निर्भर करता है कि कोई मजहब की क्या मानी करता है.”

नेहरू आगे लिखते हैं: ”मैं उनके साथ हमेशा मजहब के मामले में बहस करना टालता था क्योंकि मैं जानता था इसका नतीजा यही होता कि हम दोनों एक दूसरे पर चिढ़ उठते. मुमकिन था कि उनका जी दुख जाता. किसी भी मत के कट्टर मानने वाले से इस किस्म की चर्चा करना हमेशा मुश्किल होता है. बहुत से मुसलमानों के लिए तो यह शायद और भी मुश्किल हो, क्योंकि उनके यहां विचारों की आजादी मजहबी तौर पर नहीं दी गई है. विचारों की दृष्टि से देखा जाए तो उनका सीधा मगर तंग रास्ता है. उसका अनुयाई जरा भी दाएं बाएं नहीं जा सकता.

हिंदू धर्म के मामले में नेहरू लिखते हैं, “हिंदुओं की हालत इस से कुछ भिन्न है, सो भी हमेशा नहीं. व्यवहार में चाहे वे कट्टर हों। उनके यहां बहुत पुरानी बुरी और पीछे ले जाने वाली रस्म रिवाज माने जाते हैं फिर भी वे धर्म के विषय में अत्यंत क्रांतिकारी और मौलिक विचारों की चर्चा करने के लिए भी हमेशा तैयार रहते हैं। मेरा ख्याल है कि आधुनिक आर्य समाजियों की दृष्टि आमतौर पर इतनी विशाल नहीं होती॥ मुसलमानों की तरह वे भी अपने सीधे और तंग रास्ते पर ही चलते हैं।”

नेहरू इसी मामले में आगे लिखते हैं, “भले ही कोई अपने को नास्तिक कहता हो, जैसा कि चार्वाक था. फिर भी कोई यह नहीं कह सकता कि वह हिंदू नहीं रहा. हिंदू धर्म अपनी संतानों को उनके न चाहते हुए भी पकड़ रखता है. मैं एक ब्राह्मण पैदा हुआ और मालूम होता है कि ब्राह्मण ही रहूंगा, फिर मैं धर्म और सामाजिक रीति रिवाज के बारे में कुछ भी कहता और करता रहूं. हिंदुस्तानी दुनिया के लिए मैं पंडित हूं चाहे मैं उपाधि को नापसंद ही करूं.”
मतलब नेहरू को सनातन की गहरी समझ थी। आज कल तो हिन्दू हृदय पर राज करने वाली पार्टी के कई राजनेता विजातीय विवाह और विधर्मी विवाह कर चुके हैं और वही पार्टी एण्टी रोमियो स्कायड और लव जिहाद की बातें कर रहीं है।

दरअसल धर्म और खासकर हिंदू धर्म को लेकर नेहरू के विचार खासे उदार थे। वे महात्‍मा गांधी की उसी धार्मिक दृष्टि से प्रेरणा लेते थे जो कहती थी कि इतने विशाल देश में शासन धर्म को किनारे रखकर नहीं चलाया जा सकता। उनके लिए धर्म का मतलब एक निजी आध्‍यात्मिकता थी परन्तु वे इसके राजनैतिक इस्‍तेमाल के खिलाफ जीवन भर डटे रहे।
प्रधानमंत्री नेहरू ने 17 अप्रैल 1950 को उत्तर प्रदेश के मुख्य मन्त्री गोविंद बल्लभ पंत को पत्र में लिखा था :
सांप्रदायिकता यह एक किस्म का लकवा है, जिसमें मरीज को पता तक नहीं है कि वह लकवाग्रस्त है। जो संस्कृति के मामले में सबसे ज्यादा पिछड़े हुए हैं. वही लोग संस्कृति के बारे में सबसे ज्यादा बात कर रहे हैं।’’
इन पंक्तियों के आलोक में यह स्पष्ट हो जाता है कि नेहरू एक धार्मिक समझ वाले कम्यूनिस्ट थे और ये भी याद रखें कि उनके समय संविधान में सेक्यूलर शब्द भी नहीं था। अपनी पितामही की अस्थियाँ विसर्जित करते नेहरू का चित्र उन्हें “हिन्दू बाय चान्स” के दायरे से मुक्त तो कर हीं देता है|
और एक बात कि जब धार्मिक आधार पर देश विभाजित हुआ तो यदि पाकिस्तान इस्लामी राष्ट्र और जिन्ना मुस्लिम नेता हुए तो इलेस्ट्रोस्टैटिक थ्योरी से बचा भाग भारत हिन्दु बहुल राष्ट्र और नेहरू हिन्दू नेता होंगे या नहीं … पारसी , बौद्ध , जैन , सिख आदि का तो जिक्र हीं क्या करना।
जितनी बेबाकी धर्म के मुद्दे पर नेहरू ने दिखाई है उतनी आज तक किसी पी०एम० के विचारों में मुझे दिखी नहीं। धारा ३७० /३५ ए की समाप्ति, राममन्दिर मुद्दा , तीन तलाक बिल पर अगर हम आज की मोदी सरकार को बेबाक सोच रखने वाली सरकार मान लें तो धारा ३७७, समलैंगिकता आदि के सनातन विरोधी विषयों पर और एफ़०डी० आइ० सरीखे देश विरोधी निर्णयों पर उसके युधिष्ठिरीय मौन को क्या कहेंगे ? मजे की बात है कि इन मुद्दों पर इसी पार्टी के तीखे रुख थे जब वह विपक्ष में थी जो आज की कहानी कुछ और कहती है।
जो विचार नेहरू ने बिना किसी पूर्वाग्रह के अपनी आत्मकथा में लिखे हैं वैसे विचार कट्टर हिन्दू या मुसलमान नेताओं के लेखन में भी पाना असंभव है। सोमनाथ मुद्दे पर उनकी उदासीनता, अयोध्या मुद्दे पर यथास्थिति बनाये रखने की ज़िद, कश्मीर का विशेष अस्तित्व , मुसलमानों के प्रति लगाव , चीन तथा पाकिस्तान के साथ संतुलन के अभाव के लिये हम भले नेहरू को कोसें और कोसते रहें पर भारत: एक खोज में नेहरू की भारतीय विरासत के प्रति लगाव और ज्ञान का जो स्तर दिखता है उस आधार पर धर्म के संबन्ध में उनकी राय उन्हें मेरी नज़र में विवेकी सनातनी साबित करता है … क्योंकि भारत अपनी धार्मिक अवस्थिति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।।

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