हमारे भारत देश को अनेकता और विविधताओं का देश माना जाता है | यह देश मशहूर है अनेकता में एकता के लिए अपनी अखंडता के लिए यह देश मशहूर है नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकारों के लिए | यह देश मशहूर है विभिन्नताओं में समानता के लिए। यह देश सांचा है जिसने विभिन्न प्रकार के धर्मों के रीति रिवाजों को एवं मान्यताओं को अपनाया है | इस देश में विभिन्न प्रकार के धर्म के लोग रहते हैं जैसे :- हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई, पारसी, जैन, बुद्ध आदि सभी धर्मों के लोग सम्मान से जी रहे हैं परंतु जैसे मानव जीवन में समय-समय पर उतार-चढ़ाव आता है और वह उन से निजात पाने के लिए हर संभव प्रयास करता है, इसी तरह से भारत में एक मुद्दा गर्माया हुआ है | जिसका नाम है समान नागरिक सहिंता।
यह मुद्दा विवादस्पद क्यों बना ?
उससे पहले हमें यह समझना पड़ेगा कि समान नागरिक सहिंता है क्या?
सामान नागरिक सहिंता धार्मिक मान्यताओं से जुड़े कानूनों को समाप्त करने और इसकी जगह पर एक समान कानून लागू करने का प्रस्ताव है समान नागरिक संहिता। फिलहाल भारत में विभिन्न धर्म और संप्रदाय के लोगों के अपने निजी धार्मिक कानून है और यह कानून केवल शादी तलाक संपत्ति उत्तराधिकार बच्चा को गोद लेने और गुजारा भत्ता जैसे मुद्दों पर ही लागू होगी। इस मुद्दे की शुरुआत सुप्रीम कोर्ट की ओर से मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर स्वत : संज्ञान से पड़ी कोर्ट ने तीन तलाक और बहुविवाह जैसे हक़ पर एतराज जताया और साथ ही सरकार का रूख जानने के लिए उनसे जवाब मांगा कोर्ट के इस रूप से मुस्लिम संगठनों को यह बात नागवार गुजरी कि अचानक मुस्लिम पर्सनल लॉ में बदलाव की ख्वाहिश क्यों हुई ?
दरअसल आपने खूब सुना और पढ़ा होगा सायरा बानो के केस के बारे में जो उत्तराखंड के काशीपुर की रहने वाली हैं। 2001 में उनकी शादी हुई थी और 2015 में उनका तलाक तीन तलाक से हुआ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की और तीन तलाक को निकाह हलाला और भगवा को चुनौती दी और कहा गया कि यह शरियत के खिलाफ है।
कोर्ट ने उनकी याचिका स्वीकार कर ली और मामले को पहले की सुनवाई से जोड़ दिया गया है। अल्पसंख्यकों को कुछ सामान अधिकार दिलाने के लिए विधि आयोग ने समान नागरिक सहिंता पर जनता से राय मांगी है तो कई मुस्लिम संगठनों को यह बात पसंद नहीं आई, कई ने कहा यह इस्लाम के विरुद्ध है। अगर इतिहास पर नजर डालें तो यह मुद्दा आज का नहीं है जब संविधान बना तब उस का जन्म हुआ था। उस समय सभा में चर्चा भी हुई थी और काफी सवाल भी उठे थे 1949,1951,1954 में संसद में बहस हुई पर उस समय के प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू असफल हुए तो इसे नीति निदेशक तत्व के अनुच्छेद 44 में शामिल कर दिया गया। वर्तमान स्थिति में सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता पर जोर दिया कोर्ट ने कहा पर्सनल लॉ स्वीकार नहीं किया जा सकता बाद में कोर्ट ने खुद से संज्ञान लेते हुए एक जनहित याचिका दायर करने का आदेश दिया और चीफ जस्टिस को स्पेशल बेंच बनाने के लिये निर्देश दिया ताकि पर्सनल मुस्लिम महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव को देखा व रोका जा सके |
गुजरात हाई कोर्ट में समान नागरिक संहिता लागू करने को कहा और बहु विवाह और तीन तलाक खत्म करना चाहिए यह मामला अभी संसद में है बीते साल सितंबर में एक याचिका में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए केंद्र के पास स्मरण पत्र भेजा गया जिसके कारण मुद्दे ने फिर जन्म लिया सरकार बी.जे.पी की है | इसलिए मुद्दा और गरमाया हुआ है मुस्लिम बोर्ड का का कहना है पर्सनल लॉ को चुनौती देना संविधान का उल्लंघन है यह याचिका खारिज होनी चाहिए। यह मामला जुडिशल रिव्यु के बाहर है अगर ऐसा किया गया तो यह संविधान के अनुच्छेद 25, 26, 29 के विरुद्ध होगा यह सब कुरान अनुसार है और कोर्ट अपनी व्याख्या नहीं कर सकता 1981 में सुप्रीम कोर्ट ने खुद यह बात मानी थी जब शादी में एक साथ रहना कठिन है तो तलाक ही विकल्प है। जो सही है ताकि फिर दोनों जिंदगियां दोबारा शुरु की जा सके यह सब अधिकार शरीयत देता है। बहुविवाह सोशल और नैतिक जरूरत बताया गया और मेंटेनेंस एक निश्चित समय तक का प्रावधान है प्रोटेक्शन ऑफ राइट ऑन डिवोर्स के अंतर्गत है।
बहस क्यों?
संविधान की चंद धाराओं पर बहस टिकी है एक और (धारा 14) समानता का अधिकार देती है (धारा 15) धर्म जाति लिंग के आधार पर समानता का संरक्षण देती है एवं (धारा 21) जीवन आज़ादी से जीने का अधिकार देती है पर दूसरी ओर (धारा 25) सभी को किसी भी धर्म को मानने एवं उसकी धार्मिक परंपरा को अपनाने की स्वतंत्रता का अधिकार देती है। इसी धारा का बोर्ड इस्तेमाल कर रहा है और बता रहा है कि संरक्षण और स्वतंत्र उनका कानूनी अधिकार है मगर वह यह बात भूल गया है की संविधान में यह साफ़ स्पष्ट है की धारा 44 के अंतर्गतसरकार समान नागरिक सहिंता लागू करने का प्रयास करेगी इसके तहत देशभर में तमाम वर्ग समुदाय और धर्म के लिए एक ही सिविल कोर्ट बनाने की कोशिश करेगी।
वहीँ अगर देखा जाए तो पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान एवं अन्य इस्लामिक देशों ने जैसे ट्यूनीशिया, मोरक्को, मोजांबिक, ईरान, मिस्र एवं कई मुस्लिम देशों ने इस पर कानून बनाया है और तीन तलाक को हटाया है। अगर उन्होंने इसे शरिया के खिलाफ नहीं पाया तो फिर भारत में ही क्यों?
फिर तो अगर पुरुषों के लिए बहु विवाह है पर महिलाओं के लिए बहु पति क्यों नहीं ? यह असामनता का एक विशुद्ध उदाहरण है जिसे बदलना किसी चुनौती से काम नहीं।
आपराधिक मामलों में शरीयत के लिए कभी बोर्ड ने मांग क्यों नहीं रखी। क्या तब शरीयत का ख्याल नहीं आया ? सिर्फ शादी तलाक को उत्तराधिकार और बच्चा गोद लेने पर ही ख्याल आया ? एक निजी सर्वे के मुताबिक यह साफ़ स्पष्ट होता है कि मुस्लिम महिलाओं को बेहद मुसीबत झेलनी पड़ रही है। धर्म के अनुसार अगर देखें तो हिंदुओं की जनसंख्या 104 करोड़ है और तलाक के मामले आए हैं 6.18 लाख जबकि मुस्लिम की संख्या 18 करोड़ है और तलाक के मामले हैं 9.63 लाख यह आंकड़े अपने आप में चौंकाने वाले हैं और हमारे समाज को एक आईना दिखाते हैं। हमारे देश में आज भी औरतों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इससे निजात पाने के लिए देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड की सख्त जरुरत है.
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