दुनिया में कई लोग आस्था को महज धार्मिक चश्मे से देखते हैं लेकिन ये सच नहीं। ऐसा समझना आस्था जैसे एक व्यापक मानवीय गुण और व्यवहार को सिर्फ धर्म के साथ बांध देता है । इस कारण जो लोग एक धर्म संप्रदाय या पंथ के अनुयाई नहीं होते, न सिर्फ वो उस आस्था के दायरे से, बल्कि उन आस्थाओं के सम्मान के दायित्व से भी मुक्त हो जाते हैं जो एक लोकतंत्र के लिए सही नहीं है । दरअसल, हम मनुष्यों की आस्था सिर्फ किसी धर्म विशेष से ही नहीं बल्कि, किसी देवता में, चिन्तन पद्धति में, सिद्धांत में, व्यक्ति में, किसी विशेष मानवीय गुण में, व्यवहार इत्यादि इनमें से किसी में भी हो सकती है । हमें समझना होगा की इस संसार में, आस्था होती सबकी है, इसमें नहीं तो उसमें, उसमें नहीं तो किसी और में, लेकिन इससे मुक्त कोई नहीं । यहां तक भी ठीक है की लोगों की आस्था अलग-अलग है, आस्था के केंद्र अलग हैं । इसमें समस्या क्या है?
समस्या तब होती है जब लोग अपनी आस्था को, जो की कोई दूसरा धर्म, पंथ, समुदाय, व्यक्ति, देवता, सिद्धांत, चिंतन पद्धति, मानवतावाद इत्यादि इनमें से कुछ भी हो सकता है, दूसरे की आस्था से, मान्यताओं से श्रेष्ठ समझने की मानसिकता को प्रश्रय देने लगते हैं, और इस सोच के साथ जीने को अपने लिए सामान्य व्यवहार बना लेते हैं। यानी दूसरे निकृष्ट और हम उत्कृष्ट, वो भी अपने कर्मों से नहीं बल्कि हम किस पर आस्था रखते हैं, महज इस आधार पर। इस चिंतन के कारण, समय के साथ भिन्न भिन्न आस्थाओं की ये श्रेष्ठ-निम्न की होड़ उग्र हो जाती है और अलग-अलग मतों के संघर्ष, हिंसा-प्रतिहिंसा और क्लेश के चक्र का प्रारंभ हो जाता है। इस कारण, हमारी भोली-भली निरीह मान्यताएं जो हमें श्रृष्टि की दिव्यता आध्यात्मिक और प्रकृति से जोड़ती हैं, हमारे संघर्ष का कारण बन जाती हैं ।
अफसोस ये है की भारतवर्ष में आस्था के टकराव की ये श्रृंखला हजारों सालों से चलती आई है और अब भी टूटती नहीं दिख रही बल्कि अब इसमें निकृष्ट राजनीति और क्षुद्र स्वार्थ-बुद्धि का गठजोड़ हो जाने से ये श्रृंखला और बलवती हो गई है, उलझ गई है। ये है समस्या।
अब अगर धार्मिक आस्था की बात करें , तो भारत का तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग, भारत के पहले से ही इस लूल्हे लंगड़े लोकतंत्र की असमर्थता का फायदा उठाकर, संविधान की आड़ में, कानून बनाने की आड़ में, प्रगति की आड़ में, अपनी कुत्सित विचारधारा के प्रसार और पोषण के लिए, सत्ता में बने रहने के लिए, महज शासनतंत्र का अंग बने रहने के लिए, भारत से भारतीयता का अंत कर इसे महज एक बाजार की तरह, अपने अधीन रखना बेचना और खरीदना चाहते हैं जहां लोग बस उपभोक्ता भर हों । एक ऐसा भोगी माध्यम वर्ग जिनमें न एकता हो न मर्म हो न तप हो न ज्ञान हो न शील हो, जिन्हें जिधर हांक दो उधर चले जाएं, अपने उत्सव और शोक कानून की अनुमति से मनाएं या फिर भूल ही जाएं l ये तभी हो सकता है जब करोड़ों की आबादी वाला ये देश, पूर्णतः आस्थाहीन हो जाए, उसकी कोई जड़ न बचे जो उसे ईश्वर की सत्ता और प्रकृति की ओर संवेदना से जोड़े रखती हो। ऐसा करने के लिए ही ये स्वार्थी मूर्ख अपने देशवासियों की भावनाओं के प्रति संवेदनहीन होकर, उनकी हर आस्था को कानून, संविधान, समान अधिकार, मानवाधिकार, प्रगतिशीलता इत्यादि के बंधन में बांधकर उनके हृदय-तल से खींचकर निकाल फेंकने को आतुर हैं और उनके इन कुकर्मों से भविष्य में देश में आस्था को लेकर हो रहे संघर्षों के थमने की बजाय और विकट और विनाशक होने की पूर्ण संभावना है।
आज के परिदृश्य में आप इसे भारत में हिंदुओं की आस्था के प्रतीकों पर अलग-अलग रूप में भारतीय लोकतंत्र के संरक्षण में शासन-तंत्र द्वारा हो रहे अनवरत अन्यायों से समझ सकते हैं l अपनी असलियत छुपाते हुए, ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले ये नहीं समझते की आस्था किसी की भी हो, अगर उससे किसी दूसरे को कोई हानि नहीं पहुंचती,तो समाज के हर व्यक्ति और इकाई को उसका सम्मान करना चाहिए जिससे भिन्न-भिन्न मानसिकता के जनसमूहों के मध्य आस्था के विषय को लेकर कोई द्वेष उत्पन्न न हो, एक दूसरे के प्रति कोई कलुषित दुर्भावना जनित न लेकिन होता बिलकुल इससे उलट है । हजारों सालों से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही मान्यताओं को, जिससे करोड़ों लोगों की आस्था जुड़ी है, मुट्ठी भर नागरिक, नेता, कार्यकर्ता, अधिकारी व कुछ विरोधियों का एक तंत्र, भारत के प्रगति पथ में पड़ा बोझ समझता है। सूक्ष्म दृष्टि के बजाय संकुचित दृष्टि से देखता है, मजाक बनाता है, सिर्फ उसके इर्द गिर्द होते व्यापार को देखता है, हर बात पर वैज्ञानिक प्रमाण मांगता है, विज्ञान की चुनौती देता है, भौतिक प्रमाण ना होने पर अंधविश्वास दकियानूसी और ढोंग का लेबल लगा देता है, उसके विरुद्ध आंदोलन करता है, संख्याबल पर उसपर आघात करके, छिन्न-भिन्न करने के लिए कानून बनवाता है, अपना विरोध करनेवाले और आस्था को माननेवालोंं को आतंकी और स्वयं को प्रगतिशील समाज-सुधारक समझता और सिद्ध करता है।
किसी आस्था से समस्या होती है उनको जो उसपर विश्वास नहीं करते लेकिन इसका दंश भुगतना पड़ता है आस्था रखनेवाले को जो अपने विरोध को संविधान कानून न्याय व्यवस्था और लोकतंत्र के जाल कारण संयमित रखने को विवश है लेकिन अपनी मान्यताओं की दुर्गति और हो रहे अन्याय को देख कर अंदर ही अंदर क्षोभ क्रोध और घृणा से भर उठता है। ठीक वैसे ही जैसे रावण के राक्षसी साम्राज्य में , अपने ऊपर होने वाले अमानवीय अत्याचारों से दंडकवन, जनस्थान, पंचवटी के वानर, गिद्ध, निषाद, मछुआरे, भील, ऋषि-मुनि, तपस्वी, ब्रम्हचारी, साधु-संन्यासी सब के सब पीड़ित, त्रस्त, दग्ध होते रहते थे, सुलगते रहते थे लेकिन नेतृत्व और संगठन के अभाव में कुंठित होकर राक्षसों के अन्याय सहते जाते थे। उन्होंने ये सब सहा, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आने तक, और उनके आने के बाद, उनके संरक्षण में उनके प्रशिक्षण से, यही निरीह, डरपोक और हमेशा चुपचाप सहते रहने वाले लोगों की ये भीड़ एक विराट सेना में बदल गई। इसके बाद पापी रावण का पतन कैसे हुआ, ये हम सब जानते हैं लेकिन शायद आज का शासनतंत्र इसे भूल गया है और जाने-अनजाने रावण बनता जा रहा है।
कुछ उदाहरण देता चलूं:
शबरीमाला मंदिर के ब्रम्हचारी देवता हों या जलीकट्टू, दही-हांडी जैसे आयोजन, सब में सामाजिक कार्यकर्ता, न्यायव्यवस्था, राजनेता, कानून व्यवस्था की सेंधमारी हुई और इस आयोजनों पर इन्होंने अपनी अनैतिक मनमानी थोपी।
दिवाली के पटाखे हों या होली के रंग, सबमें कानून का दखल है।
दशहरा, सरस्वती पूजा, रक्षा-बंधन, छठ, तीज, करवा-चौथ और लगभग हर पर्व-त्योहार-व्रत-उपवास पर प्रश्नचिन्ह लगाकर इन्हें मूर्खतापूर्ण, अंधविश्वास, नारी विरुद्ध बताकर, इनके पालन में किसी न किसी रूप में बाधा उत्पन्न की जा रही है और इन कुत्सित प्रयासों को कानून किसी भी प्रकार नियंत्रित नहीं करता ।
ग्रंथों को कटघरे में खड़ा कर, उसकी भर्त्सना और आलोचना कर उसे निषिद्ध करने या समाज में उसका दुष्प्रचार करने का प्रयास हो रहा है, जलाया जा रहा है। बात अब मनुस्मृति तक सीमित नहीं है जिसे हिंदुओं ने चुपचाप सह लिया। रामचरितमानस के विरुद्ध हो रहा दुष्प्रचार इसका ताजा उदाहरण है।
आधुनिकता की होड़ में, मजाक उड़ाए जाने के भय से, प्रताड़ित किए जाने के भय से, हिंदू समाज अपने चिन्हों जैसे शिखा, तिलक, भभूत, कलावा, यज्ञोपवीत इत्यादि को पहले ही लगभग तिलांजलि दे चुका है।
सभी वर्णों के बच्चों को एक समान शिक्षा देने वाले गुरुकुल आज समाप्त हो गए हैं।
एक व्यक्ति के जीवन में जन्म से लेकर मरणोपरांत चलते रहने वाले संस्कार जैसे, नामकरण, उपनयन, मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह, अंतिम क्रिया कर्म, पिंडदान इत्यादि सब धीरे-धीरे अपनी महत्ता व वास्तविक स्वरूप को लगभग खो चुके हैं और जनसामान्य के जीवन से विलुप्त हो रहे हैं। यहां तक की अब लोग अपने पुरखों के पिंड-दान में भी संकोच करते हैं उसे ढकोसला मानने की ओर बढ़ चले हैं या मानते हैं।
रावण के काल की ही तरह, किसी भी धार्मिक आयोजन जैसे यज्ञ, पूजा पाठ, सत्संग, धर्म सम्मेलनो को निर्विघ्न पूरा होने नहीं दिया जाता, उन्हें कानूनी कटघरे में किसी न किसी प्रकार फांस लिया जाता है, आयोजकों ऑयल श्रद्धालुओं को कानून के नाम पर त्रास दिया जाता है।
कोई भी मूर्ती पूजा वाला त्योहार हो, उसके विसर्जन यात्रा में पुलिस से लेकर अन्य असामाजिक तत्वों द्वारा व्यवधान अवश्य उत्पन किया जाता है। पंडालों में और विसर्जन झगड़ा फसाद पत्थरबाजी की घटनाएं अब आम बात हो गई हैं । इन घटनाओं में दो-चार की जान जाना भी अब लोगों को आश्चर्य में नहीं डालता ।
हजारों और ऐसे उदाहरण हैं जिनमें विशेष रूप से हिंदू समाज की आस्थाओं पर उसे न मानने वाले, चाहे वो कोई साधारण व्यक्ति हो या व्यवस्था का कोई अधिकारी या राजनैतिक शक्तियां, अपने अपने
तरीकों से अवरोध उत्पन्न करके हिंदू समाज में और उनके हृदय में अशांति द्वेष भय का वातावरण बनाए रखना चाहते हैं।
भविष्य तो कोई नहीं जानता लेकिन कुछ तथ्य ऐसे हैं जो सबको समझ लेने चाहिए। असत्य पापा अधर्म अन्याय कितने भी प्रबल हो जाएं, अंततः पराजित ही होते हैं और अन्यायी की अंततः दुर्गति होती ही है। दूसरों की आस्था के प्रति कलुषित भाव रखने वाले भी अन्याय कर रहे हैं और उनके इन कुकर्मों का हिसाब ईश्वर रख रहे हैं ।
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