बंगलोर के हिंसक दंगों के मायने
“नए जमाने के फैंसी सेक्युलर जो बात -बात पर हिन्दू मुस्लिम एकता की हामी भरते हैं फिलवक्त मुँह में दही जमाये बैठे हैं। उनके लिए हिन्दू विरोधी दंगे कुछ नहीं बस काफ़िर मारकाट प्रतियोगिता हैं, जिसमे देश का एक डरा हुआ वर्ग उत्साह से भाग लेता है। लोकतंत्र में डरे हुए अल्पसंख्यक किसी का घर जला सकते हैं, पुलिस चौकी फूक सकते हैं , घरों को लूट सकते हैं। ये सब इनके लिए संविधान के दायरे में है। और इस पर वो प्रतिक्रिया देने की परवाह नहीं करते”।
ऐसे लोग जो अनवरत हिन्दू मुस्लिम एकता की हिमायत करते रहे हैं आज उन्हें ठहर कर सोचने की आवश्यकता है। आखिर कब तक गंगा- जमुनी तहज़ीब की नौटंकी का शिकार बहुसंख्यक समुदाय होता रहेगा। उन्हें यह सोचना होगा कि जिस अदृश्य एकता को वो बार बार दुहराते हैं वह विद्यमान है भी या नहीं।।
इतिहास को जाने समझे बगैर इस तरह की मृगतृष्णा में जीना भयंकर विपत्तियों को आमंत्रित करने जैसा है जिसके विघटनकारी परिणाम 1947 के देश विभाजन जैसा हो सकता है।
भारत पर मुहम्मद बिन कासिम के सन 711 में पहले मुस्लिम हमले से लेकर 1526 के आक्रांता बाबर के हमले तक मुस्लिम शासकों का उद्देश्य केवल लूटमार अथवा जीत की आकांक्षा से प्रेरित नहीं थी वरन इनके पीछे एक और उद्देश्य भी था “भारत मे मूर्ति -पूजा और हिंदुओ के बहुदेववाद पर प्रहार कर यहां इस्लाम की स्थापना”। यह आकांक्षा आज भी जारी है।
हज्जाज को भेजे गए पत्र में स्वयं मीर कासिम ने लिखा था “ राजा दाहिर के भतीजे ,उसके योद्धाओं और प्रमुख अधिकारियों को ठिकाने लगा दिया गया है और मूर्तिपूजकों को या तो इस्लाम मे दीक्षित कर दिया गया है अथवा उन्हें तबाह कर दिया गया है।मूर्तियों वाले मंदिरों के स्थान पर मस्जिद और अन्य इबादत स्थल बना दिये गए हैं। वहां कुतुबाह पढ़ी जाती है, अजान दी जाती है ताकि निर्धारित घंटों पर इबादत हो सके”।।
मुहम्मद गज़नी ने भी भारत पर उसके निरन्तर हमलों को जिहाद का नाम दिया था।
मुहम्मद गौरी के कृत्यों का वर्णन करते हुए इतिहासकार हसन निज़ामी ने कहा था।
“उन्होंने (मुहम्मद गौरी) अपनी तलवार से हिन्द को कुफ़्र की गंदगी से साफ़ किया और पाप से मुक्त किया तथा उस सारे मुल्क को बहुदेववाद से मुक्ति दिलाया। उन्होंने अपने शाही शौर्य और साहस का प्रदर्शन करते हुए एक भी मंदिर को खड़ा नहीं रहने दिया।
तैमूर ने अपने संस्मरण में बहुत बेबाकी एवं निर्लज़्ज़ता से भारत पर हमले की वजह बताई थी। वह कहता है।
“हिंदुस्तान के ऊपर किये गए हमलो का मेरा उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ काफिरों के खिलाफ अभियान चलाना और मुहम्मद के आदेशानुसार उन्हें इस्लाम मे धर्मान्तरित करना है”
उपरोक्त प्रसंग यह सिद्ध करते हैं कि कालांतर से ही इस्लाम के अनुयायियों का एक मात्र मकसद पूरे विश्व मे इस्लाम की स्थापना करना रहा है। यह आज भी बिभिन्न रूपों में जारी है।
मध्ययुगीन बर्बरता से लेकर स्वामी श्रद्धानंद की 1926 में हत्या और फिर हाल फिलहाल कमलेश तिवारी की हत्या इस मानसिक बीमारी का एक जीता जागता सबूत हैं।धर्मान्ध मुसलमानों द्वारा न जाने कितने प्रमुख हिंदुओं की हत्या की गई है। मुस्लिम समाज ने कभी इनकी निंदा नही कि है बल्कि उन्हें “गाज़ी”बताकर उन्हें सम्मानित किया है।
मुसलमानों के इस दृष्टिकोण का प्रतिकार न कर इस पर मौन साध लेना आपदा को बुलावा देने जैसा है । बंगलोर के प्रायोजित दंगे ऐसी ही वीभत्स सोचका परिणाम हैं। साथ ही तथाकथित बुद्धिजीवी, छद्म धर्मनिरपेक्षवादी एवं जय मीम जय भीम का नारा बुलंद करने वाले कुंठित राजनेताओं का मौन हिन्दू समाज के लिए एक संदेश है कि ये वर्ग कभी हिन्दू हित मे कार्य नही कर सकता। कांग्रेस के आला नेताओ की चुप्पी भी इस बात का परिचायक है कि उसके लिए मुस्लिम तुष्टिकरण से बड़ा कोई मुद्दा नही है । हिंदू हितों से उसका कोई सरोकार नही है। चुनाव आने पर सॉफ्ट हिन्दू कार्ड खेलना महज स्टंट है। कांग्रेस मूलतः हिंदुओ को जाति भेद में बांट कर उनका शोषण करना चाहती है।
हजारों मंच से हिंदू मुस्लिम एकता की बात करना या उसे कलात्मक सुर्खियों से बांधना एक ऐसे भ्रम को बनाये रखने के समान है जिसकी परिणति बंगलोर जैसी घटनाओं में होती है।जय भीम जय मीम का नारा सिर्फ चुनावी नारा है। जो दलित यह अनुमान लगाते हैं कि मुस्लिम वर्ग उनका सहयोगी है वो पाकिस्तान में हिंदू दलितों पर हो रहे अत्याचारों एवं बंगलोर जैसी घटनाओं से सबक लें तो उनके एवं हिन्दू समाज के लिए यह बेहतर होगा जिसके वो अटूट अंग भी हैं।
अपनी आस्था के प्रति आशक्त मुसलमानों के लिए दलित और अन्य गैर मुस्लिमों में कोई भेद नहीं है। इस्लामी विचार के अलावा मुस्लिम किसी अन्य विचार को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। इस्लाम के लिए वो निहायती बेशर्म होकर किसी की भी हत्या कर सकते हैं चाहे वो जय भीम जय मीम का नारा लगानेवाला कांग्रेसी सेक्युलर दलित ही क्यों न हो ।
विगत वर्षों के इतिहास को देखकर यह परिलक्षित हो जाता है कि तमाम प्रयत्नों के बावजूद हिन्दू मुस्लिम एकता न कभी फलीभूत हुई है न कभी होगी। यह एक मृगतृष्णा की तरह है एवं इस मृगतृष्णा का त्याग कर हकीकत को स्वीकार करने की जरूरत है। अब यह सोये हुए हिंदुओ पर निर्भर करता है कि वे तमाम् दुर्भाग्यपूर्ण परिणामों के बावजूद एकता की कोशिश करेंगे या स्वयं को बलशाली बना 1947 या 1990 की कश्मीर घाटी से पंडितों के पलायन जैसी स्थिति बनने पर ईंट का जवाब पत्थर से देंगे।
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