कहते हैं आपके आलोचक ही आपके समर्थकों का भी निर्माण करतें हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसका जीता जागता उदाहरण है। मोदी, अलोचको और समर्थकों के बीच झूल रहा एक ऐसा नाम है जिसमे तटस्थता के लिए कोई जगह नही है। आप या तो मोदी के साथ होंगे या ख़िलाफ़। मसलन एक वह गुट जो मोदी का हर बात में समर्थन करतें है और दूसरे वह जो हर बात में विरोध करते हैं।

दरअसल ये स्थित ऐसे ही नही आ गयी कि एक मुख्यमंत्री जिसे मीडिया में बैठे, कांग्रेस इकोसिस्टम के सिपहसालारों ने 2002 गुजरात दंगों का न सिर्फ खलनायक बनाया बल्कि संभव हो पाता तो उसे 20 फिट नीचे जमीन में गाड़ देते। यद्यपि आजाद भारत का ये पहला दंगा नही था, जिसमे इतनी बड़ी तादाद में लोग मारे गए हो और न ही वास्तविक तौर पर आलोचना के केंद्र में मोदी थे। चूँकि केंद्र में भाजपा की सरकार थी और सरकार के मुखिया अटलबिहारी बाजपेयी थे जिनकी उदारता और सरलता के सामने भाजपा की तथाकथित कट्टर विचारधारा का लाभ कांग्रेस नही उठा पा रही थी, और इसी कारण मोदी के बहाने अटलबिहारी बाजपेयी को निशाना बनाने की कोशिश की गई।

भिन्न भिन्न प्रकार के सरकारी पुरस्कारों से सुशोभित पत्रकार राजदीप से लेकर करन थापर, विनोद दुआ, प्रणय रॉय, रविश पांडे, अजित अंजुम, विनोद कापड़ी जैसे लोगों की एक लंबी लिस्ट है, जिन्होंने कांग्रेस की वफादारी को साबित करने के लिए जिस तरह अंधे बनकर मोदी की आलोचना करनी शुरू की, उसने धीरे धीरे तटस्थ लोगों को भी मोदी के समर्थन में उतरने के लिए मजबूर कर दिया।

2004 में केंद्र से भाजपा की सरकार हट गई मग़र मोदी के आलोचकों ने मोदी के लिए गुजरात मे एक विशाल जनसमर्थन खड़ा कर दिया। जिसके बाद मोदी, गुजरात की राजनीति में एक ऐसा नाम बन गया जिसे मात देना किसी भी पक्ष या विपक्ष के नेता के लिए लगभग असंभव हो गया।

2013 में मोदी जैसे ही गुजरात से निकल कर देश की राजनीति में सक्रिय हूए, उनके आलोचक ज्यादा मुखर होने लगे और उनकी इसी मुखरता के कारण गुजरात के बाहर भी मोदी के लिए जनसमर्थन बढ़ने लगा। जनता का वह हिस्सा जिन्हें राजनीति में कुछ खास दिलचस्पी नही हुआ करती, वह भी अपनी तटस्थता को संभाल नही पाए और वह राजनीति के भेंट चढ़ गए।

समाज बड़ी तीब्रता से मोदी विरोधी और मोदी समर्थकों में विभाजित होने लगा। मौत का सौदागर, मुस्लिमो का कातिल, गुजरात का बूचर जैसे अमर्यादित शब्दों और काँग्रेस इकोसिस्टम में पल रहे मीडियाकर्मियों के द्वारा बेवजह निशाना बनाये जाने की वजह से राष्ट्रीय राजनीति में भी मोदी एक ऐसे नेता बन गए जिनकी जीत की भविष्यवाणी चुनाव से पहले ही हो गयी थी।

2014 में मोदी देश के प्रधानमंत्री बने, तो साथ ही आलोचनाओं मुद्दे बदल गए। 12 वर्ष से 2002 के दंगों में अटके हुए मीडिया के सिपहसलारों ने भूत से निकल कर वर्तमान के मुद्दों पर फोकस किया। वनमैन आर्मी की तरह काम करने वाले मोदी के लिए अब मौत का सौदागर, मुस्लिमो का कातिल की जगह हिटलर, तानाशाह जैसे शब्दों ने ले लिया। आलोचना के लिए मुद्दों की कमी हुई तो असहिष्णुता जैसे शब्दों का गढ़ा गया और उसके बाद अवार्ड वापसी का दौर शुरू हुआ। इसी बीच लिंचिस्तान जैसे शब्दों को न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर में उछाला गया, जिससे देश से प्यार करने वाला भारत का एक बड़ा तबका काफी आहत हुआ, और वह मोदी के खेमे में डट कर खड़ा हो गया।

यहाँ याद करने वाली बात ये भी कि इसी दौर में मोदी समर्थकों के लिए भक्त जैसे शब्दो का इजाद किया गया, क्योंकि वास्तविकता यही थी कि मोदी समर्थकों की मोदी के लिए वफादारी अभूतपूर्व हो गयी। यद्यपि अभी यह दौर वह नही था कि मोदी समर्थक, मोदी के हर फैसले से सहमत थे मग़र अब तक समर्थकों के निशाने पर मोदी नही, बल्कि मोदी विरोधी आ चुके थे। अब मोदी समर्थक, सरकार के उस हर फैसले का समर्थन करने लगे जिसका मोदी विरोधी, विरोध करते।

अनुच्छेद 370 को हटाना हो, पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक या एयर स्ट्राइक करना हो, ट्रिपल तलाक का मुद्दा हो या नागरिकता बिल हो, हर जगह, यहाँ तक कि राम मंदिर का भी जहाँ मोदी विरोधियों ने विरोध किया तो समर्थकों ने एक भक्त की तरह नोटबन्दी का भी बिना किसी सवाल के समर्थन किया।देश के एक बड़े वर्ग को शायद यकीन हो चुका था कि विपक्ष और उनका इकोसिस्टम मोदी का विरोध मुद्दों पर नही, बल्कि विरोध के लिए विरोध कर रहें हैं, और हाल ही में इसके कुछ उदाहरण भी देश ने देखा।

एन्टी CAA आंदोलन को एक बार याद करिये, आपके कानो में 4 -5 साल के बच्चों का वह नारा आज भी गूँज रहा होगा। “जो हिटलर की चाल चलेगा वह हिटलर की मौत मरेगा।” और उसके बाद इस समय चल रहे किसान आंदोलन का वह दृश्य भी आपकी आंखों के सामने घूम रहा होगा जहाँ आंदोलनकरी महिलाओं द्वारा, सार्वजनिक तौर पर “मर जा मोदी मर जा तू” के नारे लगाए गए, जबकि 1984 में इसी दिल्ली की सड़कों में कांग्रेसियों द्वारा सिखों के गले के टायर डाल कर आग लगा दी गयी थी तब भी किसी ने राजीव गांधी के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नही किया।

मतलब साफ है, कि विरोधियों का मकसद मुद्दे की नही, बल्कि मोदी की आलोचना करना है और इसीलिए देश का विपक्ष मोदी का उस मुद्दे पर भी आलोचना करता है जिसमे आलोचना की कोई गुजाइस नही होती और उसकी प्रतिक्रिया में मोदी के समर्थक उस मुद्दे का भी समर्थन करने लगे जिसके लिए मोदी की आलोचना की जा सकती थी। अतः यदि निष्पक्षता के साथ देखा जाए तो जिस तरह मोदी विरोधी, अपने अंधविरोध से मोदी को रोकना चाहते है उसी अंदाज में उनके समर्थक, मोदी को रुकने नही देना चाहते हैं।

– राजेश आनंद

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