कुछ दिन पहले, पिंजरा तोड़ गिरोह नामक समूह के काफी स्पष्ट तौर पर दिल्ली दंगों में भागीदारी, और उनके देशविरोधी गतिविधियों से जुड़े तार वाले आरोप लगने व सबूतों के मिलने पर उनकी दो महिला कार्यकताओं को दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया था। आमतौर पर सोशल मीडिया और न्यूज़ के माध्यम से जो कुछ भी मेनस्ट्रीम में होता है वह नज़रों में आ ही जाता है। पर इस गिरोह की खबर की खासियत यह थी कि इसे भी अंकित शर्मा की हत्या वाली खबर की तरह, नीचे के फुटनोट्स या ज़्यादा से ज़्यादा 3-4 मिनट वाली हैडलाइन में निपटा दिया गया था। तबरेज़ अंसारी जितना ध्यान और नफरत जो आकर्षित नहीं करती थी यह खबर। और तो और, स्कूलों से मुस्लिम बच्चों को हाफ डे में निकाल लिये जाने वाला सच पर तो एक आधे चैनल अलावा किसी ने गौर फरमाना तक ज़रूरी नहीं समझा। उस वक़्त समझ ही नहीं आया था कि कैसी प्रतिक्रिया देनी चाहिए। मन में बेहिसाब खौफ था और दिमाग एक बेबसी की जंजीर में जकड़ा हुआ। यह क्या हो रहा है हमारे यूथ के साथ, किस दिशा में जा रहा है देश का भविष्य? क्रांति के नाम पर भोलेभाले बच्चों को ऐसे दलदल में झोंका जा रहा है जहां से वापस लौट पाना नामुमकिन है। किसे पता है, शायद यहां लव जिहाद, देह व्यापार व वेश्यावृत्ति के भी तार जुड़ते हों। क्योंकि अंत में हर विचारधारा को दरकिनार कर के हम सब हैं काफ़िर ही।

निष्पक्षता के नाम पर असंवेदनशील और एक खास विचारधारा व समूह की पैरवी करने वाले, व खुद को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले काफी समाचार पोर्टल इंटरनेट पर फैले हैं। यह एक खास झूठ को इतनी तल्लीनता से हर जगह घिस घिस कर इतना आम बना देते हैं, कि दूसरा पहलू कोई सोचने की जुर्रत भी न करे। इनकी फैलाई कोई एक खास व सिरे से गलत रिवायत पढ़ पढ़ कर, घटना का दूसरा पक्ष जानने के लिए कुछ खास वेबसाइट पर जाना ही पड़ता है जो काम ही इतनी बुरी तरह फैलाये झूठ को तोड़ने के लिए करते हैं। चूंकि यह खबर खास दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़ी थी, जहां से मेरी स्नातिकी हुई है, और वहीं से जुड़े छात्रों को ध्यान में रख जनता में फैल रही थी, मैंने इसे काफी तल्लीनता से पढ़ा। पिंजरा तोड़ की एक्टिविटीज़ को मैंने अपनी आंखों से काफी करीब से देखा है क्योंकि इन्होंने कई बार ग्राउंड लेवल सपोर्ट के लिए हमारे कॉलेज में नुक्कड़ नाटक किये हैं, जो कि दिल्ली विश्वविद्यालय का आम कल्चर है। स्क्रिप्ट, शब्दावली, चेहरों के हाव भाव का जो मनोरम समागम बना कर यह क्रांति की चाशनी में डुबो कर वामपंथी एजेंडा यूथ के आगे परोसते हैं, शायद ही कोई बच पाए। खासकर यह उम्र जब विद्यार्थी स्कूल के गैर राजनीतिक माहौल से निकले कच्ची मिट्टी के घड़े होते हैं। बस, जकड़ने को तैयार रहते हैं यह लोग। क्योंकि उन्हें बरगलाना कितना आसान होता है यह मैंने खुद एक्सपीरिएंस किया है जब मुझ पर भी कोशिश हुई थी।  गनीमत है, कि मुझे मेरे परिवार की की राष्ट्रवादी सोच और 2014 के भाजपा के चुनावी कैंपेन के कारण, बिना उनके चंगुल में फंसे उनका मॉड्यूल समझ आता गया।

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एक और गहरी बात जो पढ़ने में आई, कि जो विद्यार्थी इनका समर्थन नहीं करते उन्हें हीन महसूस करवाना इनका प्राइम टास्क होता है, शत प्रतिशत सही है। कई जन खुद को गैर वामपंथी नहीं, परन्तु दक्षिणपंथी कहलवाना ज़्यादा पसन्द करते हैं बिना किसी क्षमाशील रवैये के। आखिर अपनी एक व्यक्तिगत विचारधारा रखना, एक खास मत और राय रखना, हर ज्वलंत मुद्दे पर अपनी समझ के हिसाब से सलाह रखने की इजाज़त उन्हें हमारा संविधान देता है। इन छात्रों पर कई बार मज़ाक का चोला ओढ़ कर कटाक्ष और उपहास होता है। कभी तथ्य और तर्क न होंने पर तो कभी कभी इसलिए भी कि वह हिंदी क्यों इस्तेमाल करते हैं या इसको क्यों प्राथमिकता देते हैं अंग्रेज़ी के ऊपर। तो कभी इसलिए क्योंकि उनके राजनीतिक विचार व समझ, हिन्दू विरोध और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ईशनिंदा का समर्थन नहीं करते|

एक वाकया याद आता है, दिल्ली विश्वविद्यालय की एक प्रोफेसर जो एक प्रख्यात अंग्रेजी अखबार के लिए अक्सर लिखती हैं, व कट्टर वामपंथी हैं, उनका एक शिक्षिका के तौर पर मेरे एक जानकर के साथ, एक विद्यार्थी के साथ कैसा रवैया है। वो उस छात्रा की विचाधारा से परिचित नहीं हैं, पर लेक्चर्स के दौरान चंद सवाल जो जो मेरी मित्र ने अपनी शिक्षिका से पूछे थे, उस अखबार की कॉलमिस्ट से नहीं, उनसे चोटिल हो कर वो अपनी छात्रा आजतक भी 5-6 मार्क्स में निपटा देती हैं जबकि जवाब साफ तौर पर एवरेज नहीं बल्कि 8-9 वाली टॉप कैटेगरी के होते हैं। खैर, सहिष्णुता, अधिकारों, व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वामी कौम किस तरह अपने घर की रद्दी में बेच कर उससे लाल झंडा खरीद, लोकतंत्र बचाने निकलती है, हम सभी जानते हैं।

बीते फरवरी, दिल्ली के एक नामी कॉलेज में एक सेमिनार हुआ था जिसमें दिल्ली की जनता का चुनाव को ले कर क्या मूड है इस पर चर्चा होनी थी। उसी में एक विद्यार्थी ने खड़े हो कर यह बोल दिया कि जो जिससे लेता है, वो उसी को लौटाता है। कांग्रेस ने देश से लिया, वो उसको लौटाएगी। और 2002 के खूनी दरिंदे ने अपने मोबाइल कम्पनी के दोस्त से लिया वो उसको लौटाएगा। आप यकीन करेंगे? पूरा हॉल, हँसी व ठहाकों से गूंज उठा, और वही शिक्षिका ने तालियां बजा कर उस छात्र का उत्साहवर्धन कर रही थी। किसी को, एक क्षण के लिए भी नहीं लगा कि अभी अभी वहां, माननीय न्यायालय द्वारा बेकसूर घोषित किये जाने के बावजूद एक व्यक्ति को खूनी की संज्ञा दी गयी। वो भी कौन, जो व्यक्ति एक संवैधानिक पद पर कार्यरत है व देश का प्रतिनिधित्व करता है। ज़रा भी इज़्ज़त नहीं? मान नहीं? सम्मान नहीं? उस व्यक्ति विशेष के लिए नहीं तो अपने प्रधानमंत्री के लिए ही सही। दुखद यह है कि एक भी टीचर और आर्गेनाइजर ने आपत्ति नहीं की। उस क्षण से ज़्यादा लाचार मैंने खुद को अपने जीवन में कभी नहीं पाया था।  क्योंकि बोलने की कोशिश पर मुझे शांतिपूर्वक तरीके से पीछे के दरवाजे से बाहर निकाल दिया गया था। और मेरे कंधों पर निकली थी अभी अभी शांतिपूर्ण तरीके से लिंच हुई मेरी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।

यही शिक्षिका कॉलेज में एक सोसाइटी चलातीं हैं जो नारीवाद के नाम पर बूंद बूंद विषैला कम्युनिज्म और एन्टी-स्टेट प्रोपगैंडा यूथ में भरने का काम कर रही है। इनकी अध्यक्ष हैं कॉलेज की एक कश्मीरी मुस्लिम लड़की जो चौड़ाई में प्रधानमंत्री और सौ करोड़ लोगों द्वारा पालन किये जाने वाले धर्म को आये दिन अपमानित करना और तार तार करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती हैं किन्तु सिर से काला कपड़ा हटाने का अधिकार हरे कपड़े में काबा पर छोड़ आईं हैं शायद। इन्हीं लोगों ने कॉलेज में नागरिकता कानून के विरोध प्रदर्शन के लिए एक रैली प्लान की थी जिसे कॉलेज की अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद इकाई ने बड़े जतन से रुकवाया था। नतीजतन जिसके, इन्होंने विद्यार्थी परिषद से जुड़े एक प्रोफेसर को भी सेक्सशुअल मोलेस्टेशन के झूठे केस में फसाना चाहा था पर पर्दाफाश हो गया।

देखा जाए तो हम अभी येलो अलर्ट पर चल रहे हैं, जो रेड में बदलेगा 2024 चुनाव के बाद। एक ऐसे भयानक तंत्र के जो खुद को दिन पर मजबूत कर रहा है देश में एक ‘खूनी क्रांति’ लाने कामना ले कर, जो शायद आगे जा कर शरजील इमाम जैसे लोगों के गज़वा-ए-हिन्द के सपने को भी साकार करने में मदद करे। यदि सरकार अभी भी नहीं जागी, और मासूम विद्यार्थी व छात्र राजनीति का चोला ओढ़ कर पनपते ज़हर को नहीं रोका गया, तो वो दिन दूर नहीं जब हमें जेएनयू का ‘भारत के टुकड़े’ करने का ख्याब, सच में तब्दील होता दिखे। साथ देने के लिए हिन्दू विरोधी व हर पल सरकार की निंदा करने के नाम पर राष्ट्रवाद के खिलाफ जाने वाले, एक खास धर्म का तुष्टिकरण करने वाले अनेकों अनेक पत्रकार, लेखक व बुद्धिजीवी देशद्रोही अवसरवादी फ्रंट फुट पर हमेशा तैनात हैं ही, चीन और खाड़ी देशों से मिल रहे दाना पानी डकार लेने के बाद।

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