समष्टि में व्याप्त हूँ,
व्यष्टि का आधार हूँ,
गूंजता हूँ अनंतकाल से,
मैं ओमकार हूँ!

प्रणव में हूँ,
अनहद नाद,
सामवेद का उद्गीथ हूँ,
गीता का एकाक्षर ब्रह्म अंतर्नाद!

स्फुरित हूँ उपनिषदों की वाणी में,
परब्रह्म का अभिन्न तत्त्व,
योग साधना का वह मार्ग,
जो है अप्रत्यक्ष निराकार!

ब्रह्म का विस्तार,
शक्ति का संचार,
अव्यक्त हूँ निर्विकल्प,
नैसर्गिक चमत्कार!

है उसका जीवन उद्धार,
जिसे ज्ञात है मेरा समस्त सार,
ओमकार, ओमकार!
-निधि मिश्रा

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