सीबीएसई ने इतिहास और राजनीति विज्ञान के किताबों से कुछ अध्याय कम कर दिये तो इस पर वामपंथी बुद्धिजीवियों की आंखें सजल हो उठीं, भारत के अभिभावक संघ के प्रमुख की जुबान लरजने लगी, कुछ प्रगतिशील शिक्षकों की वाणी गरजने लगी कि सरकार ने अपनी असहिष्णुता की एजेंडे के तहत वे अध्याय कम करवा दिए जो उनकी आईडियोलॉजी से मैच नहीं करते थे।
एक कविता है ….
व्रण की करती खोज मक्षिका दिव्य बदन में,
मल को ढूंढे शूकर जाकर चंदनवन में।।
और इस कविता का आपको जो भी अर्थ लगे परंतु इस कविता की मक्खी और सूअर वही बुद्धिजीवी लोग हैं जिनको इतिहास और राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम से कुछ अध्यायों की छटनी का इतना अफसोस है कि उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि उनके सर्वे के अनुसार 70% महिलाएं चरम सुख से वंचित हैं, इसीलिए उन्हें महिलाओं के हित में आवाज भी उठानी थी।
जब नवी दसवीं के सिलेबस से लघुगणक गायब हुआ तब तो किसी बुद्धिजीवी को छींक भी नहीं आई। और उस समय के सरकार के इस निर्णय के कारण लगभग 20 साल से आज तक दसवीं के बच्चे लॉग टेबल देखना नहीं सीख पाये और आज की हालत यह है की 11वीं -12वीं में भौतिक विज्ञान की शिक्षक इसे गणित के शिक्षक की जिम्मेदारी मानते हैं और गणित के शिक्षक का मानना है कि जब सिलेबस कंप्लीट करने का वक्त नहीं है तो आउट ऑफ सिलेबस जाने की बेवकूफी कौन करे। और लगभग दो दशक से छात्र गणित की एक मूलभूत अवधारणा से वंचित हैं पर इस पर किसी बुद्धिजीवी को विचार करने का समय नहीं है।
यकीन मानिए कि जब हम लोग पढ़ा करते थे उस समय इतिहास और राजनीति विज्ञान विषय पढ़ने वाले छात्रों के नामांकन फॉर्म महाविद्यालय के क्लर्क हीं भरा करते थे क्योंकि कला संकाय के छात्र जब कॉलेजों में अपना नामांकन करवाने जाते थे तो उन्हें पता हीं नहीं होता था कि उन्हें आगे जाकर क्या-क्या विषय पढ़ना है? और वे लोग उस महाविद्यालय के सबसे न्यूनतम ज्ञान रखने वाले क्लर्कों के हाथों अपने भविष्य की नीव का पत्थर रखवा देते थे। ऐसे विषयों की पुस्तकों से अगर तीन चार पन्ने गायब भी हो गए तो क्या फर्क पड़ता है।
और यह भी ध्यान दिया जाए कि सीबीएसई ने अपनी तरफ से बच्चों के हित में इस कोरोना काल में सिलेबस छोटा करने की कोशिश की है जबकि पूरे भारत के राज्यों का अपना शिक्षा बोर्ड है और उसमें क्या इतिहास या भूगोल पढ़ाया जाए यह उस राज्य के सरकार की अपनी इच्छा है। अल्पसंख्यकों के उत्थान के लिए स्थापित विश्वविद्यालयों में तो क्या पढ़ाया जाए ये उनका संगठन तय करता है, सरकार का उन पर हुकुम चलाने का न कोई विचार होता है और न हैसियत। कोई विश्वविद्यालय छात्रों की निजी रूचि के आधार पर उन्हें रात को बीफ पार्टी करने का अधिकार देता है तो कभी भारत को टुकड़े टुकड़े होने का आशीर्वाद देने वाली रैली करने की इजाजत।
पर इन्हीं अभिव्यक्ति की आजादी के पैरों कारों के रहते हुए भी कभी भी पोर्क पार्टी का आयोजन नहीं होता।
खैर ये तो भक्तों वाली असहिष्णुता हो गई।
दरअसल यह बुद्धिजीवी भूल जाते हैं कि सास भी कभी बहू थी। राम जन्मभूमि पर बाबर के सिपहसालार के द्वारा मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने के हिमायतियों को कभी लेनिन की मूर्ति टूटने का दंश झेलने के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा।
हम भारतीय लगभग गणित की 200 साल पुरानी बातें हीं पढ़ रहे हैं। जिस श्रीनिवास रामानुजन का गुणगान करते भारतीय गणित प्रेमियों की जीभ थक चुकी है उनके बनाए गए सिद्धांत लेखक के स्नातकोत्तर गणित के सिलेबस में दो इलेक्टिव के रूप में भी उपलब्ध नहीं थे। नवी दसवीं कक्षा में बांग्लादेश का स्वतंत्रता संग्राम, भारत का परमाणु विस्फोट या ऑपरेशन ब्लू स्टार का जिक्र अब भी इतिहास की किताबों में नहीं मिल रहा। राजनीति विज्ञान की किताबों में दल बदल विरोधी कानून के बारे में आज तक कोई जिक्र नहीं है (मैं यह बात विश्वविद्यालय के सिलेबस के आधार पर कह रहा हूं)!
तो मेरे विचार से भारतीयों को इतिहास और राजनीति विज्ञान के सिलेबस में परिवर्तन के लिए तैयार रहना चाहिए साथ हीं गणित और विज्ञान के सिलेबस में भी भारतीय वैज्ञानिकों की खोज को जगह मिलनी चाहिए। बरना भारतीय विश्वविद्यालयों में किए गए शोध, वामपंथियों के द्वारा समतामूलक समाज की स्थापना का संकल्प, आरक्षण के द्वारा दबे कुचले पिछड़े और अछूत तबके के लोगों के उत्थान की अवधारणा और सांड का गोबर लगभग समान रूप से समाज और मानव सभ्यता के लिए अनुपयोगी सिद्ध होंगे, मतलब टोटल वेस्ट।
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