दुनिया का एक देस निराला
खाए पिए जीव जंतु सारा,
उस देस की निराली सरकार
सच दबाए बिन लिए डकार।
सरकार की एक निकम्मी साथी
दिया जलाए बिन तेल और बाती,
बिन उजाले दुनिया जो सोती
आग लगे पर भी न उठती।
काल का गाल जो बने बेचारे
भयंकर भयावह व्यथित नजारे,
न कोई गोरा न कोई काला
इस काल ने सबको उजाड़ा।
अल्प समय ही रायता फैला
देस विदेस संकट का रैला,
गली मुहल्ले पर भी पहरा
सुनसान सड़कें शांत दुपहरा।
स्वच्छ पवन व निर्मल जल
मनुष्य बिन चहके नभ-जल-थल,
पशु-पक्षियों ने शांति पायी
पर उन्हें भी हमपर हँसी तो आई।
विपत्ति में भी एकता आई
सम्मान में सबने घंटी बजाई,
पर चंद नमूने मुर्ख जो ठहरे
मुसीबत के नए बीज उकेरे।
नई दिन नित-नई समस्या लाते
श्रमिक बेचारे किधर को जाते,
शहर खोखली वादे खोखले
सज्जन सेवक सेवा को पहले,
ऐसे में गांव घर को आता
पग-पग ही मार्ग नाप लाता।
एक मास ही अक्ल जो आई
काला-पानी की सजा याद आई,
सावरकर ने क्या दिन थे देखे
भगत-सुभाष बलिदानी सरेखे,
स्वतंत्रता का जो मूल चुकाया
हमे तो बस गाँधी याद आया।
कैसे वो महाज्ञानी थे
जेल में सब कुछ जाने थे,
ऐसा अवसर फिर है आया
कर्म कांड प्रकृति की माया,
न कोई मुर्ख है न कोई ज्ञानी
तुम हो तुम में तुम अभिमानी।
योग-एकान्त-भक्ति की शक्ति
दंभ का अंत शांति की उत्पत्ति,
शांति मनुष्य जाति जो पाए
स्वर्ग धरा धरती पर आए।।
चित्र : Photo by engin akyurt on Unsplash
Originally published on my personal blog.
DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.