झारखंड में रहने वाले आदिवासी सभी लोग चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अपना नववर्ष बनाते हैं जिसे सरहुल कहते हैं जिसका मतलब होता है साख अर्थात सखुआ का फूल। इस दिन सभी आदिवासी अपने कानों में सखुआ का फूल लगाकर मांदर की थाप पर नाचते गाते हुए एक कार्निवल की तरह विशाल जुलूस निकालते हैं और नववर्ष का पर्व बड़े ही धूमधाम से गीत संगीत नृत्य के साथ मनाते हैं। इस दिन सखुआ यानी साल के वृक्ष की पूजा भी की जाती है।
यह पर्व झारखंड छत्तीसगढ़ उड़ीसा पश्चिम बंगाल के साथ-साथ नेपाल और बांग्लादेश में भी वहां के रहने वाले आदिवासी समुदाय के द्वारा बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। इस पर्व को चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि से लेकर पूर्णिमा तक अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग समय पर या अलग-अलग गांव में बड़े ही धूमधाम तरीके से मनाया जाता है। सभी आदिवासी सरहुल के बाद ही गेहूं के फसल की कटाई प्रारंभ करते हैं।
यहां पर लगभग 4 दिनों तक मनाया जाता है।सरहुल पर्व के ‘पहले दिन‘ मछली के अभिषेक किए हुए जल को घर में छिड़का जाता है। ‘दूसरे दिन‘ उपवास रखा जाता है। तथा गांव का पुजारी जिसे “पाहन” के नाम से जाना जाता है। हर घर की छत पर ‘साल के फूल‘ को रखता है। तीसरे दिन पाहन द्वारा उपवास रखा जाता है तथा ‘सरना’ (पूजा स्थल) पर सरई के फूलों (सखुए के फूल का गुच्छा अर्थात कुंज) की पूजा की जाती है। साथ ही ‘मुर्गी की बलि’ दी जाती है तथा चावल और बलि की मुर्गी का मांस मिलाकर “सुंडी” नामक ‘खिचड़ी‘ बनाई जाती है। जिसे प्रसाद के रूप में गांव में वितरण किया जाता है। चौथे दिन ‘गिड़िवा’ नामक स्थान पर सरहुल फूल का विसर्जन किया जाता है।
एक परंपरा के अनुसार इस पर्व के दौरान गांव का पुजारी जिसे पाहन के नाम से जानते हैं। मिट्टी के तीन पात्र लेता है और उसे ताजे पानी से भरता है। अगले दिन प्रातः पाहन मिट्टी के तीनों पात्रों को देखता है। यदि पात्रों से पानी का स्तर घट गया है तो वह ‘अकाल‘ की भविष्यवाणी करता है। और यदि पानी का स्तर सामान्य रहा तो उसे ‘उत्तम वर्षा‘ का संकेत माना जाता है। सरहुल पूजा के दौरान ग्रामीणों द्वारा सरना स्थल (पूजा स्थल) को घेरा जाता है।
सरल पूजा में केकड़े का विशेष महत्व है ,आदिवासियों का पुरोहित जिसे पहन कहा जाता है ,वह उपवास के दिन केकड़े को पकड़ता है और धागे से बांध कर अपने घर के बाहर टांग देता है। धीरे-धीरे केकड़ा सूख जाता है, तब उसका पाउडर बनाकर के जब धान की खेती की तैयारी होती है तो उसे गोबर के साथ मिलाकर धान के खेतों में छोड़ दिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जिस तरह से केकड़े के सैकड़ों बच्चे होते हैं उसी तरह धान की भी असंख्य बालियां उत्पन्न होगी।
सरहुल से जुड़ी महाभारत की भी एक कथा है,इस कथा के अनुसार जब महाभारत का युद्ध चल रहा था, तब आदिवासियों ने युद्ध में ‘कौरवों’ का साथ दिया था। जिस कारण कई ‘मुंडा सरदार’ पांडवों के हाथों मारे गए थे। इसलिए उनके शवों को पहचानने के लिए उनके शरीर को ‘साल के वृक्षों के पत्तों और शाखाओं’ से ढका गया था। इस युद्ध में ऐसा देखा गया कि जो शव साल के पत्तों से ढका गया था। वे शव सड़ने से बच गए थे और ठीक थे। पर जो दूसरे पत्तों या अन्य चीजों से ढ़के गए थे वे शव सड़ गए थे। ऐसा माना जाता है कि इसके बाद आदिवासियों का विश्वास साल के पेड़ों और पत्तों पर बढ़ गया होगा। जो सरहुल पर्व के रूप में जाना गया हो।
सरहुल पर्व प्रकृति से जुड़ा पर्व है जिसमें पतझड़ के बाद सारे पेड़ पौधों में नई पत्तियां आती हैं, फूल आते हैं, प्रकृति में हर्ष होता है, नदियों में पानी होता है ,जंगल में जानवर आनंद मना रहे होते हैं ,पक्षियों में चहचहाट होती है, ऐसे समय में मानव मांदर की थाप पर नाचते हुए ,गीत गाते हुए ,खुशियां मना कर प्रकृति के प्रति जैसे आभार जाता रहा होता है,इस पर्व के माध्यम से ।आप सभी लोगों को जोहार 🙏🙏
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