आईआईटी, कानपुर में प्रगतिशील एवं वामपंथी धारा से जुड़े कुछ विद्यार्थियों ने एक बार परिचर्चा के दौरान मुझसे पूछा कि यदि देश के सभी हिंदू इस्लाम स्वीकार लें तो इसमें आपत्ति ही क्या है? क्या नुक़सान होगा? उस समय मैं युवा था। इन प्रश्नों का भावात्मक उत्तर देकर चुप रह गया था। पर आज मुझे पता है कि हर्ज है, नुक़सान है। और नुक़सान हिंदू धर्म से अधिक विश्व-मानवता का है।

हिंदू धर्म एकमात्र ऐसा धर्म है जो विश्वास एवं उपासना-पद्धत्ति के आधार पर किसी से कोई भेदभाव नहीं करता। वह सहिष्णुता नहीं, सह-अस्तित्ववादिता में विश्वास करता है। दस हजार वर्षों से हमारा दृढ़ विश्वास रहा है ”सत्य एक है।” और इसीलिए उपासना पद्धत्ति से अधिक हमारे लिए तत्व-चिंतन महत्त्वपूर्ण है।

वही दूसरी ओर अब्राहमिक-इस्लामिक विचारधारा सबको अपने अनुसार ढालना चाहते हैं। एक ग्रंथ, एक पंथ, एक पैगंबर को थोपना चाहते हैं। दुनिया को ‘हम’ और वे में विभाजित करते हैं। और होते-होते ऐसे मोड़ पर पहुँच जाते हैं कि आपस में ही दूसरे को पथभ्रष्ट और स्वयं को अधिक मज़हबी बताने लगते हैं। यहीं से उनके भीतर कट्टरता एवं मज़हबी अंधता पैदा होती है, जिसमें से तालिबान जैसी ताक़तें जन्म लेती हैं। प्रारंभ में उन्हें समर्थन मिलता है। पर बाद में ये ताक़तें उनका जीना हराम कर देती हैं। आज अफगानिस्तान में मचे भगदड़, एयरपोर्ट पर मचे हाहाकार को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि तालिबान जैसी ताक़तों के आने से कैसे आम लोगों की ज़िंदगी नरक हो जाती है।

आज अफगानिस्तान में बच्चे, महिलाएँ, स्त्री-पुरुष अपनी मर्ज़ी से कहीं आ-जा नहीं सकते, अपनी मर्ज़ी से पहन-ओढ़ नहीं सकते, अपनी मर्ज़ी से खा-पी नहीं सकते, अपनी मर्ज़ी से काम नहीं कर सकते। गुलामों से भी बदतर है उनकी ज़िंदगी। उन्हें हिज़ाब नहीं पहनने के कारण गोली मार दी जाती है। स्कूल जाने पर जान ले ली जाती है, काम करने पर आँखें निकाल ली जाती है। माँ-बहन जैसे संबोधन उनके लिए बेमानी हैं। औरत उनके लिए जीती-जागती इंसान नहीं खरीद-फ़रोख़्त की वस्तुएँ हैं। आज अफगानिस्तान में सरेआम लाउडस्पीकर से घोषणा की जा रही है कि 14 से 40 वर्ष की महिलाओं को तालिबान के हवाले कर दिया जाय। चंद रुपयों पर उनके शरीर का सार्वजनिक सौदा किया जा रहा है। विरोध तो दूर उन्हें बोलने तक की आज़ादी नहीं!

अफ़गान औरतों की गुलामों-सी जिंदगी

किस शरीयत की बात करते हैं तालिबानी? यदि शरीयत का क़ानून ऐसा होता है तो मुल्ले-मौलवी-उलेमा दिन-रात शरिया की दुहाई क्यों देते हैं? क्या ऐसे शरीयत के क़ानून के अंतर्गत भारतीय मुस्लिम औरतें कभी जाना चाहेंगीं? क्या भारत जैसी आज़ादी उन्हें दुनिया के किसी इस्लामिक देश में मिल पाएगी? उन्हें सोचना होगा कि उन्हें भारत जैसा उदार, स्वतंत्र, लोकतांत्रिक, मान-सम्मान देने वाला समाज और संस्कृति चाहिए या शरीयत पर आधारित तालिबान जैसा। न केवल मुस्लिम महिलाओं को बल्कि संसार भर की सभी महिलाओं को अफगानिस्तान की आधी आबादी के हक़ के लिए आवाज बुलंद करनी चाहिए। उनके मानवाधिकारों की रक्षा करनी चाहिए। यह विश्व मानवता की पुकार है।

तालिबान के खौफ में दबी-सहमी अफगानी बच्चियाँ

और हिंदू धर्म इस चराचर में सभी के अधिकारों की गारंटी है। इसलिए भारत में हिंदू धर्म का अस्तित्व एवं बहुसंख्यक होना संपूर्ण विश्व के लिए कल्याणकारी है।

प्रणय कुमार
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