भारतीय परम्परा में कृष्ण अकेले ऐसे अवतारी पुरुष हैं जिनका पूरा जीवन एक अनिवार्य , कठोर , असंभवप्राय और अद्भुत लक्ष्य के लिये समर्पित रहा पर अपनों की हर पीड़ाकाल में उसके साथ रहने की पूरी कोशिश की है।शायद इसी लिये बलराम को अवतार मानकर कृष्ण को पूर्णावतार मानलिया गया अंशावतार नहीं। विष्णु के अवतारों में मत्स्य, कच्छप, वराह और नृसिंह ये तो वर्णनातीत अवतार रहे और वामन अवतार का तात्पर्य मुझे इतना हीं दिखा कि कि यदि आपसे कोई कुछ माँग रहा है तो उसकी औकात दो कौड़ी का कभी मत मानिये… जरूरतें किसी का भी कद छोटा कर सकती हैं। फिर है परशुराम अवतार जो एक दिव्य मानव का स्वरूप है विद्वत्ता और शक्ति का अपरिमित संगम जैसा बनना लगभग किसी भी मनुष्य के लिये नामुमकिन है ।
सहस्रार्जुन ने उनके माता पिता पर अत्याचार किये। उनके समाधिस्थ रहते माता रेणुका ने इक्कीस बार राम को पुकारा । पर समाधिस्थ राम को आवाज सुनाई नहीं पड़ी। सिद्धि के उपरान्त जब आँखें खुलीं तब माता की पुकार प्रतिध्वनि बनकर इक्कीस बार कानों तक आई और पुत्र राम से परशुराम बन गया और उसने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित कर के ब्राहमणों को दान कर दिया। ब्राहमणों ने भी क्षत्रियों को परशुराम के कोप से बचाने के लिये तत्काल दान की गई धरती को छोड़ने की आज्ञा दे दी … और शिष्टता देखिये जमदग्निपुत्र ने सहर्ष आज्ञा स्वीकार कर अपना बसेरा महेन्द्र गिरि पर किया। पर ये अवतार कभी भी बेवज़ह किसी के काम में उंगली नहीं करता और इस अवतार को धर्म अधर्म पाप पुण्य से कोई खास मतलब नहीं। वरना परशुराम के रहते वेदवती , नलकूबर की पत्नी आदि कई कुलीन ललनाओं के साथ अभद्र व्यवहार करने वाला रावण जीवित हीं नहीं बचता। यह अमर वैष्णव कभी भी धर्मयुद्ध का हिस्सा नहीं बना जबकि द्वापर के तीन तीन महारथियों का गुरु रहा … भीष्म, द्रोण और कर्ण और ये सबके सब अधर्म के पक्ष से लड़े।
इसके बाद के अवतार राम का कहना हीं क्या । इनके बारे में जिसने भी लिखा महाकवि कहलाया। पर ये भी बेवज़ह धर्मस्थापना के चक्कर में नहीं पड़े पर सारे मानवीय धर्मों का पालन कर मर्यादा पुरिषोत्तम बन गये। अगर नारी ने अपनी मर्यादा नहीं तोड़ी होती तो शायद इनका रावण से युद्ध नहीं होता। ताड़का, शूर्पनखा साथ हीं सीता ने अगर लौकिक मर्यादा नहीं तोड़ी होती तो कभी भी राम रावण युद्ध संभव हीं होता। यहाँ पर अधर्म के ऊपर धर्म की जीत अनायास निजी दुश्मनी के निपटारे के दौरान होगई। राम ने कोई सोची समझी कोशिश नहीं की । पर अगर मनुष्य को कभी आदर्श चरित्र की खोज करनी हो तो राम को देखा जाये।
पर श्री कृष्ण … जय हो। एकमात्र अवतार जिसका लक्ष्य पहले से निर्धारित था ” परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम् ” और मजे की बात दुश्मनी किसी से नहीं। पैदा होते हीं पूतना से सामना । एक राक्षसी को परब्रह्म ने माँ की तरह अपना दूध पिलाने का अवसर भी दिया और मोक्ष भी। किसी भी माइथोलॉजी में क्या सर्वोच्च चेतना ने अपने ह्त्यारे को ऐसी पदवी दी है? इस्लाम आज तक शैतान को पत्थर मार रहा है और कई अकीदतमन्द उन पत्थरों की चपेट में आ रहे हैं, जरथुस्त्र के अनुयायी शायद आज अहुर्मज्दा और अहिर्मान की लड़ाई से दो चार हो रहे हैं , बुद्ध स्वयं भी मार ( कामदेव ) की तपस्याभंग की कोशिश से इनकार नहीं कर पाते जबकि उनके निष्कर्षों में दुःख , दुःख का कारण और उसका निदान हीं रहा है पर आज तक बौद्ध धर्म दलाई लामा भले हीं बना पाया हो पर एक दलाई लामी बनाने में उसकी फूँक निकलती है।
परन्तु विष्णु के इस प्रतिरूप का लक्ष्य पूरी तरह स्पष्ट था —धर्म की स्थापना … अगर धर्म का कोई भाग धर्म की स्थापना में बाधक हो तो मिटा दिया जाये धर्म के उस हिस्से को । जन्म लेते हीं दानवों का संहार पर उसी का जो उन्हें मारने आये उस समय भले हीं शरीर बचपन था पर लक्ष्य पूर्ति की राह में कोई बचपना नहीं।
ब्रज में रहते हुए नन्द से ऊँची नाक वाले वृषभानु की पुत्री से प्रेम साथ साथ में समस्त गोपियों के साथ रास पर विवाह किसी से नहीं। एक अनोखा ज्ञान कि अगर आपको समाज की वर्जनाएँ खंडित करनी है तो आत्मनिर्भर बनना है। पुत्र कृष्ण या गोपालक कृष्ण का रास संभव है , राधा संग अन्तरंगता भी पर वर्ण विरुद्ध विवाह सिर्फ़ द्वारिकाधीश ठाकुर हीं कर सकते हैं । एक भी विवाह वर्णाश्रम नियमों के अनुकूल नहीं , रुक्मिणी से अपहरण विवाह , सूर्यपुत्री कालिन्दी से उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर दूसरा विवाह, मित्रवृन्दा ( ३ ), सत्या ( ४) , रोहिणी (६) और लक्ष्मणा (८ ) को स्वयंबर में प्राप्त किया तथा जाम्बवती ( ५ ) को जाम्बवन्त ने अर्पित किया स्यमन्तक मणि प्रकरण में और सत्यभामा (७) को उसके पिता सत्राजित ने राजनैतिक संबन्ध मधुर बनाने के लिये विवाह करवाया, ये आखिरी शादी हीं सामाजिक मान्यता प्राप्त थी। पर जब नारी सम्मान की बात आई तो नरकासुर के यहाँ बन्दी बनाई गई १६१०० स्त्रियों से मात्र इसलिये विधिवत विवाह किया क्योंकि उनके पिता, पति या भाई उन अपहृताओं को ससम्मान स्वीकार नहीं करते।
( वैसे कुछ स्थानों पर उल्लेख है कि १६१०० लगभग वेद की जनोपयोगी ऋचाओं की संख्या है जो भक्ति से संबन्धित हैं। चारों वेदों में लगभग १००००० एक लाख ऋचायें है जिनमें अस्सी हजार यज्ञ संबन्धित है और चार हजार परा शक्तियों से जबकि १६००० के लगभग ऋचायें भक्ति आधारित हैं … मतलब ऋत्विकों ने इन भक्ति संबन्धी ऋचाओं को उचित सम्मान नहीं दिया उन्हें श्री कृष्ण ने अपना लिया )
धर्म स्थापना बिना अस्त्र संचालन किये महायुद्ध का अभिन्न भाग बना जा सकता है और लक्ष्य पाया जा सकता है । धर्म की स्थापना के अस्त्य के प्रयोग से भी उसे गुरेज़ नहीं था । वह सत्यवादी से भी कहलवा सकता था ” अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा ” बस इतना संकेत कि धर्म स्थापना में अगर असत्य भी योगदान दे तो स्वीकार करें। नीति का त्याग भी करना पड़े परअधर्म के पक्ष का पलड़ा भारी नहीं होना चाहिये । भीष्म का शिखण्डी से सामना करवा कर ये जता देना कि अधर्म के पक्ष के पौरुष से धर्म के पक्ष का नपुंसकत्व भी अजेय है…. द्रोण का अस्त्र त्याग करवाना, निहत्थे कर्ण पर अर्जुन से बाण वर्षा करवाना और गदा युद्ध में दुर्योधन की जंघा पर प्रहार आदि कुछ नमूने हैं जो बताते हैं कि कृष्ण का यह मानना थाकि सत्य और धर्म के तत्व यदि धर्मस्थापना में बाधक बनें तो उन्हें मिटाना आवश्यक है।
राक्षसी प्रवृत्ति का नाश अनिवार्य है चाहे वह घटोत्कच हो , बर्बरीक , अलम्बुष या द्विविद या कहें तो पूरी यदुवंशी सेना। सबका विनाश अनिवार्य है। इसके लिये गान्धारी का शाप भी स्वीकारा और दुर्वासा का भी।
अपनी मृत्यु के बाद अर्जुन को भी अपनी धनुर्विद्या की औकात दिखला दी जब भीलों ने अर्जुन के निगरानी में संरक्षिता गोपियों को लूट लिया।
कृष्ण ने सामान्य नर से लेकर परब्रह्म तक की स्थिति को सहज प्रदर्शित किया। धृतराष्ट्र को दो बार वासुदेव के विराट रूप का सान्निध्य मिला पर ज्ञान नहीं । कृष्ण की इस लीला का तात्पर्य यही था कि ईश साक्षात्कार भी ज्ञान चक्षु नहीं खोल सकता यदि मन मोह ग्रस्त हो तो।
ज्ञानी उद्धव को प्रेम का रसपान कराना , अर्जुन द्वारा अपनी बहन सुभद्रा के अपहरण को स्वयं समर्थन देना, जरासंध के आगे रण भूमि को छोड़ कर भागना , विदुर पत्नी के हाथों केले का छिलका खाना, सुदामा के लिये मित्रता का आदर्श प्रस्तुत करना आदि कुछ ऐसे चरित्र हैं गोपाल के कि इनपर अविरल कथा वाचन चल सकता है पर एक घटना का जिक्र जरूरी है वह है उडुपी नरेश का जिन्होंने भाइयों के युद्ध को अपरिहार्य मानकर युद्ध ना लड़ने का विचार किया और श्री कृष्ण से सभी सैनिकों के लिये भोजन की व्यवस्था करने की अनुमति माँगी। लगभग ५० लाख सैनिकों के भोजन की व्यवस्था उस राजा ने की और किसी भी दिन भोजन व्यर्थ नहीं हुआ या शेष नहीं बचा । जब किसी ने पूछा कि आपको अगले दिन के जीवित सैनिकों की संख्या का अन्दाज़ा कैसे लगता था तो उन्होंने बताया कि मैं कॄष्ण के खाने की मात्रा देखता था और उसी से अगले दिन जीवित सैनिकों की संख्या का अनुमान लगाता था ।
वैसे कुल सैनिकों की संख्या के लिये यह जानना जरूरी है कि
एक अक्षौहिणी सेना में इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर रथ, इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर हाथी, एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास पैदल सैनिक, पैंसठ हजार छह सौ दस घोड़े होते हैं। अर्थात ( दो लाख अठारह हजार सात सौ ) यह सभी एक अक्षौहिणी सेना में होते हैं। संपूर्ण अठारह अक्षौहिणी सेना की संख्या जोड़े तो लगभग अनुमानित उन्नीस लाख अड़सठ हज़ार तीन सौ सैनिकों की संख्या होती है। हालांकि कई जगह उल्लेख है कि लगभग पैंतालिस लाख लोगों ने इस युद्ध में भाग लिया था। जिसमें सैनिक के अलावा सभी तरह के लोग शामिल थे। जैसे शिविर में व्यवस्था देखने वाले, रसोइया, अस्त्र शस्त्र भंडारण करने वाले लोग आदि।।
पूरे महाभारत में मात्र दो लोगों का ध्येय स्पष्ट था और वे हैं शकुनि और कृष्ण। एक सामान्य से चौपड़ के जुए को ना रोककर एक धर्मयुद्ध का आह्वान करने वाले कृष्ण बहुत याद आते हैं गीता के उद्गाता , प्रेम के प्रणेता, मुरली वादक और एक धर्म स्थापना के लिये कूटनीतिज्ञ के रूपमें ।
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूरमर्दनम्।
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।।
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