उद्धरण भाग एक से लिया हुआ : भाग एक पढ़ने के लिए लिंक क्लिक करें।

” गजनी से युद्ध करते वक़्त जितने लोग मैदान में लड़ रहे थे उससे ज्यादा तादाद में स्वार्थी, भीरु और धर्मच्युत भारतीय उस युद्ध के फैसले का इंतज़ार कर रहे थे कि अगला बादशाह कौन होगा, लेकिन हिन्दू समाज कभी राजा के साथ लड़ने को उद्यत नहीं हुआ। जो राजा है वो लड़े । चाहे हमारे मंदिर तोड़े जाएं, देवताओं का अपमान हो, हमारे घर जला दिए जाएं, हमारे बच्चों को मार दिया जाये, स्त्रियों का मान-मर्दन हो, उनकी नीलामी हो, भूखे भेड़ियों के हाथों सरे बाजार बेच दिया जाये लेकिन हम बस मूकदर्शक बन कर देखेंगे, और गुलाम होते ही दासता पूर्ण जीवन स्वीकार लेंगे। धिम्मी कहे जाएंगे। जजिया चुका देंगे। नील की खेती कर लेंगे। अपने देशवासियों पर जलियांवाला, चौरा चौरी में गोलियां चला देंगे, देश अलग करवा लेंगे, इलाके पर इलाके छोड़ते जायेंगे, पलायन कर जायेंगे, फिर से दुसरे इलाकों की तलाश में ।”

और जैसे ही हमारा जीवन सामान्य हो जायेगा, हम पुनः संगठित होने की नहीं सोंचेगे, बल्कि हम फिर से व्यापर व् प्रजनन में उन्मत हो जायेंगे। श्वान की भांति जीवित रह जाने के लिए स्वयं को भाग्यशाली और लड़ के मरने वालों को मूर्ख कहेंगे। जरा सा धन कमा लेने पर फिर से नाक ऊंची करके सेठ बन जाएंगें, धर्म-कर्म और अपने सामाजिक कर्तव्यों से विमुख हो पूरी तरह भोगी बनकर, एक शूकर की भांति भोजन-प्रजनन-शौंच की प्रक्रिया दोहराते रहेंगे जीवनपर्यन्त।
अगर कभी ईश्वर को याद करेंगे भी तो सिर्फ मृत्यु-दुःख-रोगों से त्रस्त और भयभीत होकर और अगर फिर भी परिस्थिति हमारे अनुकूल न हों तो उसी भगवान से रुष्ट होकर उसे बुरा भला भी कहेंगे |

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