“जहाज के ब्रिज पर लगी कप्तान की कुर्सी पर वो शख्स शांत बैठा था ... बिना हड़बड़ी और घबराहट के, जब तक जहाज दिखता रहा, हम उन की ओर देखते रहे ... ”
ये 49 साल पहले हुई उस जंग में जिंदा बचे एक नौसैनिक का बयान था, अपने जहाज के कप्तान को याद करते हुए। आज इसकी तारीखी प्रासंगिकता है, क्योंकि 9 दिसंबर 1971 को ही ये जहाज डूबा था। लेकिन ये कहानी सिर्फ एक जहाज के डूबने की नहीं है ... ये कप्तान महेंद्रनाथ मुल्ला की चुनी हुई शहादत की कहानी है।