राजीव गाँधी, देश के अब तक के सबसे ख़राब प्रधानमंत्री! मैंने ख़राब इसलिए कहा क्योंकि इनके कार्यकाल में देश ने सत्ता के दुरुपयोग का वह दौर देखा जो कभी किसी और लोकतांत्रिक देश ने नहीं देखा होगा। एक ऐसा प्रधानमंत्री जो देश की जमीन से बुरी तरह से कटा हुआ था और देश और देशवासियों की समस्याओं से पूरी तरह अनजान था. राजीव गाँधी ने कई ऐसे अपराध किये हैं जिनकी भरपाई करने में देश ने कई दशक लगाए। कांग्रेस देश का सबसे पुराना राजनैतिक दल है, इसमें कोई दो राय नहीं है कि स्वतन्त्रता के बाद के समय में कांग्रेस देशवासियों को यह विश्वास दिलाने में सफल रही थी कि अंग्रेजी सत्ता के जाने के पीछे जवाहरलाल और मोहनदास को ही श्रेय दिया जाना चाहिए। इस कारण स्वाधीनता के पश्चात तीन दशकों तक चुनावी राजनीति में कांग्रेस को कभी कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा था। जवाहरलाल ने निष्कंटक राज किया, फिर इंदिरा गाँधी ने सत्ता को किसी राजशाही के समान चलाया और इंदिरा की हत्या के बाद प्रचंड बहुमत पर सवार राजीव ने उसी राजशाही तेवर को बरकरार रखते हुए सत्ता का आनंद लिया।
मित्रों, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में कभी भी आतंरिक लोकतंत्र जैसी कोई चीज नहीं रही है, यदि कांग्रेस में आतंरिक लोकतंत्र पर कोई विश्वास होता तो नेताजी सुभाष बोस को कांग्रेस से निष्कासन नहीं झेलना पड़ता, और भारतीय अधिराज्य के प्रधानमंत्री पद पर सरदार पटेल बैठते। कांग्रेस का इतिहास बताता है कि गैर नेहरू/गाँधी अध्यक्षों के प्रति दल के नेताओं की निष्ठा नहीं रहती और इसलिए जब जब कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में कोई भी अस्थिरता हुई है तब तब कांग्रेस का विभाजन हुआ है। अब कांग्रेस वर्किंग कमेटी में चुने गए अध्यक्ष सीताराम केसरी की दुर्दशा कोई भूल सकता है? या देश को वित्तीय संकट से निकालने वाले नरसिम्हा राव जब मरे तो सोनिया गांधी ने उनके पार्थिव शव को कांग्रेस मुख्यालय तक में रखने से मना कर दिया था। यहाँ तक कि कांग्रेस शासित राज्य में अंत्येष्टि की दुर्दशा और अधजले शव को जब ज़ी न्यूज़ ने खबर में दिखाया तब आनन फानन में मिटटी के तेल छिड़क कर उनकी अंत्येष्टि की गयी थी! बहरहाल बात राजीव गाँधी पर ही केंद्रित रखते हैं, सो जब इंदिरा गाँधी की हत्या हुई तब राजनैतिक तौर पर अपरिपक्व और नासमझ पायलट को देश का प्रधानमंत्री सिर्फ उसके सरनेम के कारण बना दिया जाना लोकतान्त्रिक देश के लिए बेहद निराशाजनक घटना थी, हाँ उस समय के राजनैतिक स्थिति को जानते हुए कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का यह फैसला इसलिए लिया गया क्योंकि कांग्रेस के बुद्धिजीवी इस बात को जानते थे कि दल के नेता किसी गैर नेहरू/गाँधी की अध्यक्षता में निष्ठावान नहीं रहते और ऐसा होने पर कांग्रेस विभाजित होकर कई टुकड़ों में बँट जाती। बहरहाल कांग्रेस के आतंरिक लोकतंत्र की असफलता और कांग्रेसियों की इस आदत ने देश को राजीव गाँधी जैसा प्रधानमंत्री दिया।
राजीव गाँधी की अकर्मण्यता और राजनीतिक नासमझी के कारण कांग्रेस कभी भी दुबारा केंद्र में बहुमत नहीं पा सकी और उसने उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में अपना जनाधार भी बुरी तरह से खो दिया। जिस प्रचंड बहुमत पर सवार होकर राजीव दिल्ली पहुँचे थे वैसा कभी दुबारा नहीं हुआ!
जब राजीव गाँधी प्रधानमन्त्री बने तो प्रथम एक वर्ष में सब कुछ ठीक होता दिखा, देश ने राजीव गाँधी को सुना, उनकी बातों में नयापन था, नए भारत के युवा चेहरे और कुछ कर दिखाने जैसी बात थी और इसी कारण देश में उन्हें व्यापक समर्थन भी मिला. वह जहाँ कहीं भी जाते वहाँ के लोगों की पारम्परिक वेशभूषा में उन लोगों से मिलते और जुड़ने का प्रयास करते थे। देश ही नहीं बल्कि अंतराष्ट्रीय मंचों पर भी युवा प्रधानमंत्री को सुना जाता था! लेकिन…. लेकिन अपने कार्यकाल के अंतिम ढाई सालों में राजीव गाँधी ने ऐसी गलतियाँ की जो देश के लिए बहुत कठिन साबित हुई।अपने प्रधानमंत्री की अकर्मण्यता और शीर्ष नेतृत्व के ख़राब निर्णयों के कारण नब्बे आते आते देश दिवालिया होने की कगार पर आ खड़ा हुआ था और देश के पास महज़ तीन हफ़्ते भर की नक़दी शेष थी! इस दौरान हमारा क़र्ज़ देश की कुल जीडीपी का बावन प्रतिशत था और हम कटोरा लिए विश्व में भीख माँग रहे थे कि कोई सस्ता क़र्ज़ दे दो ताकि हम पुराने क़र्ज़ की किश्तें चुका सकें! विश्व बैंक, आईएमएफ़ को सोना गिरवी रखकर पैसा जुटाने की क़वायद तक करनी पड़ी थी और जब वह सोना एयर लिफ़्ट कराने के लिए रिज़र्व बैंक से हवाई अड्डे आ रहा था तो वह गाड़ी भी पंचर हो गयी थी! मानो वह देश की इज्जत नीलाम होने से बचाने का कोई अंतिम उपाय सुझाने को कह रही हो…. कहने का मतलब यह कि ऐसी दुर्दशा और ज़िल्लत! आख़िर क्यों? अब जरा एक पल के लिए सोचिये कि यदि कांग्रेस में आतंरिक लोकतंत्र होता तो शायद किसी योग्य व्यक्ति को सन चौरासी में ही सत्ता मिल जाती और देश भयंकर आर्थिक संकटों से बच जाता। कल्पना कीजिये कि यदि नरसिम्हा राव उन्नीस सौ चौरासी में देश के प्रधानमंत्री बने होते तो क्या हम आर्थिक प्रगति की इस यात्रा में कम से कम दस साल आगे नहीं होते?
मित्रों, सन बानवे में हमारी अर्थव्यवस्था के खुलने के पहले भारत किसी तानाशाही वामपंथी देश के जैसा ही था! कहने के लिए लोकतंत्र था लेकिन दम्भ में भरी कांग्रेसी सरकारें किसी तंत्र को मानती नहीं थीं। उनके लिए न्यायालय के आदेश को पलट देना भी बाएँ हाथ का खेल था। अब शाहबानों के मामले में न्यायालय के ठीक फैसले के खिलाफ संसद में क़ानून बना कर चरमपंथियों को खुश कर वोटबैंक सिद्ध करने की लोमड़ चाल का आप क्या कहेंगे? जब देश भर में मंदिर आंदोलन को लेकर भाजपा सक्रिय हो रही थी तब उस ऊर्जा को राजीव भांप नहीं पाए थे, उन्हें समझ ही नहीं आया कि आखिर जिस संगठन से ऊर्जा लेकर इतना बड़ा आंदोलन हो रहा है यदि वह राजनैतिक तौर पर प्रतिद्वंदी बना तो कांग्रेस का क्या होगा? इसी संगठित हिन्दुओं की शक्ति के कारण आज की कांग्रेस अपने अस्तित्व को बचाने के लिए अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने को लेकर राजीव गाँधी को श्रेय दे रही है लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों किया था? राम जन्मभूमि आंदोलन की पृष्ठभूमि में हुए भागलपुर दंगे और उस दंगे को नियंत्रित कर पाने में असमर्थ राजीव गाँधी बिहार को सन नब्बे में ही कांग्रेस मुक्त करा गए थे!
उन्नीस सौ चौरासी में सिखों के नरसंहार को जस्टिफाई करते हुए “बड़ा पेड़ गिरना और धरती हिलना” बोल देने वाले व्यक्ति को भारत रत्न कैसे दिया जा सकता है? अब कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के अनैतिक सम्बन्धों को छिपाने के लिए अमेरिका में कैद आदिल शहरयार की कीमत पर भोपाल गैस कांड के मुख्य आरोपी को रातों रात देश से बाहर निकल जाने देने वाले राजीव गांधी को आप क्या कहेंगे? और कोई देश होता तो भोपाल के आरोपियों का बाकायदा ट्रायल करता, सजा देता लेकिन तानाशाही रवैये वाली कांग्रेस ऐसे किसी सामाजिक न्याय में विश्वास ही नहीं रखती।
श्रीलंका में शांति सेना का भेजा जाना, देश को आर्थिक संकटों में जकड कर खुद नौसेना के युद्ध पोत पर पारिवारिक छुट्टियाँ बिताना सिर्फ राजीव गांधी के लिए ही संभव था! यकीन मानिये कांग्रेस मुक्त भारत आंदोलन की नींव राजीव गाँधी ही रख गए थे, इनके गलत फैसलों, वोट बैंक और तुष्टिकरण की राजनीति के कारण ही कांग्रेस अपने आज की दुर्दशा वाली स्थिति में है!
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बढ़िया लिखे, देव बाबू।
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