उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री गोरक्षपीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ जी मूलत: शैव नाथ संप्रदायनुयायी है जिसके प्रणेता आदिनाथ भगवान शिव है। योग, ध्यान आध्यात्म के इतर नाथ सिद्ध रसशास्त्र के भी सिद्ध थे। आइए देखते हैं सिद्ध मत का आयुर्वेदीय रसशास्त्र से क्या संबंध है।

११ वी शताब्दी में भारत आया अलबरूनी ने अपने लेख में सिद्धों की कीमियागिरी का उल्लेख किया है, उसने लिखा है की रसविद्या और रसायन विद्या में अंतर है तथा रसविद्या ” इंद्रजाल” से भिन्न है ।उसने विक्रमादित्य व्यादिकी, राजा वल्लभ और रंक फल विक्रेता, धारानगरी के राज महल में चांदी के टुकड़े की कहानी देकर सोना-चांदी बनाने का उल्लेख किया है।(अलबरूनी का भारत, भाग २ पृष्ठ ११०)

रसविद्या में खनिज प्राणीज द्रव्य उपयोग में लाए जाते थे। उर्ध्वपतन ( Sublimation), निक्षेपीकरण (Calcination), विश्लेषण, वसा-स्नेह का पतला करना (Waxing of Tole) इत्यादि प्रक्रिया का वर्णन है। ९-१० वी शताब्दी में लिखे गए “सिद्धयोग” और “चक्रदत्त” में रसविद्या का एव तत्संबंधी मंत्र तंत्र का उल्लेख मिलता है। चक्रदत्त में स्वर्ण आदि धातुओं के शोधन मरण की विधि बतलाई गई है परंतु सामान्यतः लौह का उपयोग उसका पत्तर बनाकर उसको प्रतप्त कर काञ्ची आदि द्रव्य में बारंबार बुझाकर , कूटकर वस्त्रगलित सूक्ष्म चूर्ण करके प्रयोग करना बतलाया गया है।

पद्मावत (१३वी शताब्दी) में जायसी ने सिद्ध योगियों के द्वारा सोना बनाने तथा अन्य रसायन क्रियाओं का उल्लेख बहुत स्पष्ट किया है ,इसमें सोना साफ करने की सलोनी क्रिया का भी उल्लेख मिलता है। अत: उपरोक्त प्रमाणों के अनुसार स्पष्ट होता है की रसविद्या का रूप ९ वी शताब्दी में सिद्धों से प्रचलित हुआ जो १६ वी शताब्दी तक पूर्ण उन्नत अवस्था में था।

एकौऽसौ रसराजश्शरीरमजरामरणञ्च कुरुते” अर्थात् अंकेला पारद ही सिद्ध होकर शरीर को अजर अमर कर देता है । पारद का संबंध शिव तथा अभ्रक का संबंध माता पार्वती से बताया गया है इनके संयोग से सृष्टि जन्म सिद्धि मिलती हैं , इससे योगी शरीर को दिव्य तनु बनाता है। पारद सिद्ध होने के बाद इसका उपयोग देह सिद्धि के रूप में होता है। ये सिद्धियां प्राचीन सिद्धों को प्राप्त थी जो प्राय: नाथ संप्रदाय, कापालिक, औघड़, वामपंथी, वज्रयानी बौद्ध तथा कौलाचार आदि से संबद्ध थे। इसके साथ ही एक नया मत “रसेश्वर मत ” सिद्धों द्वारा प्रदूर्भूत हुआ।

रसेश्वरदर्शन में कहा गया है ” न च रसशास्त्रं केवलं धातुवादार्थमेवेति मन्तव्यम्, किन्तु देहवेधद्वारा मुक्तेरेव परमप्रयोजनत्वात् ” अर्थात रसशास्त्र का विकाश धातुवाद के लिए नही हुआ है अपितु शरीर को स्थिर करके मुक्ति प्राप्त करना ही इसका परम प्रयोजन है।यह शास्त्र भी शिव द्वारा उपदिष्ट है। “रसार्णव” का उपदेश भगवान शिव ने माता पार्वती को दिया था।

रसशास्त्र के बहुत आचार्य हुए है ,प्राय: सिद्धों को ३ भेद करके निरूपित किया जाता है एक महासिद्ध (हठयोग, कौलाचर, वज्रयाणी बौद्ध,) दूसरे नाथ सिद्ध (नाथ परंपरा संबद्ध) और तीसरे है रससिद्ध। इनके सूची में लगभग बहुत से सिद्धों के नाम एक जैसे ही है, अत: उनको इन सभी से संबद्ध मानने में कोई हानि नहीं है। आइए रससिद्ध( प्राय: रसेश्वर मत के शैवयोगी) कौन हुए है इन पर प्रकाश डालते हैं। रस सिद्धों को ४ वर्गो में विभक्त किया गया है-

१) दैवसिद्ध- महेश, महेश्वर,शंकर, शिव , उमा,नंदी,भैरव, कार्तिकेय,वीरभद्र,वृहस्पति,चंद्रमा, ब्रह्मा तथा विष्णु आदि।

२) दैत्यसिद्ध – शुक्राचार्य, बलि, लंकेश और बाणासुर।

३) मुनिसिद्ध- अगस्त्य,कपिल,बालकिल्य,भालुकी,मांडव्य, व्याडि, तथा दत्तात्रेय आदि।

४. मानवसिद्ध- नागार्जुन, भैरवानंद, भास्कर, गोरक्षनाथ, मत्स्येंद्रनाथ, रत्नकोष, सुरानंद, कापालिक, काकचण्डीश्वर आदि कुल २७ सिद्ध रसरत्नसमुच्चय में कहे गए हैं।

ऐतिहासिक दृष्टि से महायोगी महासिद्ध गोरक्षनाथ रसविद्या के आचार्य है, इसमें कोई दो मत नहीं है।

श्री गुरु गोरक्षनाथो विजयतेतराम्

स्रोत:

रसशास्त्र एवं उसका ऐतिहासिक विवेचन ,डा. चन्द्रभूषण झा

नाथ सम्प्रदाय, हजारी प्रसाद द्विवेदी

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