कभी यह बात बहुत व्यथित करती है कि भाषा का संबंध आमतौर पर रोजगार से जोड़ दिया जाता है जबकि मेरा मानना है कि भाषा सिर्फ भाण्डों को रोजगार देती है । अगर भाषा से रोजगार मिलता तो करोड़ों गुमनाम साहित्यकार भूखे नहीं मरते। लेखकों का बेहतरीन उपन्यास भी मस्तराम की किताब के सामने बिक्री के मामले में बौना है । भाषा ने चापलूसी को जन्म दिया है और इसी चापलूसी से रोजगार भी बनता है । इसीलिए यह सत्य कथन है कि भाषा सिर्फ़ भाण्डों को रोजगार देती है। अगर आप आज के साहित्यिक परिदृश्य को देखें तो पाएँगे कि अंग्रेजी के अखबार और पत्र पत्रिकाएं चाहे कम बिकती हैं परंतु अगर उसमें आपका कोई आलेख छपा तो उसके लिए पारितोषिक राशि आपको जरूर मिलेगी परंतु यही चीज अगर हिंदी के नामचीन अखबारों में भी छपी तो आपको कोई आर्थिक लाभ होगा इसकी आशा न्यूनतम है ।
दरअसल वामपंथ भविष्य का भांण्डपना है । ये विचारधारा असंतोष के परों से परवाज़ करती है और मानवीय जीवन में आने वाले संतोष को कायरता की निशानी बताती है। अगर आपके आलेख वामपंथियों को भाते हैं तो आप यकीन मानिए कि आप मंचों पर सज्जित होंगे नामचीन पत्रिकाओं में छपेंगे और नामी साहित्यकार कहलायेंगे । अगर आप पत्रकार हैं ,चित्रकार हैं कथाकार है या कवि हैं और देवी देवताओं का चित्र बनाते हैं, उन पर कथा लिखते हैं या कविता रचते हैं तो यकीन मानिए कि सनातन की संवाहिका पत्र पत्रिकाएं भी अगर आप की कृति छापेंगी तो एक कौड़ी भी नहीं देंगी परंतु इसी में यदि वामपंथ की नजरे इनायत हो जाए और आपने एक वस्त्रहीन डूडलिंग बना कर उसका नाम सरस्वती रख दिया तो वे आड़ी टेढ़ी खींची हुई लकीरें चित्रकारिता का प्रतिमान बन जाएंगी और आप नामचीन चित्रकार बन जाएंगे । मैंने कई लेखकों को देखा है जिनके पत्र-पत्रिकाओं में आलेख छपते रहे परंतु उन्हें उसे छपने की सूचना तक नहीं मिलती , धन की तो बात हीं बेमानी है । बस अगर वह लेखक चाहे तो अपने आलेखीय पत्रिकाओं कविताओं के पन्नों को जलाकर चाय बना सकता है परंतु उस प्रकाशन के बदले उसे इतने पैसे भी नहीं मिल सकते कि वे उससे अच्छा जहर भी खरीद रखा सकें ।
लेखक का परिचय कुछ पलों के लिए भीष्म साहनी से हुआ था और उन्होंने ये कबूल किया था कि उनकी पहली किताब जो लगभग एक हजार प्रति छपी थी उसकी आधी प्रतियाँ आज भी उन्हीं के लाइब्रेरी की शोभा बढ़ा रही हैं । कई मूर्धन्य लेखकों को मैंने अपने पैसों से अपने लेखन को छपवाते देखा है परंतु उनके लेखन को पाठकों से ज्यादा दीमकों ने सम्मान दिया है । पर उन सब की एक बात तो समान जरूर है कि उन्होंने भांण्डगिरी नहीं की, उन्होंने वामपंथ के आगे अपनी साहित्यिक प्रतिभा का चीरहरण नहीं होने दिया और इसका परिणाम है कि वह अपनी छपी किताबों के पन्नों पर चाहें तो खुद जलेबियां खा सकते हैं ।
ऐसा नहीं है कि पाठक समर्थ नहीं है। किताबों की खुशबू आज भी मदहोश करती हैं परंतु आज हिंदी का पाठक मुफ्त की पीडीएफ पाकर मस्त रहता है और पढ़ता नहीं है । खरीदता इसीलिए नहीं है उसके पास पीडीएफ है और पड़ता इसलिए नहीं है कि पीडीएफ पढ़ना एक कठोर विवशता बन जाती है । भीष्म साहनी ने कहा था कि कोई भी पिता अपने पुत्र को या अपनी पुत्री को साहित्यकार बनाना नहीं चाहता, भले ही साहित्य का शिक्षक या प्राध्यापक बनने भी दे। और जब भावजीवी लेखकों और लेखिकाओं का यह हाल रहेगा तो लेखन का स्तर कैसे उठेगा ।
लेखन को आजीविका के दायरे में बांधना तो लगभग वैसा ही जैसे सर्कस में शेर का कुर्सी पर बैठ जाना या किसी परिंदे का पिस्टल का ट्रिगर दबाना या हाथी का क्रिकेट खेलना। कभी भी सर्कस में शेर को दहाड़ने के लिए मुफ्त की बोटियाँ नहीं मिलती या आसमान में परिन्दों के शानदार परवाज की कीमत सर्कस वाले नहीं जानते । गुलामी हीं किसी और की नजरों में जिंदगी को कीमती बनाती है। साहित्य सर्जन जिंदगी है और जब किसी लेखक की साहित्य सर्जना किसी विचारधारा की चापलूसी करना शुरू कर देगी अपनी आजादी तो खो देगी पर दुनिया की नजरों में अपनी कीमत बढ़ा लेगी।
अगर साहित्यकारों कवियों लेखकों को साहित्य सर्जना करनी है तो उन्हें अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए एक हुनर सीखना पड़ेगा तभी वे अपनी रचना को बेलाग, बेधड़क और बिंदास रख पाएंगे। दरबारी कलम से राग दरबारी नहीं लिखी जाती। सनद रहे कि कामायनी तभी लिखी गई जब सुँघनी साहू की दुकान थी।
शायर मुनव्वर राणा के एक शेर से इस लेख का समापन होना चाहिए कि
कलम सोने के रखने में बुराई तो नहीं लेकिन
अगर तहरीर भी निकले तो दरबारी निकलती है।।
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